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गुरु पूर्णिमा पर पुण्य स्मरण : त्याग और तप की प्रतिमूर्ति डबका वाले बाबा

गुरु पूर्णिमा पर पुण्य स्मरण : त्याग और तप की प्रतिमूर्ति डबका वाले बाबा - Guru Poornima Dabka wale baba
प्रशांत निगम
सकारात्मक नजरिया, और अपने से बड़ों के आदर से प्राप्त होने वाला आशीर्वाद ही स्वयं में आत्मविश्वास का संचार करता है और इसी की बदौलत जीवन में विफलता को सफलता में बदला जा सकता है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उत्तरोत्तर प्रयासरत रहकर ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। इन्हीं आदर्श वाक्यों को दिया था डबका वाले बाबा ने जिसे आत्मसात कर उनके अनेक शिष्य जीवन में प्रगति के पथ पर अग्रसर हो चले।
 
डबका वाले बाबा ने बताया था कि अर्जुन का लक्ष्य निश्चित था उसकी तैयारी पूरी थी और इसलिए पेड़ की दूरी, उसकी हिलती डुलती डालियां, आंखों में चमकता सूरज कोई भी अर्जुन के लिए बाधा नहीं बन पाया। क्योंकि मंजिल के प्रति दृढ विश्वास, कार्य के प्रति लगन ही सफलता की कुंजी है। 
 
डबका वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध प्रचार, प्रसार, आडंबर से कोसों दूर अत्यंत सहज एवं राम भक्ति में लीन रहने वाले श्री सिद्धबाबा मोहनदासजी महाराज का जन्म मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले के डबका ग्राम में हुआ था। कुछ समय सिंधिया महाराज की फौज में रहने के बाद आप पुनः अपने ग्राम डबका आ गए। एक दिन गौचारण करते समय एक साधु महाराज की शिक्षा ने आपके जीवन की दिशा को ऐसा मोड़ दिया जो उनके जीवन की सफलता का सूचक बन गया। आपने गृहस्थाश्रम छोड़ वानप्रस्थ धारण करते हुए नरसिंहगढ़ और रतलाम के जंगलों में तपोमय जीवन व्यतीत करते हुए त्याग, संयम और परिश्रम की कठितम तपस्या के बल पर आध्यात्मिक ज्ञान और सिद्धी प्राप्त की। 
 
मुरार से बेहट हस्तिनापुर मार्ग पर स्थित ग्राम डबका में उन्होंने सत्तर के दशक में सिद्ध आश्रम की स्थापना की। जहां एक छोटी झोपड़ी बनाकर भूमिगत होकर राम नाम का अखंड तप किया तथा एक छोटे से रामजानकी मंदिर की आधारशिला रखी। वर्तमान में यह रामजानकी मंदिर एक विशाल स्वरूप ले चुका है। बाबा का विशाल शिष्य समुदाय और भक्त समाज है। ग्वालियर में ही नहीं भोपाल, इन्दौर, उज्जैन, धार, बदनावर, रतलाम, कनेरी, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, वाराणसी, लखनऊ, पूना, मुम्बई, हैदराबाद और दक्षिण भारत में अनेकों शिष्य है।
 
बाबा कहा करते थे कि धैर्य की रोशनी मनुष्य को अनेक परेशानियों के अंधेरे से मुक्त कर देती है। सब्र और धीरज को अंगीकार कर किया गया कोई प्रयास बेकार नहीं जाता है।
 
बाबा इतने निर्मल हदय, पारदर्शी स्वभाव के धनी थे कि शिष्यों पर आए संकट का उन्हें तुरंत आभास हो जाता था और सद्गुरु के नाते आप उनके संकटों को दूर कर देते थे। इस बात का पता तब चलता था जब मुसीबत में फंसे शिष्यों के फोन आते थे कि बाबा आपकी कृपा से सबकुछ ठीक हो गया। बाबा यह कहते थे ‘‘हम तो अंगुठा छाप है कुछ न जानतई’’। लेकिन ज्ञान का प्रकाश और भक्ति में विनम्रता आपके व्यक्तित्व में स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी। बाबा मुसीबत में फंसे शिष्यों का मार्गदर्शन करते हुए सदैव कहते रहते थे कि जिंदगी में मुसीबत का सामना करना सीखों। अपनी परेशानियों से कतराना कायरता है। परेशानी जिंदगी का एक अभिन्न अंग से उसे सहर्ष स्वीकार करों। जीवन एक संघर्ष है और कठिनाइयां इसका जरूरी अंग। बाबा के अनुसार मुसीबत चाहे कैसी भी हो, समस्या चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो उससे पार पाने की क्षमता भी स्वयं मनुष्य में निहित होती है। उसी शक्ति की बदौलत हम उस समस्या का सामना करने में कामयाब हो जाते हैं।
 
बाबा का दैदिप्यमान आभा मंडल इस बात का साक्षात् प्रमाण था कि अपने शिष्यों की दिशा और दशा बदलना उनके बाएं हाथ का खेल था। आपके पास आने वाले राजनेता, न्यायाधीश, उच्चाधिकारी, व्यापारी, अनेक राजघराने के सदस्य, सामान्य ग्रामीणजन आपकी कृपादृष्टि पाकर अपने आपको धन्य और कृतार्थ अनुभव करते थे। लोग रोते हुए सिद्धाश्रम आते और खुशी-खुशी वापस जाते। अगर भक्त किसी कार्य को करने में उनका मार्गदर्शन चाहते परंतु किसी कारणवर्श सिद्धाश्रम नहीं पहुंच पाते तो बाबा का ध्यान कर लेते थे। अनेक शिष्यों ने बताया कि बाबा सपने में सही मार्गदर्शन दे देते थे।
 
बाबा स्वयं किसी को अपने चरण छुने नहीं देते थे लेकिन साधु संतों के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते थे। बाबा का कहना था कि साधु संतों के पैर छुना इसलिए आवश्यक है कि उनके पैरों की कटी बिवाईयां देखकर तुम यह जान सकों कि जिंदगी उनकी कितनी कठिन संघर्षों से भरी रही है। बदले में तुम्हें वे सौंप देते हैं अनुभवों, आदर्शों व आशीर्वाद की कभी न खत्म होने वाली ऊर्जा।
 
आपके द्वारा स्थापित सिद्धाश्रम का संचालन श्री रामजानकी मंदिर डबका आश्रम ट्रस्ट द्वारा किया जाता है। पवित्र तपोभूमि में गौशाला, कृषि खाद्यान्न हेतु उपजाऊ भूमि, स्वच्छ पेयजल व्यवस्था, अतिथि शिष्यों एवं भक्तों के लिए सुव्यवस्थित कमरे बनवाये गये है। आश्रम की कृशि भूमि से जो भी उपज प्राप्त होती है वह आश्रम के साधु संतों की सेवा में काम आती है। जनता जनार्दन द्वारा दिया जाने वाला दान आश्रम की गतिविधियों को संचालित करने में काम आता है।
 
आश्रम की सुंदर उपयोगी विशाल गौशाला में सैकडों गायें निवास करती हैं। बाबा को इन गायों से अगाध प्रेम था शायद यही वजह है कि गौशाला में प्रवेश के बाद से ही यहां बाबा की उपस्थिति का एहसास होने लगता है। बाबा आश्रम में स्थित अपने कक्ष में ढेर सारा गुड़ मंगवा कर रखते थे। ठंड के मौसम में पूरी गौशाला में घुम-घुम कर गायों को गुड़ खिलाते रहते थे जिससे उन्हें शीत लहर के प्रकोप से बचाया जा सके। 
 
बाबा की अंतिम इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार भी गौशाला में ही किया गया था। उसी स्थल पर आज बाबा की विशाल समाधि बनी हुई है जिस पर अनेकों शिष्य अपनी मनोकामना पूर्ण की अभिलाषा करते हैं। आश्रम के मुक पशु बाबा से कितना प्रेम रखते थे इस बात का साक्षात् नजारा उनके हजारों शिष्यों ने प्रत्यक्ष रूप से देखा था जब बाबा का अंतिम संस्कार हो रहा था तब गौशाला में मौजूद सैकड़ों गायों की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी। ये मुक पशु मानों यह कह रहे थे कि बाबा जैसे एक नरम, मुलायम, स्नेही महापुरुष के प्रत्यक्ष दर्शन अब शायद न हो पाए परंतु उनसे मिलने वाला असीम प्यार और दुलार उन्हें इस आश्रम में सदैव मिलते रहने से उनका जीवन धन्य हो गया। 
 
मालवा से लगाव  
बाबा को मालवा से बड़ा लगाव था क्योंकि मालवा उनकी तपोभूमि रह चुका है। उन्होंने मालवा में सावन की अमावस्या, जन्माष्टमी, रक्षाबंधन, सिंहस्थ आदि अवसरों पर पांच बार भण्डारे करवाए। बाबा कहा करते थे कि मालवा के लोग बडे सीधे-साधे है और उन्हें काफी पसंद है। उनकी इच्छा मालवा क्षेत्र में भी एक आश्रम की स्थापना करने की थी। अपने अंतिम मालवा प्रवास के समय उन्होंने यहां कई जगह भी देखी थी।
 
आश्रम के बुजुर्ग संत श्री रघुवीर बाबा जो काठियावाड, भावनगर (गुजरात) से आये थे ने अपने देहांत के कुछ समय पहले मुझे बताया था कि वे काफी छोटे थे तभी से बाबा के साथ हैं। लगभग 40 वर्षों से अधिक समय से वे बाबा के साथ थे। उन्होंने बताया कि बाबा की आत्मा आश्रम के आसपास के खेतों में बसी हुई थी। कई बार रात्रि को टार्च की रोशनी में खेतों मे जाया करते थे। अपने शिष्यों की बढ़ती भीड़ में बारे में बाबा ने श्री रघुवीर बाबा को बताया कि भीड़ में जो हमारा बनके रहेगा वही कुछ कर सकेगा क्योंकि भगवान से विमुख होकर कोई कुछ नहीं कर सकता। और गुरु तो सदैव देते हैं तथा अपने शिष्य की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रक्षा ही नहीं करते वरन् उसकी समस्या का समाधान भी करते हैं। बाबा कहा करते थे जीवन में माता पिता की सेवा करना और उनकी आज्ञा का पालन करने मात्र से बड़ा कोई धर्माचरण नहीं है।