हिन्दी और उर्दू के बीच की दूरियाँ....
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जकिया ज़ुबैरीमाननीय उच्चायुक्त महोदय श्री भण्डारी साहब, आदरणीय श्री राजेन्द्र यादव जी, भाई श्री कृष्ण बिहारी जी, कांता जी, पूर्णिमा जी, भारत, रूस एवं लंदन से पधारे साहित्यकार भाइयों एवं मित्रों। मिडिल ईस्ट -यानी कि दुबई में हिन्दी सम्मेलन! सोच कर रोमांच जैसा महसूस होता है। एक वक्त था जब दुबई के नाम से भारत और पाकिस्तान के अनपढ़ मज़दूरों का चेहरा सामने आता था। मेरे कई मित्र एअरलाइन्स के पेशे से जुड़े हैं, उनसे इन मज़दूरों के किस्से भी सुनने को मिलते थे। दुबई की दूसरी पहचान हमेशा से रही है सोना। भारत और पाकिस्तान में आम आदमी यही समझता है कि दुबई में सोना, आलू और प्याज़ की तरह बिकता है। कहा यह भी जाता है कि दुबई गल्फ़ का पेरिस है। यानी दुबई बहुत सी बातों के लिये जाना जाता है, लेकिन हिन्दी साहित्य की चर्चा दुबई में हो सकती है, और वो भी अपने ही जीवन में लिविंग लीजेंड बन चुके राजेन्द्र यादव जी की उपस्थिति में, यह तो सोच के दायरे से बाहर की बात है। ज़्यादा से ज़्यादा यह एक मरीचिका (सैचियी) हो सकती थी। लेकिन आज मैं इस सच्चाई को देख रही हूँ, महसूस कर रही हूँ और उसका एक हिस्सा भी बनी हुई हूँ। मेरा जन्म आज़मगढ़ में हुआ और मेरी मातृभाषा हिन्दी है। मुझे अपार ख़ुशी का अहसास हो रहा है कि मेरी मातृभाषा विश्व भर में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है। कथू यू.के.एवं यू.के.हिन्दी समिति ने लंदन में हिन्दी की अलख जगा रखी है। मुझे पूरी उम्मीद है कि अब दुबई भी हिन्दी का महत्वपूर्ण केन्द्र बन जाएगा। पूर्णिमा जी ने अभिव्यक्ति एवं अनुभूति के माध्यम से शारजाह को महत्वपूर्ण बना ही रखा है। आज इंटरनेट का ज़माना है और मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि उनकी अभिव्यक्ति ने मेरे परिचय तेजेन्द्र शर्मा की कहानी पासपोर्ट का रंग से करवाया और उसके बाद हिन्दी साहित्य से। मैं कान्ता भाटिया जी, भाई कृष्ण बिहारी जी और पूरी आर्गेनाइजिंग कमेटी को बधाई देती हूँ कि इतना ख़ूबसूरत सम्मेलन दुबई में आयोजित किया जा रहा है। मैं लंदन के हिन्दी और उर्दू जगत की ओर से आप सब का स्वागत करती हूँ। अब क्योंकि हिन्दी मेरी मातृभाषा है और उर्दू मेरी ससुराल की भाषा है तो मैं लंदन में इन दोनों भाषाओं के साहित्य के बीच बढ़ती दूरियों के बारे में सोचती हूँ। अधिकतर अदीबों, साहित्यकारों की बड़ी बड़ी बातें सुनती हूँक्व अजी साहब, हिन्दी और उर्दू कोई अलग अलग ज़बाने थोड़े ही हैं....यह तो सगी बहनें हैं। दोनों ज़बानों के 75% शब्द तो एक से ही हैं। और फिर भाषा कोई वॉकेबलरी से थोड़े ही बनती है। दोनों ज़बानों की ग्रामर तो एक ही है। अजी स्क्रिप्ट से क्या होता है। चाहे दोनों ज़बानों के स्क्रिप्ट अलग अलग हैं, लेकिन उनका स्वाद, रंग तो एक ही है। लेकिन मज़ेदार बात यह है कि दोनों ज़बानों के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। भारत के विभाजन के बाद से उर्दू ज़बान फ़ारसी और अरबी के नज़दीक जाती जा रही है और हिन्दी भी आहिस्ता आहिस्ता संस्कृत बनती जा रही है। वो पुरानी गंगा-जमुनी ज़बान जो कुछ दिनों तक गंगा जमुनी तहज़ीब का प्रतीक बनी हुई थी, अचानक ग़ायब होती जा रही है।वैसे सच्चाई अगर सामने दिखाई दे रही हो तो केवल आँखें मूँद लेने से कुछ बदलने वाला नहीं। हिन्दी और उर्दू तो सदा से ही भिन्न भिन्न लिपियों में लिखी जाती थीं, यहाँ तो पंजाबी को लेकर बहुत ही त्रासद स्थितियाँ बनती जा रही हैं। आज पंजाबी भाषा भी दो हिस्सों में बँट चुकी है। एक पंजाबी है वो जो भारत में बोली जाती है और गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है। वहीं दूसरी पंजाबी बोली जाती है पाकिस्तान में, जो कि उर्दू लिपि में लिखी जाती है। उर्दू लिपि वाली पंजाबी पर अब उर्दू अपना शिकंजा कसती जा रही है जब कि गुरमुखी वाली हिन्दी की शब्दावली में हिन्दी शब्द घुसपैठ कर चुके हैं। बेचारी पंजाबी की स्थिति पंजाब से कोई अलग नहीं है। पहले पंजाब के दो टुकड़े हुए और फिर तीन और। यानी कि पाँच पानी एक साथ होने के स्थान पर पाँच पंजाब बन गये। ठीक उसी तरह पंजाबी भी पहले दो लिपियों में बंटी, अब सरायकी बोलने वालों की लड़ाई यह बनती जा रही है कि उनकी भाषा को पंजाबी न कहा जाए। सरायकी, वास्तव में मूलरूप से पंजाबी साहित्य की मूल भाषा है। तो मैं कह रही थी कि किसी भी परेशानी से मुँह फेर लेने से कुछ हासिल नहीं होता। एक ज़माना वो भी था जब कुछ लोग कहा करते थे कि वे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को दो मुल्क नहीं मानते। चार-चार लड़ाइयों ने हमारी आँखें खोल दीं और समझा दिया कि सच्चाई से नज़रें चुराने से कोई लाभ नहीं होता। लगभग यही स्थिति हिन्दी और उर्दू की भी बन चुकी है। हमें अब यह डिस्कस नहीं करना है कि दोनों ज़बानें एक हैं या दो। हमें विचार इस बात पर करना है कि इन दोनों भाषाओं के साहित्य, साहित्यकारों एवं पाठकों के बीच जो खाई बढ़ती जा रही है, उसको पाटा कैसे जाए। बहुत आसान है कह देना कि हिन्दी वालों को उर्दू लिपि सीखनी चाहिए और उर्दू वालों को हिन्दी लिपि सीखनी चाहिए। क्या यह इतना ही आसान है ? हैं और भी ग़म ज़माने में ज़बान सीखने के अलावा। आज जब कि हिन्दी बेल्ट के लोग हिन्दी सीखने को तैयार नहीं हैं और उर्दू तो जैसे बेमौत मरती जा रही है, क्या यह आवश्यक नहीं कि हम कुछ तो ऐसा सोचें जिससे दोनों अदबों के पाठकों को एक दूसरे के क्षेत्र में लिखे जा रहे अदब का लुत्फ़ मिल सके। इसके लिए ज़रूरी होगा कि नास्टेल्जिया को छोड़ते हुए इन ज़बानों को दो अलग-अलग ज़बान मान लिया जाए और इनके बीच की दरार को पाटने का प्रयास किया जाए। जयपुर से एक पत्रिका निकलती है शेष। उस पत्रिका की विशेषता है कि उसमें केवल उर्दू साहित्य प्रकाशित होता है किन्तु देवनागरी लिपि में। हमें ऐसी और बहुत सी पत्रिकाएँ निकालनी होंगी जिनमें या तो हिन्दी साहित्य उर्दू लिपि में छपता हो या फिर शेष की ही तरह उर्दू साहित्य देवनागरी में छपे। वैसे अगर दोनों साहित्य एक साथ भी छपें तो भी कोई समस्या नहीं है। कथा यू.के.लंदन में कथा गोष्ठियाँ करवाती है। जिसमें एक उर्दू, एक हिन्दी और एक पंजाबी का लेखक आ कर अपनी कहानियाँ पढ़ते हैं और कार्यक्रम में शिरकत करने वाले लोग उन कहानियों पर तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। पिछले सात सालों कथा यू.के.द्वारा शुरू की गई यह गोष्ठियाँ लंदन में बहुत लोकप्रिय हुई हैं। श्री तेजेन्द्र शर्मा का यह काम एक बहुत ही सकारात्मक यानी कि पाजिटिव स्टेप है। कैसर तमक़ीन, सफ़िया सिद्दीकी, फ़हीम अख़तर, शाहिदा अहमद जैसे उर्दू लेखकों के अतिरिक्त उनमें हिन्दी के लगभग सभी लेखक भाग ले चुके हैं। हम ने कल प्रेमचन्द की कहानी बड़े भाई साहब का मंचन देखा। ठीक इसी तरह तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों श्वेत श्याम एवं अभिशप्त का मंचन लंदन में किया जा चुका है। इन कार्यक्रमों में हिन्दी और उर्दू दोनों ज़बानों के लेखक और पाठक उपस्थित थे। यह एक बहुत ही सफल तरीका है जिसमें कहानी और नाटक दोनों का मज़ा मिलता है और कहानी पढ़ाने के बजाए दिखाई जाती है। एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स ने पिछले वर्ष तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों का उर्दू में अनुवाद करवा कर पुस्तक का बड़े स्तर पर विमोचन किया जिसमें हिन्दी और उर्दू के करीब अढ़ाई सौ पाठकों एवं लेखकों ने शिरकत की। इस साल हम उर्दू के छह लेखकों की 12 कहानियों का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद करवा कर पुस्तक प्रकाशित करवा रहे हैं। कथा यू.के.इसमें हमारी साझेदार है। यह गतिविधियाँ बड़े स्तर पर भारत और पाकिस्तान में होनी चाहिए अधिक से अधिक पुस्तकों का अनुवाद होना चाहिए। हमें गुटबंदियों से ऊपर उठना होगा और सच्चे मन से यह काम करना होगा। जब ईंटों का जंगल क्वतेजेन्द्र शर्मा के कहानी संग्रह का विमोचन हो रहा था तो बालूजी श्रीवास्तव, जो कि भारतीय संगीत के विशेषज्ञ हैं और जिनकी आँखें नहीं हैं, ने कहा कि ज़किया जी हम जैसे लोग यह कहानियाँ कैसे पढ़ पाएँगे, हम तो कोई भी भाषा नहीं पढ़ सकते। उनके जवाब में हमने उन कहानियों की एक ऑडियो सी.डी.बनवा दी है। अब लिपि की कोई समस्या नहीं है। बस कहानियाँ सुनिए और साहित्य का आनंद उठाइए। दूरियाँ मिटाई जा सकती हैं, समस्याएएँ सुलझाई जा सकती हैं क्वज़रूरत है तो सिर्फ़ सच्चे मन से समस्य से निपटने की। मुझे पूरी उम्मीद है कि राजेन्द्र यादव जी की संस्था अक्षर प्रकाशन एव हंस पत्रिका इसमें बहुत बड़ी सहायता कर सकती है। शुरूआत तो इस बात से की जा सकती है कि हंस के हर अंक में उर्दू के किसी समकालीन कहानीकार की कहानी का अनुवाद छपे। भारत और पाकिस्तान में उर्दू के अच्छे कहानीकार मौजूद हैं। ऐसी उर्दू पत्रिकाएँ ढूँढना बहुत मुश्किल नहीं होगा जो हिन्दी कहानियों का अनुवाद अपने यहाँ छापेंगे।हर पहलू को टटोला मराठी व्यंग्यकारों ने जीवन यात्रा में हर पड़ाव पर उत्पन्न होने वाली अच्छी-बुरी परिस्थितियों को आधार बनाकर जो व्यंग्य लिखे जाते हैं, वे खासे पसंद किए जाते हैं। मराठी साहित्य में व्यंग्य विधा के दो सशक्त हस्ताक्षर श्री पुरुषोत्तम लक्ष्मण देशपांडे और श्री वसंत पुरुषोत्तम काळे ने अपनी कृतियों में परिस्थितियों और व्यक्ति चरित्रों के सम्मिश्रण को हास्य रस से सींचा है। इन लेखकों की कृतियों की शुरुआती पंक्तियाँ गुदगुदा देती हैं और आखिर में सोचने को मजबूर कर देने वाला संदेश भी देती हैं। नागपुर में 80वें अभा मराठी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने आए अकोला के वरिष्ठ कवि श्री नारायण कुलकर्णी कवठेकर बताते हैं कि श्री वपु काळे और श्री पुल देशपांडे ने अपने व्यंग्य लेखन में समाज की विसंगतियों को उठाया है। जिस तरह हिन्दी भाषी व्यंग्यकारों की कृतियों में राजनीतिक उठा-पटक का अक्स दिखाई देता है, उसी तरह मराठी व्यंग्यकारों की कृतियों में आम व्यक्ति के जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव दिखाई देते हैं। वे कहते हैं कि श्री पुल देशपांडे का पालतू पशु-पक्षी पर लिखा गया व्यंग्य याद आने पर हँसी रुकती नहीं है। नागपुर के साहित्यकार श्री प्रफुल्ल शिलेदार बताते हैं कि मराठी लेखकों ने मध्यमवर्गीय परिवारों के जीवन को ध्यान में रखकर व्यंग्य लिखे हैं, इसलिए उन व्यंग्यों को पढ़कर हर पाठक स्वयं को उससे जुड़ा महसूस करता है। पुल देशपांडे की एक पुस्तक 'व्यक्ति आणि वल्ली' के एक किरदार 'नारायण' को याद करते हुए वे कहते हैं कि देशपांडेजी ने उस एक किरदार को इतनी अच्छी तरह पेश किया है कि वह पाठकों के मन पर लंबे समय तक छाया रहता है। मेजिस्टिक प्रकाशन के श्री सचिन गुंजाल और अक्षरधारा प्रकाशन के श्री लक्ष्मण राठी वडेकर बताते हैं कि श्री पुल देशपांडे और श्री वपु काळे, दोनों लेखकों की 50 से भी ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। महाराष्ट्र के बाहर आयोजित होने वाली पुस्तक प्रदर्शनियों में भी इन दो लेखकों की किताबें ज्यादा खरीदी जाती हैं। श्री सुभाष भेंडे, श्री वीआ बुआ और श्री अशोक नामगाँवकर जैसे लेखकों की कृतियाँ भी खासी पसंद की जाती हैं। श्री वपु काळे ने अपनी व्यंग्य-कथा में विवाद उत्पन्न करने में महारत रखने वाले एक व्यक्तिका दिलचस्प उल्लेख किया है। यह व्यक्ति झगड़ने में इतना पारंगत हो जाता है कि विभिन्न मौकों पर किस तरह झगड़ा किया जाए, यह सिखाने के लिए एक कोचिंग संस्थान ही खोल लेता है।श्री पुल देशपांडे ने अपनी एक पुस्तक में उन व्यक्तियों का उल्लेख किया है, जो अपना निर्माणाधीन घर दूसरों को दिखाने के लिए हमेशा उत्सुक रहते हैं। ऐसे व्यक्ति भवन निर्माण में उपयोग में लाए जाने वाले हर सामान की व्याख्या किस तरह करते हैं, इसका उन्होंने मजेदार संग्रहों के माध्यम से उल्लेख किया है।-
विभास साने