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Last Updated : मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023 (17:29 IST)

रुदादे-सफ़र: धूसर रंग की छटपटाहट भरा एक जरूरी उपन्यास

Rudade-Safar
समीक्षक : पारुल सिंह
‘लेखक का एक झूठ आने वाली पीढ़ियों को किस प्रकार दुःख देता है इस के प्रमाण में दुनिया के सारे धर्मग्रंथ भरे पड़े हैं।’
पंकज सुबीर के उपन्यास ‘रुदादे सफ़र’ की इस उक्ति की व्याख्या के लिए कितनी किताबें संभवतः भरी जा सकती हैं यह अनुमान तक लगाना कठिन है। अपने इस नए उपन्यास में पंकज सुबीर ने अपने पुराने उपन्यासों के सुचिंतित सामाजिक विषयों से इतर भावनात्मक स्तर पर मानव चेतना की गहराइयों को छूने का प्रयास किया है। जिसमें वे अभूतपूर्व रूप से सफल रहे हैं।

पंकज सुबीर हमेशा की तरह अपने लेखन के विषय की दर्शन व मनोविज्ञान की गहराईयों के मापदंड द्वारा पड़ताल करते नज़र आते हैं। उपन्यास के विषय से सम्बंधित छोटे से छोटी गहन जानकारी देना प्रमाण देता है कि पंकज सुबीर अपने विषय के लिए शोध किस सजगता से करते हैं।

पाठकों की जिज्ञासा को इस उपन्यास के पढ़ना शुरू करने तक शांत ना करने के लिए मैं विषय तो यहां नहीं बता रही पर इस उपन्यास ने रुलाया बहुत है। ‘अब क्या होगा’ की उत्सुकता तो इक बात है पर उपन्यास ये भी बताता है कि सफ़ल सुलझे व समझदार लोग हर फ़ैसला सही ही करते हों, यह आवश्यक नहीं।

क्यूंकि पंकज सुबीर के लेखन में भावों के रंग होते हैं तो वो लिखते हैं ‘एकाकीपन उदास और भूरे रंग का होता है।’ उनके शब्दों में ही कहें तो ये धूसर रंग का इक उदास उपन्यास है। जो जाते अस्सी के दशक की धूल भरी गलियों से वर्तमान के गलियारे तक की कहानी कहता है। जिसमें चेतक स्कूटर, टेप रिकॉर्डर वाला अस्सी का दशक भी है, जो आपको तीस या पैंतीस साल बाद आने वाली तकनीक व मानव मूल्यों के बदलाव की भविष्यवाणियां देता नज़र आता है। जो पाठक के लिए वर्तमान से तुलना कर आत्म विश्लेषण की ज़मीन तैयार करता है।

उपन्यास में भोपाल शहर का जो अद्भुत वर्णन किया गया है, वो किसी शहर के रेखाचित्र में भी मिलना मुश्किल है। स्वयं पंकज सुबीर के यात्रा संस्मरण ‘यायावर हैं, आवारा हैं, बंजारे हैं’ में भी किसी शहर का ऐसा शानदार वर्णन नहीं है।

इस उपन्यास में उन्होंने भोपाल शहर की हर गली कूचे की नब्ज़ पकड़ी है। मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं होगा यदि मध्य प्रदेश सरकार का पर्यटन विभाग इस उपन्यास को भोपाल नगर के उत्कृष्ट वर्णन के लिए सम्मानित व अनुमोदित करे।

जैसे यश चोपड़ा की फ़िल्मों में स्विट्ज़रलैंड के दृश्य महत्वपूर्ण व आवश्यक अवयव होते हैं, ऐसे ही पंकज सुबीर की कहानियों की नायिकाओं के पास फूलों की लतरों से घिरा टेरेस या बाल्कनी होती है, जहां हवा के साथ-साथ मधुर संगीत गूंजता है। यह उपन्यास जो कह रहा है, उसके बहुत सारे मायने हैं। इक ही घटना या बात ज़िंदगी व मानव मन के विभिन्न आयमों को समेटे हुए हैं। मैं एक शब्द में कहूं तो ये आपको छटपटाहट देता है, बहुत बहुत छटपटाहट। पिता और पुत्री पर मैंने आज तक ऐसा कहीं नहीं पढ़ा।

उपन्यास आपको हतप्रभ कर देता है। एक जगह पंकज सुबीर कहते हैं। ‘स्त्रियां आदिकाल से प्रवासिनी हैं और शायद अनंत काल तक इनको प्रवासिनी ही रहना है।’ और फिर वो लिखते हैं ‘पुरुष ने सभ्यता बनायी है, पुरुष ने ही समाज बनाया है, इसलिए प्रवास और विस्थापन उसने स्त्री के पक्ष में रख दिया।’

अपने प्रियजनों के पास रहकर भी हम उम्र भर वो बात नहीं कह पाते जो हमें रोज़ कहनी चाहिए। ऐसे ही एक पल में लेखक लिखता है ‘बहुत पास बैठा हुआ कोई अपना जब उठ कर जाने वाला होता है, तब सबसे ज़्यादा छटपटाहट इस बात की होती है कि हमारे पास उसे रोकने का कोई तरीक़ा शेष नहीं रहा।’

प्रेम और दोस्ती पर पंकज सुबीर जब जब भी लिखते हैं तो पाठक को एक तर्क संगत व यथार्थवादी नज़रिया देते हैं। वो लिखते है “प्रेम अक्सर दोस्ती की धुंध में ही छुपकर आता है। मिलता है। अगर आपने दोस्ती की धुंध में भटकना छोड़ दिया हो, तो प्रेम कहां मिलेगा आपको।” “जिन दोस्तियों में शिष्टाचार घुला होता है, उन दोस्तियों को व्यवहारिकता कहना ज़्यादा बेहतर होता है।”

पूरे उपन्यास में हालात बुरे नही हैं पर उदासी कम नहीं होती। भावनायें आपको बहा ले जाती हैं। लगभग पैंतीस गानों और ग़ज़लों को परिस्थिति अनुरूप बहुत अच्छे से कोट किया गया है जगह-जगह, जो आपको एक अच्छी प्ले लिस्ट उपलब्ध करा देगा। एक पिता और एक पुत्री को तो ये उपन्यास अवश्य ही पढ़ना चाहिए।
‘रुदादे-सफ़र’ धूसर रंग की छटपटाहट भरा एक आवश्यक उपन्यास।

उपन्यास : रूदादे-सफ़र
लेखक : पंकज सुबीर
प्रकाशक : शिवना प्रकाशन
मूल्य : 300 रुपए


समीक्षक पारुल सिंह के बारे में : पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, समीक्षाएं, कहानियां प्रकाशित। एक कविता संग्रह 'चाहने की आदत है' प्रकाशित हो चुका है। संपर्क : W-903, आम्रपाली ज़ोडिएक, सेक्टर 120, नोएडा 201301, उप्र, मोबाइल 9871761845 [email protected]
edited by navin rangiyal
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