धूप का छोर : जैसे सुहानी भोर, जैसे बीता हुआ वह दौर
मुक्तक-काव्य में दोहा एक ऐसी सुपरिचित विधा है जिसे जनमानस पढ़ते ही आत्मसात कर लेता है। दो पंक्तियाँ जहां मन में सुगमता से बैठ जाती हैं वहीं सरलतापूर्वक रूचि में समाविष्ट हो, दो क्षण को ही सही, रोमांचित कर देती है। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि हिन्दी साहित्य में दोहों का एक युग गुज़रा है पर गुज़रते युगों की भांति दोहे भी लगभग बिसार दिए गए हैं। आधुनिक मन और स्मृति में इन्हें पुनर्जीवित किया तो “धूप का छोर” ने।
रचनाकार एवं कवि सीमा पांडे मिश्रा “सुशी” द्वारा रचित पुस्तक “धूप का छोर” लगभग 500 दोहों का ऐसा सुंदर संसार है जिसका भाव-वैविध्य शब्द के उद्दाम सागर के आवेगमयी प्रवाह को बांध लेने वाली कुशल लेखिका के एक एक कौशल का सौ सौ रंगों में प्रदर्शन करता है।
“धूप का छोर” दोहा संग्रह न होकर रचनाकार सीमा सुशी के अनुभवों का कोष है। इसमें बचपन के उल्लास, किशोरावस्था की अनुभूतियां, युवावस्था की उलझने और सुंदर मानव के सहज दर्शन के साथ संवेदनाओं के झरोखे से आने वाली सांत्वना की वे किरणें हैं जिनका स्पर्श जीने का संबल प्रदान करता सा लगता है। ये दोहे रमिया मुनिया और प्रकाश के झूलों की पींगों संग अपने रूप और एहसास में खिलते हैं:
रमिया मुनिया झूलती, डाली चढ़े प्रकाश
अपने अपने ढंग हैं छूने के आकाश
युवा होने पर इनमें महिला होने का आक्रोश फूटता है:
प्रगति हो या नाकामी, जुमला लगा खराब
एक महिला हैं आप बस, कहते रहे जनाब
जीवन की विवशता के विविध रूप झलकते हैं:
नहीं किसी को बख्शती, निठुर वक़्त की धूप
झुर्री झुर्री कर दिया, नरमों नाज़ुक रूप
और अंतत: भंवरे खोजते कलयुगीन फूलों की उलटबांसी इन्हें कबीर के दोहों के समकक्ष लाकर खड़ा कर देती है:
कैसा उल्टा चल रहा, आभासी संसार
अब भंवरों की खोज में, फूलों का बाज़ार
स्त्री का भौतिक संसार जितना विशद होता है, अनुभव संसार उतना ही वृहद और रचना संसार उतना ही विशाल होने लगता है, अंग्रेज़ी लेखिका जेन-ऑस्टीन के “टू ईंचेज़ ऑफ आईवरी” के ठीक विपरीत भारतीय लेखिका सीमा का रचना संसार “सोने की खान” है इसमें आंग्ल संस्कृति से इतर हर संबंध को सहेजा गया है क्योंकि लेखिका एक समय में मां, बेटी, बहू,बहिन, पड़ोसन, पत्नी, प्रशासनिक अधिकारी और एक जिम्मेदार, जागरूक, सामाजिक नागरिक भी है। वे अपने हर किरदार को अपने दोहों की मदद से जीतीं हैं, और हर नाते से जुड़े सुख, दुख, पीड़ा और प्रेम का सीधी सरल भाषा में चित्रण करती हैं। अंतत: संबंधों में स्वार्थ और सत-चित-आनंद का अभाव उन्हें खलता है तो इस आधुनिक युगीन मीरा के स्वरों में स्वत: स्फूर्त अभिव्यक्ति सा एक विवश दोहा फूट पड़ता है:
प्यास कहां है दरस की, नहीं मुक्ति दरकार
देवालय के द्वार पर मांगों की भरमार
इन सबके बीच वे अपने अंदर की स्त्री के साथ सदैव न्याय करती प्रतीत होती हैं। कभी असाकार सपनों की पीड़ा को उकेरते माँ के अधूरे सपनों को श्रद्धांजलि देते हुए तो कभी तारीफ़ों के झुनझुनों और खुशफहमी की चादर से बहलाई, ढांकी औरत के शिकवों के रूप में। मान सम्मान के झूटे शब्दों से छले-छीले हुए स्त्री व्यक्तित्व की ओर से वे समाज को कटाक्ष भी करती हैं :
सतीी , सुहागन, पतिव्रता, दो-दो कुल का मान
जितने थोथे शब्द हैं, उतने थोथे गान
अथवा
जो जीवन की नाव है, जो पहुंचाए कूल
उसको अबला कह रहे जो तैरे प्रतिकूल
किन्तु उनके स्त्रीवादी होने में भी अतिरेक नही एक नपातुलापन है। वे व्यक्तिगत विद्वेष और शिकायत भूल अभिव्यक्ति की पूरी ईमानदारी और निर्भीकता से अपनी बात रखती हैं:
स्त्री भी चाहे वही, जो चाहे इंसान
हाँ का भी सम्मान हो, ना का भी सम्मान
अपनी संवेदनाओं का विस्तार करने हेतु सीमा “ सुशी” जी ने प्रकृति का खूब सहारा लिया है। वृक्ष, नदी, पहाड़, समुद्र, चिड़िया और आकाश इन दोहों में निरंतर नए- नए आशय लेकर उपस्थित हुए हैं। कभी वे इनके भावजगत के उद्दीपन बने हैं तो कभी आलंबन। पनघट, नदिया, बावड़ी, की कच्ची डगर से पीपल वाले गांव तक, जब जब यादों की धूप खिलती है, ये दोहे प्रकृति का हाथ थाम पाठकों को उस ठांव में पहुंचा देते हैं जहां कभी मां का प्यार, मीठे फलों के बीज लगाता कुदरत का क़र्ज़ उतारा करता था और जिसमें मौसमों के हिसाब से आचार, तिल-गुड की बरफी और आमों का स्वाद मिला करता था, और जहाँ बूढ़े बरगद से आशीषों के सौ सौ उपहार मिला करते थे। सीमा जी के रचना संसार के इस ठांव को प्रकृति ही उद्दीप्त करती है और शेष यादों के दुख को भी वही संतप्त करती है :
बगिया राह निहारती, आंगन दुख संतप्त
घर दिल में यादें लिए, जीने को अभिशप्त।
बसंत का सौन्दर्य हो या ग्रीष्म का ताप, वर्षा की रिमझिम हो या इंद्रधनुष के रंग, अलंकारों के साथ दृश्यविधान इन दोहों के रचना सौन्दर्य का अनूठा पहलू है किन्तु यह प्राकृतिक सौन्दर्य सुशी को कवि की नैतिक ज़िम्मेदारी से ज़रा भी नही भटकाता, इस सौन्दर्य के माध्यम से ये दोहे जीवन की शाश्वत गतिशीलता और गहन दार्शनिकता को व्यक्त करते से लगते हैं:
जाते जाते कह गया, पतझर प्रेरक बात
तभी शाख में खिल सके, हरे हरे से पात
ये दोहे, मीरा सी सादगी, और कबीर सा गहन चिंतन समेटे हैं, इनमें समय का दुख पढ़ लेने का साहस है; ये जीडीपी की स्थिति पर भी चिंतित हैं और समय से आगे देखने का भी साहस रखते हैं। धूरी पर घूमती पृथ्वी के कार्यकलापों सी इनकी विषय वस्तु वृहद और शब्दावली अनमोल है; अंतत: धूप के छोर पर सपने में पारियां नहीं रोटियां देखते ये दोहे संजोने और दुहराने योग्य अमर साहित्यिक पूंजी है जिनको स्वयं सीमा “सुशी” के शब्दों में ही सराहा जा सकता है:
कम शब्दों में बोलते, कहते पूरी बात
भावों की अभिव्यंजना, दोहे हैं सौगात
पुस्तक : धूप का छोर (दोहा संग्रह)
कीमत : 200 रुपए
प्रकाशक : शिवना प्रकाशन, सीहोर
पृष्ठ संख्या : 112
समीक्षक : डॉ. सहबा जाफरी