खुदाई में हिंसा : काव्य-संग्रह
पुस्तक समीक्षा
उमा शंकर चौधरी हमेशा यह जरूरी नहीं है कि सत्ता और तंत्र की लोकविमुख नीतियों के खिलाफ अपनी आवाज, उसकी कटु आलोचना से ही बुलंद की जाए। जरूरी यह भी नहीं है कि भूमंडलीकरण, बाजार और नवसाम्राज्यवाद के बढ़ते खतरे का हमेशा नारेबाजी से ही विरोध किया जाए। जब हम इन अतिरेकों के विरुद्ध हाशिए पर पड़े लोगों के साथ अपना जुड़ाव महसूस करते हैं उनकी भावनाओं, उनके दुख तकलीफ से व्यथित होते हैं, जब यह ज्यादा कारगर विरोध के रूप में उभरता है। और कविता के क्षेत्र में एक प्रतिपक्ष तैयार होता सा दिखता है। महत्वपूर्ण कवि बद्री नारायण ने एकदम शुरुआत से ही अपनी कविताओं में हमारी संस्कृति और उनके भावुक पल संजोए हुए मिलते हैं। अपने नए संग्रह 'खुदाई में हिंसा' में बद्री नारायण ने विकृत होती संस्कृतियों से अधिक अपनी विस्मृत होती संस्कृतियों पर बल दिया है। इस संग्रह में समाज के उपेक्षितों को तो केंद्र में लाया ही गया है, इसके साथ ही अपनी संस्कृति के लिए साहित्य की आवश्यकता पर भी बात की गई है। बदलती अर्थव्यवस्था और उससे बदलते सामाजिक यथार्थ ने कविताओं से जिन चीजों को दूर किया है उन चीजों को केंद्र में लाने का यहाँ स्वप्न देखा गया है। 'कितनी तेजी से कविताओं से चिड़ियाँ गायब होती गई हैं / कितनी तेजी से गायब होते गए हैं/ कविताओं से पे / मैं हतप्रभ हूँ देखकर।' यहाँ कविता हमारी संस्कृति और हमारे जीवन का प्रतिबिंब है। कविता में ही पूछा गया है कि क्या यह सत्तर के दशक में हुआ या अस्सी के दशक में। वास्तव में यह अंतिम दशक के बदले भारत की तस्वीर है। बद्रीनारायण अपनी कविताओं से इस समाज को बदलने का काम लेना चाहते हैं। साहित्य सिर्फ कला नहीं है और न ही उसे इतना कमजोर समझा जाए कि उससे सिर्फ हमारा सौंदर्यबोध दुरुस्त रहेगा। कविता इस समाज को बदलने के लिए एक हथियार में भी बदल जाती है। 'मैं जानता हूँ कि कलापक्ष पर बात करना परम धर्म है साहित्य का /पर मैं भूख के कलापक्ष से अभिभूत होने से बचते हुए/ उसके राजनीतिक पक्ष पर बातें करना चाहता हूँ।' यहाँ कवि एक ठोस जमीन की माँग कर रहे हैं जिससे वे इस भूख की शाश्वत किस्म की समस्या से लड़ सकें। बद्री नारायण ने पिछले दिनों दलित समस्या पर बहुत गंभीर काम किया है। दलितों के बीच जाकर उनकी वास्तविक स्थिति समझने और उसे सामने लाने की कोशिश की है। लेकिन वैचारिक स्तर पर कोई दलित समस्या को समझे और अपने सर्जनात्मक साहित्य में उन मुद्दों को उसी तल्खी के साथ उठा ले, ऐसा कम ही हो पाता है। लेकिन बद्री नारायण के इस संग्रह में दलित समस्या पर कुछ ऐसी कविताएँ हैं जिन्हें किसी गैरदलित साहित्यकार के यहाँ ढूँढना असंभव सा है। इतिहास पर किस तरह सत्ता का रंग चढ़ रहा है उन्होंने किस तरह अपने यहाँ दलितों को जगह देने में धोखा किया है, इस पर दलित साहित्य के भीतर ही 'शहादत' जैसी उम्दा कविता ढूँढना मुश्किल ही है। एक ऐसी जगह के बारे में कविता है जिसके बारे में ढेर सारी किंवदंतियाँ हैं कि यहाँ पानी था, आग थी, सूफी का स्थान था लेकिन वास्तव में यह जगह 'लोग जानने वाले जानते हैं / कि सन सत्तावन में यहीं मरे थे / शहीद घिरई चमार / जो चमार थे / इसलिए कोई उन्हें शहीद नहीं कहता।' बद्री नारायण ने अपनी कविताओं में प्रतिमानों को बदलने की कोशिश की है। इतिहास में दलितों की जगह की तलाश के साथ-साथ उन्होंने मोनालिसा की मुस्कान के बरक्स पासी बस्ती की सलोनी औरत की मुस्कान को महत्व देना चाहा है। उनके यहाँ मदन गोपाल सर्वहारा जैसी कविता भी है जहाँ वे सर्वहारा की समस्या का हल पूछना चाहते हैं। बद्री नारायण अपने इस संग्रह में शासन तंत्रों के विरुद्ध उत्तेजित होने से अलग हटकर उपेक्षितों के साथ खड़े होकर एक प्रतिपक्ष तैयार करते दिखते हैं और जो हमारे अंदर निःसंदेह एक जबर्दस्त बेचैनी पैदा करता है।पुस्तक : खुदाई में हिंसा कवि : बद्रीनारायण प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन मूल्य : 200 रुपए