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Written By WD

ग़ालिब का ख़त-38

ग़ालिब का ख़त-38 -
Aziz AnsariWD
बरखुरदार मुंशी जवाहरसिंह को बाद दुआ़-ए-दवाम उम्र-ओ-दौलत मालूम हो। ख़त तुम्हारा पहुँचा। ख़ैर-ओ-आ़फि़यत तुम्हारी मालूम हुई। क़तए जो तुमको मतलब थे उसके हसूल में जो कोशिश हीरासिंह ने की है, मैं तुमसे कह नहीं सकता। निरी कोशिश नहीं, रुपया ‍सर्फ़ किया। पंद्रह रुपया जो तुमने भेजे थे वह और पच्चीस-तीस रुपया सर्फ़ किए। पाँच-पाँच और चार-चार रुपया जुदा दिए और बनवाने में रुपया जुदा लगाए। दौड़ता फिरा हकीम साहिब पास कई बार जाके हज़ूरवाला का क़त्आ़ आया।

  पंद्रह रुपए में से एक रुपया अपने सर्फ़ में नहीं लाया। और माँ को आ़ज़िज़ करके उससे बहुत रुपए मिले। जब सब कत्ए तुम्हारे पास पहुँचें, तब उसका हुस्न-ए-‍ख़िदमत तुम पर ज़ाहिर होगा।      
अब दौड़ रहा है वली अ़हद बहादुर के दस्तख़ती क़त्ए के वास्ते। यक़ीन है‍ कि दो-चार दिन में वह भी हाथ आवे और बाद इस क़त्आ़ को आने के बाद वह सबको यकजा करके तुम्हारे पास भेज देगा। मदद में भी उसकी कर रहा हूँ लेकिन उसने बड़ी मुशक्क़त की। आफरीं सद्‍ आफरीं। पंद्रह रुपए में से एक रुपया अपने सर्फ़ में नहीं लाया। और माँ को आ़ज़िज़ करके उससे बहुत रुपए मिले। जब सब कत्ए तुम्हारे पास पहुँचें, तब उसका हुस्न-ए-‍ख़िदमत तुम पर ज़ाहिर होगा। क्यों साहिब वह हमारी लुंगी अब तक क्यों नहीं आई। बहुत दिन हुए जब तुमने लिखा था कि इसी हफ़्ते भेजूँगा।
असदुल्ला
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क़ाज़ी अब्दुलजमील जुनून

मख़दूम-ए-मुकर्रम व मुअ़ज़्ज़म जनाब मौलवी अब्दुलजमील साहिब की ख़िदमत में बाद इबलाग़-ए-सलाम-ए-मसलून उल इस्लाम अर्ज़ किया जाता है।

मुशाअ़रा यहाँ शहर में कहीं न होता। क़िला में शहज़ादगान-ए-तैमूरिया जमा होकर कुछ ग़ज़ल लिखकर कहाँ पढ़िएगा। मैं कभी उस महफ़िल में जाता हूँ और कभी नहीं जाता। और यह सोहबत खुद दंज रोज़ा है। इसको दवाम कहाँ? क्या मालूम है अब ही न हो, अब के हो तो आइंदा न हो।

1845 ई. असदुल्ला