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Last Updated : रविवार, 7 फ़रवरी 2021 (14:11 IST)

स्त्रीत्व का वामन अवतार- 'वह हंसती बहुत है'

स्त्रीत्व का वामन अवतार- 'वह हंसती बहुत है' - book review
संजय भारद्वाज,

कविता और संवेदना का चोली-दामन का साथ है। अनुभूति कविता का प्राणतत्व है। जैसा अनुभव करेंगे, वैसा जियेंगे। जैसा जियेंगे वैसी ढलेगी, बहेगी कविता। यह अखंड जीना किसी को कवि या कवयित्री बना देता है। कवयित्री स्वरांगी साने इस जीने को स्त्री जीवन के अमर पक्ष अर्थात पीहर तक ले जाती हैं। यहीं से उनकी कविता में अमरबेल पनपने लगती है।

कविता में जाना मेरे लिए पीहर जाने जैसा है..

'वह हंसती बहुत है' संग्रह की कविताएं स्त्री जीवन के विविध आयामों को अभिव्यक्त करती हैं। प्रेम, जीवन का डीएनए है‌। यही प्रेम प्राय: दोराहे पर ला खड़ा करता है। एक राह मिलन के बाद की टूटन और दूसरी ना मिल पाने की कसक अथवा बिछुड़न। दूसरी राह शाश्वत है। यह शाश्वत की कविताएं हैं। ये शाश्वत कविताएं हैं। इस शाश्वत की बानगी 'मेडिकल टर्म्स' में देखिए- धुंधला दिख रहा है/ सब कह रहे हैं मोतियाबिंद हो गया है/ पर वह जानती है/ ठहर गए हैं सालों साल के आंसू /आंखों में आकर..

आह और वाह को एक साथ जन्म देती शाश्वत की यह अभिव्यक्ति जितनी कोमल है, उतनी ही प्रखर भी। यह शाश्वत 'धोखा', 'ऐसे करना प्रेम',  'मीरा के लिए', 'ललक', 'पार हो जाती', 'तुमने कहा था', 'चाहत', 'रसोई', 'यात्रा', 'जो बना रहा'  जैसी अन्यान्य कविताओं के माध्यम से इस संग्रह में यत्र, तत्र, सर्वत्र दिखाई देता है। शाश्वत प्रेम की एक हृदयस्पर्शी बानगी 'फेसबुक' कविता से,

फेसबुक पर तुम्हारे नाम के पास ले जाती हूं कर्सर लगता है तुम्हें छू कर लौटी हूं...

बिछुड़न का कारण और निवारण, गहरे से निकलता है, पाठक को गहरे तक भिगो देता है, उसकी संजीवनी बूटी हो तुम/जो नहीं हो उसके पास...

प्रेम कोमल अनुभूति है पर प्रेम चीर देता है। प्रेम टीस देता है, व्याकुलता और विकलता देता है लेकिन यही प्रेम संबल और बल भी देता है। खंडित होकर अखंड होने का संकल्प और ऊर्जा भी देता है। कवयित्री प्रेम की मखमली अभिव्यक्ति से आगे बढ़ती हैं और सांसारिक यथार्थ को निरखती, परखती और उससे लोहा लेती हैं,

मैंने बंद कर दिया है तुमसे अपना वार्तालाप/ अब शुरू हुआ है मेरा खुद से संवाद..

समय के थपेड़े व्यक्ति पर पाषाण कठोरता का आवरण चढ़ा देते हैं,
बाहर से वह कठोर दिखती है/इतनी कि लोग उसे अहिल्या कहते हैं..
पत्थर के भीतर भी स्त्री बची रहती है पर स्त्री की देह उसे डरने के लिए विवश भी करती है,

कछुआ नहीं लड़की है वह/ और तभी वह समझ गई यह भी कि/  सुरक्षित नहीं है वह/ फिर सिमट गई अपनी खोल में..

खोल या आवरण को तोड़कर बाहर लाती है शिक्षा। शिक्षा अर्थात पढ़ना। पढ़ना अर्थात केवल साक्षर होना नहीं। पढ़ना अर्थात देखना, पढ़ना अर्थात गुनना, पढ़ना अर्थात समझना। पढ़ना अर्थात विचार करना, पढ़ना अर्थात विचार को अभिव्यक्त करना। समाज स्त्रीत्व की खोल से बाहर आती स्त्री को देखकर, उसके चिंतन को समझ कर चिंतित होने लगता है,

खतरा तो तब मंडराता है/पढ़ने लगती है/ औरत कोई किताब..
औरत पढ़ने लगती है किताब। औरत लिखने लगती है किताब। स्त्री जीवन का अनंत विस्तार सिमटकर उसकी कलम की स्याही में उतर आता है,

किसी तरह चुरा लेनी है/ मेहंदी की गंध और उसका रंग भी/ तो बेटियां निकल सकती हैं/ इस तिलिस्म से बाहर/ सच अभी इतनी भी देर नहीं हुई..

.........

इतिहास कहता है/ वह वैशाली की नगरवधू थी/ इतिहास में नहीं कहा कि/ वह एक स्त्री थी..
'सौरमंडल', 'हंसी', 'नर्तकी' और ऐसी अनेक कविताओं में स्त्री के ब्रह्मांड का मंथन है। 'प्याज़' नामक कविता इसका क्लासिक उदाहरण है।

बहुत सारा प्याज़/ काटने बैठ जाती थी मां/ कहती थी मसाला भूनना है/ तब समझ नहीं पाती थी/ इतना अच्छा क्या है प्याज़ काटने में/ आज पूछती है बेटी/ क्या हुआ?/ और वह कह देती है/ कुछ नहीं/ प्याज़ काट रही हूं

अपनी जिंदगी अपनी तरह से नहीं जी पाने की निराशा अपनी तरह से मरने की आज़ादी का शंख फूंकती है।
उसे मरने का कॉपीराइट चाहिए..

'वह हंसती बहुत है' संग्रह की कविताएं स्त्रीत्व का वामन अवतार हैं। इस संग्रह की कविताएं स्त्री जीवन की विराटता को अल्प शब्दों में जीने का सामर्थ्य रखती हैं, यथा-

एक कदम में लांघा मां का घर/ दूसरे में पहुंच गई ससुराल/ विराट होने की ज़रूरत ही नहीं रही/और उसने नाप ली दुनिया..

इस संग्रह की रचनाएं स्त्री जीवन की विसंगत स्थितियों का वर्णन अवश्य करती हैं पर अपना स्त्रीत्व नहीं छोड़तीं। यह स्त्रीत्व है जिजीविषा का, सपने देखने का, सपना टूटने पर फिर सपना देखने का। अमरबेल विस्तार पाती है,  और शब्द फूटते हैं,

खुली आंखों से सपना देखती/ सपने को टूटता देखती/ खुद को अकेला देखती/ फिर भी वह सपना देखती..
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