'दादा-दादी की कहानियाँ सदियों याद रहे भूला नहीं कोई बचपन में अगर।' उन कहानियों को तो अपने बचपन में टीवी पर भी खूब देखा। विक्रम-बेताल, विक्रमादित्य आदि की कहानियाँ आज भी आपके मस्तिष्क पटल पर चलचित्र की भाँति आ जाती होंगी।
इन्हीं कहानियों के सिलसिले को आगे बढ़ाती है पेंगुइन बुक्स की 'भारत की लोककथाएँ'। जिसकी कहानियाँ पहेली के रूप में आपको दिमाग पर जोर डालने को मजबूर तो करती ही हैं। साथ ही साथ आपका स्वस्थ मनोरंजन भी करती हैं।
कुसुमलता सिंह की 'दुर्भावना का फल' जहाँ पाठकों को विनम्रता का पाठ पढ़ाती है और दूसरों के सद्गुणों को ग्रहण करने की सीख देती है। वहीं वर्तमान में काफी प्रासंगिक है। क्योंकि आज आदमी को मैं और केवल मेरा 'मैं' ही दिखाई देता है। इस कहानी में सुवास अपने सहपाठी नवीन को श्रेष्ठ बताकर सिद्ध कर देता है कि औरों में अच्छाई देखना भी व्यक्ति की सफलता के लिए जरूरी है। शशि जैन की 'एक दिन देख लूँगा' पाठकों का भरपूर मनोरंजन करती है।
सुरेखा पाणंदीकर की 'बुद्धिमान जुलाहा' कहानी सांकेतिक भाषा के रूप में कालिदास और विद्योतमा के बीच इशारे से हुए शास्त्रार्थ की याद दिलाती है और पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देती है आखिर इस कहानी में संकेतों का आशय क्या है।
इन्हीं कहानियों के सिलसिले को आगे बढ़ाती है पेंगुइन बुक्स की 'भारत की लोककथाएँ'। जिसकी कहानियाँ पहेली के रूप में आपको दिमाग पर जोर डालने को मजबूर तो करती ही हैं। साथ ही साथ आपका स्वस्थ मनोरंजन भी करती हैं...
गणेश सेठ की बेटी का हार चंदू सेठ ईमानदारी से बनाकर देता है लेकिन गणेश सेठ चंदू की हार की खूब चौकीदारी कराते हैं तो अंतत: वह भी बता देता है कि मैं भी नहले पर दहला हूँ। अपनी वाली पर आ जाऊँ तो किसी भी तरीके से किसी भी व्यक्ति को ठग सकता हूँ। पुस्तक की भाषा-शैली काफी अच्छी है। स्पष्ट लेखन है। व्याकरण संबंधी अशुद्धियाँ भी बिल्कुल नहीं है। इसके अलावा कहानियों का प्रस्तुतिकरण भी बेहतर है।
पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ मूल्य : 110 रुपए प्रकाशक : पेंगुइन बुक्स इंडिया