चाबुक बरसाता व्यंग्य-संग्रह
मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ
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डॉ. अमिता दीक्षित व्यंग्य एक मुश्किल विधा है। हास्य से इसका संबंध है जरूर, लेकिन फिर भी व्यंग्य एक अलग विधा है। हास्य में सिर्फ हँसाने के ही प्रयास करने होते हैं। वहाँ तर्क, बुद्धि और हकीकत का कोई उपयोग नहीं है।चूँकि व्यंग्य एक गंभीर विधा है, अतः इसका संबंध जीवन के यथार्थ से भी है। जीवन के यथार्थ में कल्पना का पुट मिलाकर जो तैयार किया जाता है वही व्यंग्य है। या यूँ कह लें कि कड़वी हकीकत को मीठी गुदगुदी जैली में लपेटकर जिस विधा में प्रस्तुत किया जाता है वही व्यंग्य है। समीक्ष्य पुस्तक 'मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ' इसी विधा के सक्षम हस्ताक्षर श्री हरि जोशी की है। इक्यावन व्यंग्यों को समेटे यह पुस्तक जंगली फूलों के बाग-सी है। जंगली इसलिए कि इसमें जमीनी यथार्थ के नुकीले काँटे भी हैं। नरम लिसलिसी मीठी जैली की उपस्थिति यदि गुदगुदाती है तो नुकीले काँटे तीखी चुभन देकर जमीनी हकीकत का एहसास भी कराते हैं। विषयों की कोई सीमा नहीं, आसपास बिखरे हैं, अनंत विषय। स्त्री, स्वयं, राजनीति, लोकतंत्र, व्यवस्था, पानी, बारात, रोटी, रिहर्सल, समय, चमचागिरी और भी कई सारे विषय हैं, जिन पर व्यंग्यकार की कलम दौड़ती है। इन सभी विषयों के व्यंग्यात्मक विस्तार में एक चीज 'कॉमन' है, प्रत्युत्पन्न मति , मानवीय करुणा और अभिव्यक्तिगत पैनापन। इस बीच कहीं-कहीं पीड़ा भी छलकती है, जैसे 'अध्यापक होने का अर्थ' में अध्यापक की बेचारगी और शिक्षा के बनते मखौल की मार्मिक अभिव्यक्ति है। प्रधानाध्यापक ने शिक्षा अधिकारी से निवेदन किया कि इस वर्ष हम प्राथमिक शाला की बोर्ड की परीक्षा का और अच्छा परिणाम देना चाहते हैं। अतः मास्टर रामदयाल सरीखे कुछ अच्छे अध्यापकों को जनगणना और पशु गणना आदि कार्यक्रमों से दूर रखें। शिक्षा अधिकारी ने उत्तर दिया- 'परिवार कल्याण का लक्ष्य भी तो सरकार को पूरा करना है।' ...बाबू से बात की तो वह बोला- 'यदि एक वर्ष में जनसंख्या में कमी होने का लक्ष्य हमारे जिले ने पूरा नहीं किया, तो इस जनसंख्या वृद्धि के लिए हम इन शिक्षकों को जिम्मेवार ठहराएँगे।' इस तरह जहाँ कहीं व्यंग्यकार को मौका मिला व्यंग्य का चुटीलापन मुखर हुआ जैसे- 'सरकार वह जो सरक-सरककर चले और जो मिनट-मिनट में गौर करे वह गौरमेंट।' या फिर चुटीलेपन के साथ यथार्थ की मार्मिक अभिव्यक्ति कि- 'भारत का आम आदमी तो कार से भी घबराता है, किंतु आज भी प्रत्येक तथाकथित 'सर' कार से ही उतरते हैं।' व्यंग्य 'पीठासीन अधिकारी' कुल चार पन्नों में भारतीय लोकतंत्र को आवरणविहीन कर देता है। एक वृद्धा वोट डालकर मुझसे झगड़ने लगी- 'लाओ दस रु. देओ, हमने तुमरी पेटी में बोट डार दओ।' मैंने साश्चर्य पूछा- 'माँ, दस रु. किस बात के?' वह बोली- 'हमारे गाँव में सबन को दस-दस रु. बँट रहे हैं। मैंने वहाँ नईं लिए, हमने तो तुमरी पेटी में बोट डारो हे।' इन सबके साथ वे तीन व्यंग्य जिनकी वजह से व्यंग्यकार को प्रताड़ित होना पड़ा और जिसका जिक्र उन्होंने पुस्तक की भूमिका में भी बड़े रोचक ढंग से किया है, किताब के प्रति कौतुक जगाते हैं।
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सार रूप में इक्यावन व्यंग्यों का यह संग्रह चुभता है, गुदगुदाता है तो कभी-कभी चाबुक भी बरसाता है। ये चाबुक व्यंग्यकार ने भी झेले क्योंकि यह असहिष्णु व्यवस्था प्रशंसा चाहती है, आलोचना की कड़वाहट इसे पसंद नहीं है। |
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भूमिका में इन व्यंग्यों का उल्लेख उत्सुकता जगाता है कि किस तरह व्यंग्यों ने विवादों की रचना की और जिसे हम गर्व से लोकतंत्र कहते हैं, उस व्यवस्था में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का किस तरह मजाक बनाया जाता है। '
रिहर्सल जारी है' सत्ता प्राप्ति के लिए किए जाने वाले प्रयासों की 'हास्य-व्यंग्यात्मक' अभिव्यक्ति है। लेकिन फिर वही 'काँटों की चुभन पाई, फूलों का मजा भी' वाली बात चरितार्थ हो गई। अगला कथित विवादास्पद व्यंग्य 'दाँव पर लगी रोटी' 'रिहर्सल जारी है' का दूसरा भाग ही लगता है। इसमें मूषक को माध्यम बनाकर ऐसा करारा व्यंग्य किया गया कि समझने वाला तिलमिलाए बिना नहीं रह सकता और वही हुआ भी। तीसरा तीखा व्यंग्य जिसके लिए व्यंग्यकार को मानहानि का नोटिस मिला वह है 'श्मशान और हाउसिंग बोर्ड का मकान।' इसमें भ्रष्ट व्यवस्था की पराकाष्ठा है। सभी व्यंग्यों में मुखर हुए हैं व्यवस्था की असंवेदनशीलता के सुर भी। उदाहरण 'पीठासीन अधिकारी' व्यंग्य से व्यंग्यकार के शब्दों में- गाँव में मेरे एक मित्र के पिता की तबीयत अचानक खराब हो गई। मेरे मित्र अपने पिता के एकमात्र पुत्र थे अतः उन्होंने सोचा कि कलेक्टर को तार दिखाने से छुट्टी मिल जाएगी। जब वे तार लेकर वहाँ पहुँचे तो कलेक्टर का बहुत संक्षिप्त उत्तर था- 'अभी तो आपके पिताजी हैं। जब वे नहीं रहेंगे तो हम आपको छुट्टी दे देंगे।' वास्तव में यह व्यंग्य कम और लेखक का अपना संस्मरण ज्यादा लगता है। शासकीय तंत्र की असंवेदनशीलता और यांत्रिकता की यह बेशर्म अभिव्यक्ति व्यंग्य नहीं हो सकता। सार रूप में इक्यावन व्यंग्यों का यह संग्रह चुभता है, गुदगुदाता है तो कभी-कभी चाबुक भी बरसाता है। ये चाबुक व्यंग्यकार ने भी झेले क्योंकि यह असहिष्णु व्यवस्था प्रशंसा चाहती है, आलोचना की कड़वाहट इसे पसंद नहीं है।पुस्तक : मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ लेखक : हरि जोशी प्रकाशक : अभिरुचि प्रकाशन, दिल्ली-32 मूल्य : 180 रु.