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Written By ND

जलती रोशनियों के बीच बुझे हुए रंग

मिले बस इतना ही

जलती रोशनियों के बीच बुझे हुए रंग -
- डॉ. प्रमोद त्रिवेद
ND
पिछली सदी के सातवें दशक की शुरुआत से लगाकर इस सदी के पहले दशक तक जितनी उथल-पुथल हुई, आदमी के सोच और समझ में जितने बदलाव आए, जीवन शैली जितनी बदली, हिन्दी कविता में ये सारे बदलाव लक्षित किए जा सकते हैं। यह बात इसलिए भी ध्यान में आ रही है कि यही-(9 फरवरी 1961 से 28 जनवरी 2007) स्व. कवि संजीव मिश्र की उम्र रही। उनके काव्य संकलन- 'मिले बस इतना ही' (2007) में हिन्दी कविता का निथार देखा जा सकता है

सातवें दशक का आक्रोश, हिंस्र आक्रामकता, इसके बाद क्रांति के स्वप्न, तरफदारियाँ, और इन सबसे होकर आज की हिन्दी कविता पर नवपूँजीवाद और स्पर्धा से भरपूर बाजार के दबावों से हिन्दी कविता का स्वर एक बार फिर बदला है। बाजार की शक्ति के सामने इसकी प्रतिरोधी शक्तियाँ कमजोर नजर आ रही हैं। कविता में हम चाहे कितनी ही खुशफहमियाँ पाल लें, मनुष्य बोदा हीसिद्ध हुआ है। इसी वजह से आज की हिन्दी कविता की तासीर और उसका चेहरा भी बदला हुआ नजर आ रहा है। संजीव मिश्र का यह काव्य संग्रह है।

पेशे से पत्रकार संजीव मिश्र ने दुनिया की हकीकत को अधिक पास से और यथार्थवादी दृष्टि से देखा। वे इस यथार्थ की भयावहता और खोखलेपन से रू-ब-रू हुए। इसी यथार्थ को आत्मसात करके उन्होंने अपनी काव्य-दृष्टि विकसित की। यथार्थ का निषेध यहाँ नहीं है, कवितापन में यथार्थ का समावेश है

अपनी कविता में कोई बड़ा दावा नहीं करते, पर जिस तरह कविता में सचाइयों से पाठक का सामना करवाते हैं उससे कविता को नई दीप्ति मिलती है : 'मेरी धूप/ कहीं बहुत दूर थी/ उजाले में नहाए रंग/ अँधेरे से पगे थे।/ क्या तुमने कभी/ जलती रोशनियों के बीच/ बुझे हुए रंगों को देखा है?' यही सबसे बड़ा सच है, बीती सदी की अवसान बेला और नई सदी के आगाज का

यही हमारे समय का क्रूर सत्य है जो संजीव मिश्र की कविता और उनकी काव्यभाषा की अनाक्रामता में गहरा असर पैदा कर रहा है। इसी कपट माया के पर्दे में यथार्थ दिखता है, कोई इस पर्दे को हटाकर देखे तो। भाषा का बड़बोलापन यहाँ नदारद है, पर भाषा की ताकत मौजूद है।

कविता को शब्द स्फीति से बचा लेने का अनुशासन काफी अभ्यास के बाद आ पाता है। यह धैर्य संजीव मिश्र के पास था और शिल्प को गढ़ने की कला भी उन्होंने विकसित कर ली थी।

छुपाना और कुशलता से उतना ही दिखाना जो 'दिखाने योग्य' ै, कवि-कौशल कहलाता है। कवि चतुराई से अपनी आस्था और विश्वास भी चतुर और चालू भाषा में छुपा लेते हैं, पर यहाँ खूबी यह है कि जो कुछ है भीतर-बाहर सब में खुलापन है।
  'मेरी धूप/ कहीं बहुत दूर थी/ उजाले में नहाए रंग/ अँधेरे से पगे थे।/ क्या तुमने कभी/ जलती रोशनियों के बीच/ बुझे हुए रंगों को देखा है?' यही सबसे बड़ा सच है, बीती सदी की अवसान बेला और नई सदी के आगाज का।      
उस 'छुपाने की कला' से यहाँ'दिखाने' या 'खोलने' की कला कम साहसिक नहीं है। इसीलिए ये कविताएँ अधिक प्रामाणिक हैं। प्रामाणिक हैं, इसलिए असरदार हैं

* पुस्तक : मिले बस इतना ही
* कवि : संजीव मिश्र
* प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मंदिर, नेहरू मार्ग, बीकानेर
* मूल्य : रु. 125/-