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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
Last Updated : बुधवार, 9 जुलाई 2014 (08:53 IST)

'अपरिग्रह' से सुहाना बनता संसार

योग
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योग के प्रथम अंग ‍यम के पांचवे उपांग अपरिग्रह का जीवन में अत्यधिक महत्व है। जैन धर्म में इसे बहुत महत्व दिया गया है। संसार को सहजता और प्रसन्नता से भोगने के लिए अपरिग्रह की भावना होना जरूरी है। इसे सामान्य भाषा में लोग त्याग की भावना समझते हैं, लेकिन यह त्याग से अलग है।

अपरिग्रह को साधने से व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आ जाता है साथ ही वह शारीरिक और मानसिक रोग से स्वत: ही छूट जाता है। अपरिग्रह की भावना रखने वालों को किसी भी प्रकार का संताप नहीं सताता और उसे संसार एक सफर की तरह सुहाना लगता है। सफर में बहुत से खयाल, फूल-कांटे और दृश्य आते-जाते रहते हैं, लेकिन उनके प्रति आसक्ति रखने वाले दुखी हो जाते हैं और यह दुख आगे के सफर के सुहाने नजारों को नजरअंदाज करता जाता है।

अपरिग्रह का अर्थ है किसी भी विचार, व्यक्ति या वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं रखना या मोह नहीं रखना ही अपरिग्रह है। जो व्यक्ति निरपेक्ष भाव से जीता है वह शरीर, मन और मस्तिष्क के आधे से ज्यादा संकट को दूर भगा देता है। जब व्यक्ति किसी से मोह रखता है तो मोह रखने की आदत के चलते यह मोह चिंता में बदल जाता है और चिंता से सभी तरह की समस्याओं का जन्म होने लगता है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि 70 प्रतिशत से अधिक रोग व्यक्ति की खराब मानसिकता के कारण होते हैं। योग मानता है कि रोगों की उत्पत्ति की शुरुआत मन और मस्तिष्क में ही होती है। यही जानकर योग सर्वप्रथम यम और नियम द्वारा व्यक्ति के मन और मस्तिष्क को ही ठीक करने की सलाह देता है।

योग और आयुर्वेद में भाव और भावना का बहुत महत्व है। यदि अच्छे भाव दशा से जहर भी पीया तो अमृत बन जाएगा।

अपरिग्रह : इसे अनासक्ति भी कहते हैं अर्थात किसी भी विचार, वस्तु और व्यक्ति के प्रति मोह न रखना ही अपरिग्रह है। कुछ लोगों में संग्रह करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे मन में भी व्यर्थ की बातें या चीजें संग्रहित होने लगती हैं। इससे मन में संकुचन पैदा होता है। इससे कृपणता या कंजूसी का जन्म होता है। आसक्ति से ही आदतों का जन्म भी होता है। मन, वचन और कर्म से इस प्रवृत्ति को त्यागना ही अपरिग्रही होना है।

इसका लाभ : यदि आपमें अपरिग्रह का भाव है तो यह मृत्युकाल में शरीर के कष्टों से बचा लेता है। किसी भी विचार और वस्तु का संग्रह करने की प्रवृत्ति छोड़ने से व्यक्ति के शरीर से संकुचन हट जाता है जिसके कारण शरीर शांति को महसूस करता है। इससे मन खुला और शांत बनता है। छोड़ने और त्यागने की प्रवृत्ति के चलते मृत्युकाल में शरीर के किसी भी प्रकार के कष्ट नहीं होते। कितनी ही महान वस्तु हो या कितना ही महान विचार हो, लेकिन आपकी आत्मा से महान कुछ भी नहीं।

- संदर्भ योग सूत्र