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Written By WD

भारत में लोकसभा चुनाव का इतिहास

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History of Lok Sabha elections in India: भारतीय लोकतंत्र को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। इसमें त्रिस्तरीय चुनाव होते हैं- लोकसभा, विधानसभा तथा नगर/ ग्राम पंचायत चुनाव। इसके अलावा मंडी जैसे निकायों के भी चुनाव संपूर्ण पारदर्शिता के साथ कराए जाते हैं। इन चुनावों में थोड़े-बहुत अपवाद भी हुआ करते हैं।
 
भारतीय चुनावों में मुख्य रूप से मुकाबला कांग्रेस व भाजपा (पुराना नाम जनसंघ) के बीच ही होता आया है। समय-समय पर कई नई क्षेत्रीय पार्टियां भी बनीं, किंतु इनमें से अधिकतर अपना अस्तित्व बचाने में असफल रहीं। जो बची-खुची रहीं भी, वे केंद्र में सबसे ज्यादा बहुमत प्राप्त दल को समर्थन देने को मजबूर हुईं। तो आइए, 'वेबदुनिया' आपको सन् 52 से आज तक हुए चुनावों की दिलचस्प जानकारी दे रहा है।
 
जनता से चुने गए प्रतिनिधियों से मिलकर लोकसभा बनी होती है जिन्हें वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुना जाता है। संविधान में उल्लिखित सदन की अधिकतम क्षमता 552 सदस्यों की है जिनमें 530 सदस्य राज्यों का व 20 सदस्य केंद्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 2 सदस्यों को एंग्लो-भारतीय समुदायों के प्रतिनिधित्व के लिए राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किया जाता है। ऐसा तब किया जाता है, जब राष्ट्रपति को लगता है कि उस समुदाय का सदन में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा है।
 
स्वतंत्र भारत में पहली बार 1952 में लोकसभा का गठन हुआ। जानिए लोकसभा चुनाव का संक्षिप्त इतिहास... 
 
प्रथम लोकसभा (1952) : देश में पहली बार 1952 में लोकसभा का गठन हुआ। ऐसा पहले आम चुनावों के सफलतापूर्वक संपन्न होने के बाद हुआ था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कांग्रेस) 364 सीटों के साथ पहले लोकसभा चुनावों के बाद सत्ता में आई। इसके साथ पार्टी ने कुल पड़े वोटों का 45 प्रतिशत प्राप्त किया था।
 
पूरे भारत में 44.87 प्रतिशत की चुनावी भागीदारी दर्ज की गई। पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री बने। उनकी पार्टी ने मतदान के 75.99% (4,76,65,951) मत प्राप्त करके विरोधियों को स्पष्ट रूप से हरा दिया। 17 अप्रैल, 1952 को गठित हुई लोकसभा ने 4 अप्रैल, 1957 तक का अपना कार्यकाल पूरा किया।
 
स्वतंत्र भारत में चुनाव होने के पूर्व ही नेहरू के दो पूर्व कैबिनेट सहयोगियों ने कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए अलग राजनीतिक दलों की स्थापना कर ली थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक ओर जहां अक्टूबर, 1951 में जनसंघ की स्थापना की, वहीं दूसरी ओर दलित नेता बी.आर. आम्बेडकर ने अनुसूचित जाति महासंघ (जिसे बाद में रिपब्लिकन पार्टी का नाम दिया गया) को पुनर्जीवित किया।
 
अन्य दल भी उस समय सामने आए थे। उनमें आचार्य कृपलानी की किसान मजदूर प्रजा परिषद, राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी शामिल हैं। हालांकि इन छोटे दलों को पता था कि वे वास्तव में कांग्रेस के मुकाबले में कहीं खड़े नहीं होते हैं।
 
489 निर्वाचन क्षेत्रों में आयोजित किए गए पहले आम चुनावों में 26 भारतीय राज्यों का प्रतिनिधित्व किया गया। उस समय कुछ 2 सीट और यहां तक कि 3 सीट वाले निर्वाचन क्षेत्र भी थे। एकाधिक सीटों वाले निर्वाचन क्षेत्रों को 1960 के दशक में समाप्त कर दिया गया।
 
जी.वी. मावलंकर पहली लोकसभा के अध्यक्ष बने थे। पहली लोकसभा में 677 (3,784 घंटे) बैठकें हुईं, यह अब तक हुई बैठकों की उच्चतम संख्या है। इस लोकसभा ने 17 अप्रैल, 1952 से 4 अप्रैल 1957 तक अपना कार्यकाल पूरा किया।

 

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दूसरी लोकसभा (1957) : पहली लोकसभा यानी 1952 की अपनी सफलता की कहानी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1957 में आयोजित हुए दूसरे लोकसभा चुनावों में भी दोहराने में कामयाब रही। कांग्रेस के 490 उम्मीदवारों में से 371 सीटें जीतने में कामयाब रहे। पार्टी ने कुल 5,75,79,589 मतों की जीत के साथ 47.78 प्रतिशत बहुमत सुरक्षित रखा।
 
अच्छे बहुमत के साथ पंडित जवाहरलाल नेहरू सत्ता में वापस लौटे। 11 मई, 1957 को एम. अनंथसायनम आयंगर को सर्वसम्मति से नई लोकसभा अध्यक्ष चुना गया। उनका नाम प्रधानमंत्री नेहरू और सत्यनारायण सिन्हा द्वारा प्रस्तावित किया गया था।
 
कांग्रेस के सदस्य फिरोज गांधी का उदय भी इन चुनावों में देखा गया (जिन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू की बेटी इंदिरा से शादी की थी)। उन्होंने अनारक्षित सीट जीतने के लिए उत्तरप्रदेश के रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी नंदकिशोर को 29,000 से अधिक मतों के अंतर से हराया।
 
1957 के चुनावों की दिलचस्प बात यह रही कि इसमें एक भी महिला उम्मीदवार मैदान में नहीं थी। 1957 में निर्दलीयों को मतदान का 19 प्रतिशत प्राप्त हुआ। दूसरी लोकसभा ने 31 मार्च 1962 तक का अपना कार्यकाल पूरा किया।
 
तीसरी लोकसभा (1962) : कांग्रेस को 1957 के चुनावों में जवाहरलाल नेहरू ने बहुमत के साथ शानदार जीत दिलाई थी। अपने कार्यकाल के दौरान इस कांग्रेसी नेता ने विकास के क्षेत्रों में भी देश के एक नए रूप की कल्पना की। पंचवर्षीय योजना का उदय भी इसी दौरान हुआ जिसका उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करके लोगों के जीवनस्तर में सुधार लाना था।
 
देश में ऐसे कई क्षेत्र थे जिनमें नेहरू देश को बहुत आगे ले जाना चाहते थे, जैसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी, औद्योगिक क्षेत्र और संचार। भारत के इस भविष्यदृष्टा प्रधानमंत्री का स्वप्न था कि स्टील मिलों और बांधों को आधुनिक भारत के मंदिरों के रूप में स्थापित किया जाए।
 
तीसरी लोकसभा अप्रैल 1962 में बनाई गई थी। उस समय पाकिस्तान के साथ संबंध खराब बने हुए थे। चीन के साथ 'दोस्ताना' संबंध भी अक्टूबर 1962 के सीमा युद्ध से एक मिथ्या ही साबित हुए।
 
1962 के भारत-चीन युद्ध के पीछे प्रमुख मुद्दा चीन द्वारा तिब्बत के बिलकुल पश्चिम में अक्साई चिन के विवादित क्षेत्र में 1956-57 में सैन्य राजमार्ग का निर्माण करना बताया जाता है।
 
यह युद्ध जो 1962 की गर्मियों में कुछ झड़पों के साथ शुरू हुआ था, अक्टूबर और नवंबर 1962 में तीन व्यापक मोर्चों पर लड़ा गया। मजबूत और अच्छी तरह से तैयार चीनी सेना, भारतीय सेना से श्रेष्ठ साबित हुई।
 
सरकार द्वारा सुरक्षा पर अपर्याप्त ध्यान दिया गया ‍जिसकी चारों ओर आलोचना होने के बाद नेहरू ने तत्कालीन रक्षामंत्री कृष्ण मेनन को हटा दिया और उन्हें अमेरिका की सैन्य सहायता लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। नेहरू का स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ने लगा और वे 1963 में स्वास्थ्य लाभ के लिए कश्मीर में कई महीने गुजारने के लिए बाध्य हो गए।
 
मई, 1964 में उनके कश्मीर से लौटने पर वे सदमे से पीड़ित हुए और बाद में दिल का दौरा पड़ने से 27 मई 1964 को उनका निधन हो गया। विशेषज्ञों का कहना है कि 1962 में चीन के भारत की सीमाओं के आक्रमण और पाकिस्तान के साथ घरेलू मामलों ने नेहरू को कड़वाहट से भर दिया था।
 
नेहरूजी की मौत के बाद 2 सप्ताह के लिए वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता गुलजारीलाल नंदा ने उनकी जगह ली। कांग्रेस द्वारा लालबहादुर शास्त्री को नया नेता चुने जाने तक उन्होंने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में काम किया।
 
प्रधानमंत्री पद के लिए शास्त्रीजी एक संभावित विकल्प नहीं थे जिन्होंने शायद अप्रत्याशित रूप से 1965 में पाकिस्तान पर जीत दिलाने में देश का नेतृत्व किया। शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति मोहम्मद अय्यूब खान ने पूर्व सोवियत संघ के ताशकंद में 10 जनवरी 1966 को एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किए। हालांकि शास्त्री अपनी जीत के फायदे देखने के लिए ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहे।
 
शास्त्री के देहांत के बाद रिक्त स्थान के कारण कांग्रेस एक बार पुनः नेताविहीन हो गई। नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने से पहले एक बार फिर नंदा को एक महीने से कम समय के लिए कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया गया। इंदिरा, शास्त्रीजी के मंत्रिमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप काम करती थीं।
 
1966 में इंदिराजी को प्रधानमंत्री बनाने में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसका पुराने कांग्रेसी नेता मोरारजी देसाई से कड़ा विरोध किया था इसके बावजूद इंदिरा गांधी 24 जनवरी 1966 को प्रधानमंत्री बनीं। वास्तव में यह समय कांग्रेस के लिए सबसे अच्छा नहीं था।
 
पार्टी आंतरिक संकटों से जूझ रही थी और देश हाल में लड़े गए दो युद्धों के प्रभाव से उबर रहा था। अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान हुआ था और मनोबल काफी गिरा हुआ था। जिन अन्य मुद्दों ने लोकसभा को हिलाकर रख दिया था उनमें मिजो आदिवासी बगावत, अकाल, श्रमिक अशांति और रुपए के अवमूल्यन के मद्देनजर गरीबों की बदहाली शामिल थी, वहीं पंजाब में भी भाषायी और धार्मिक अलगाववाद के लिए आंदोलन चल रहा था।
 
चौथी लोकसभा (1967) : देश अप्रैल 1967 में आजादी के बाद चौथी चुनाव पूर्व की राजनीतिक गतिविधियों से गुजर रहा था। जिस कांग्रेस ने अब तक चुनावों में 73 प्रतिशत से कम सीटें नहीं जीती थीं, आगे आने वाला समय उसके लिए और बुरा साबित होने वाला था।
 
कांग्रेस के आंतरिक संकट का प्रभाव 1967 के चुनाव परिणामों में साफ दिखाई दिया। पहली बार कांग्रेस ने निचले सदन में करीब 60 सीटों को खो दिया है, उसे 283 सीटों पर जीत प्राप्त हुई।
 
1967 तक सबसे पुरानी पार्टी ने विधानसभा चुनावों में भी कभी 60 प्रतिशत से कम सीटें नहीं जीती थीं। यहां भी कांग्रेस को एक बड़ा झटका सहना पड़ा, क्योंकि बिहार, केरल, उड़ीसा, मद्रास, पंजाब और पश्चिम बंगाल में गैर-कांग्रेसी सरकारें स्थापित हुईं।
 
इस सब के साथ इंदिरा गांधी को, जो रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गईं थीं, 13 मार्च को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। असंतुष्ट आवाजों को शांत रखने के लिए उन्होंने मोरारजी देसाई को भारत का उपप्रधानमंत्री और भारत का वित्तमंत्री नियुक्त किया। मोरारजी देसाई ने नेहरू की मौत के बाद इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाए जाने का विरोध किया था।
 
चुनावों में कांग्रेस के निराशाजनक प्रदर्शन ने उन्हें मुखर बनने के लिए मजबूर कर दिया और उन्होंने ऐसे लोगों का चयन किया जिसने उन्हें कांग्रेस पार्टी आलाकमान के खिलाफ ला खड़ा किया। पार्टी के भीतर मतभेद बढ़ते रहे।
 
कांग्रेस ने 12 नवंबर 1969 'अनुशासनहीनता' के लिए उन्हें निष्कासित कर दिया। इस घटना ने कांग्रेस को दो भागों में विभाजित कर दिया- कांग्रेस (ओ)- संगठन (ऑर्गेनाइजेशन) के लिए जिसका नेतृत्व मोरारजी देसाई ने किया और कांग्रेस (आई)- इंदिरा के लिए जिसका नेतृत्व इंदिरा गांधी कर रही थीं।
 
इंदिरा ने दिसंबर 1970 तक सीपीआई (एम) के समर्थन से एक अल्पमत वाली सरकार को चलाया। वे आगे अल्पमत की सरकार नहीं चलाना चाहती थीं इसलिए उन्होंने चुनावों की अवधि से 1 वर्ष पहले मध्यावधि लोकसभा चुनावों की घोषणा कर दी। इसके साथ ही देश अपने पांचवें आम चुनावों के लिए तैयार था।

 

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5वीं लोकसभा (1971) : 1971 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को भारी बहुमत से जीत दिलाई। 'गरीबी हटाओ' (गरीबी को खत्म करो) के चुनावी नारे के साथ प्रचार करते हुए वे 352 सीटों के साथ संसद में वापस आईं। पिछले चुनावों की 283 सीटों के मुकाबले यह उल्लेखनीय सुधार था।
 
1971 में इंदिरा गांधी ने भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान साहसिक निर्णय लिया जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश मुक्त हो गया। दिसंबर 1971 में भारत की जीत का सभी भारतीयों द्वारा स्वागत किया गया, क्योंकि यह चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका से राजनयिक विरोधों का सामना करते हुए प्राप्त हुई थी। उस समय तत्कालीन सोवियत संघ और पूर्वी ब्लॉक के देशों को छोड़कर शायद ही किसी अन्य देश ने भारत का अंतरराष्ट्रीय समर्थन किया था।
 
इंदिरा और कांग्रेस दोनों के समक्ष कुछ अन्य समस्याएं भी थीं। भारत-पाक युद्ध में आई भारी आर्थिक लागत, दुनिया में तेल की कीमतों में वृद्धि और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट ने आर्थिक कठिनाइयों को बढ़ा दिया था।
 
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 जून 1975 को चुनावी भ्रष्टाचार के आधार पर उनके 1971 के चुनाव को अवैध ठहरा दिया। इस्तीफे के बजाय, इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा की और पूरे विपक्ष को जेल में डाल दिया।
 
आपातकाल मार्च 1977 तक चला और 1977 में आयोजित चुनावों में जन मोर्चा नाम के पार्टियों के गठबंधन से उन्हें हार का सामना करना पड़ा। ऐसा पहली बार हुआ था, जब कांग्रेस को एक गंभीर हार का सामना करना पड़ा था।
 
6ठी लोकसभा (1977) : कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल की घोषणा 1977 के चुनावों में मुख्य मुद्दा था। राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक नागरिक स्वतंत्रताओं को समाप्त कर दिया गया था और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने व्यापक शक्तियां अपने हाथ में ले ली थीं।
 
आपातकाल की वजह से इंदिरा गांधी की लोकप्रियता कम हुईं और चुनावों में उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। 23 जनवरी को गांधी ने मार्च में चुनाव कराने की घोषणा की और सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया। चार विपक्षी दलों- कांग्रेस (ओ), जनसंघ, भारतीय लोकदल और समाजवादी पार्टी ने जनता पार्टी के रूप में मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया।
 
आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों और मानव अधिकारों के उल्लंघन की जनता पार्टी ने मतदाताओं को याद दिलाई और कहा कि इस दौरान अनिवार्य बंध्याकरण और राजनेताओं को जेल में डालने जैसा काम भी किया गया था। इस चुनाव पूर्व अभियान में कहा गया कि चुनाव तय करेगा कि भारत में 'लोकतंत्र होगा या तानाशाही।' इससे कांग्रेस आशंकित दिख रही थी। कृषि और सिंचाई मंत्री बाबू जगजीवनराम ने पार्टी छोड़ दी और ऐसा करने वाले कई लोगों में से वे एक थे।
 
कांग्रेस ने एक मजबूत सरकार की जरूरत होने की बात कहकर मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की लेकिन लहर इसके खिलाफ चल रही थी।
 
कांग्रेस को स्वतंत्र भारत में पहली बार चुनावों में हार का सामना करना पड़ा और जनता पार्टी के नेता मोरारजी देसाई ने 298 सीटें जीतीं। उन्हें चुनावों से 2 महीने पहले ही जेल से रिहा किया गया था। देसाई 24 मार्च को भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने।
 
कांग्रेस की लगभग 200 सीटों पर हार हुई। इंदिरा गांधी, जो 1966 से सरकार में थीं और उनके बेटे संजय गांधी चुनाव हार गए।
 
7वीं लोकसभा (1980) : कांग्रेस और आपातकाल के खिलाफ जनता के गुस्से पर सवार होकर जनता पार्टी सत्ता में आई लेकिन इसकी स्थिति कमजोर थी। लोकसभा में पार्टी की 270 सीटें थीं और सत्ता पर उसकी पकड़ मजबूत नहीं थी।
 
भारतीय लोकदल के नेता चरणसिंह और जगजीवनराम, जिन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी, जनता गठबंधन के सदस्य थे, लेकिन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से वे खुश नहीं थे।
 
आपातकाल के दौरान मानवाधिकार हनन की जांच के लिए जो अदालतें सरकार ने गठित की थीं वे इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रतिशोधपूर्ण दिखाई पड़ीं थीं। इंदिरा ने स्वयं को एक परेशान महिला के रूप में चित्रित करने का कोई मौका नहीं गंवाया।
 
समाजवादियों और हिन्दू राष्ट्रवादियों का मिश्रण जनता पार्टी 1979 में विभाजित हो गई, जब भारतीय जनसंघ (बीजेएस) के नेता अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी को छोड़ दिया और बीजेएस ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
 
देसाई ने संसद में विश्वास मत खो दिया और इस्तीफा दे दिया। चरणसिंह, जिन्होंने जनता गठबंधन के कुछ भागीदारों को बरकरार रखा था, उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में जून 1979 में शपथ ली।
 
कांग्रेस ने संसद में सिंह के समर्थन का वादा किया लेकिन बाद में पीछे हट गई। उन्होंने जनवरी 1980 में चुनाव की घोषणा कर दी और वे अकेले प्रधानमंत्री थे, जो कभी संसद नहीं गए। जनता पार्टी के नेताओं के बीच की लड़ाई और देश में फैली राजनीतिक अस्थिरता ने कांग्रेस (आई) के पक्ष में काम किया जिसने मतदाताओं को इंदिरा गांधी की मजबूत सरकार की याद दिला दी।
 
कांग्रेस ने लोकसभा में 351 सीटें जीतीं और जनता पार्टी या बचे हुए गठबंधन को 32 सीटें मिलीं।
 
जनता पार्टी का साल-दर-साल विभाजन होता रहा लेकिन ये देश के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। यह एक गठबंधन था और इसने यह साबित कर दिया कि कांग्रेस को भी हराया जा सकता है।
 
8वीं लोकसभा (1984-1985) : 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या ने कांग्रेस के लिए ऑक्सीजन का काम किया तथा उसके लिए सहानुभूति मत बनाए। इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद लोकसभा को भंग कर दिया गया और राजीव गांधी ने अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
 
नवंबर 1984 के लिए चुनाव की घोषणा कर दी गई। चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी ने लोगों को अपने परिवार के योगदान की याद दिलाई और खुद को एक सुधारक के रूप में प्रस्तुत किया।
 
इस चुनाव में कांग्रेस ने भारी बहुमत से जीत हासिल की। इसने 409 लोकसभा सीटें और लोकप्रिय मतों का 50 फीसदी अपने नाम किया। यह पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। तेलुगुदेशम पार्टी 30 सीटों के साथ संसद में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। यह भारतीय संसद के इतिहास के उन दुर्लभ रिकॉर्डों में एक है जिसमें कोई क्षेत्रीय पार्टी मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी।

 

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9वीं लोकसभा (1989) : 9वीं लोकसभा के चुनाव भारतीय चुनावी राजनीति में कई मायनों में ऐतिहासिक घटना रहे। इन चुनावों ने राजनेताओं ने वोट मांगने का तरीका बदल लिया। उस वक्त जाति और धर्म के आधार पर वोट मांगना केंद्रबिंदु बन गया था। 1984-85 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद आयोजित पिछले आम चुनावों में कांग्रेस ने राजीव गांधी के नेतृत्व में भारी बहुमत के साथ लोकसभा में 400 से अधिक सीटों पर जीत हासिल की थी।
 
यद्यपि 1989 के आम चुनाव कई संकटों से जूझ रहे कांग्रेस के युवा नेता राजीव के नेतृत्व में लड़े गए और कांग्रेस सरकार अपनी विश्वसनीयता और लोकप्रियता खो रही थी। ये संकट आंतरिक और बाहरी दोनों थे।
 
बोफोर्स कांड, पंजाब में बढ़ता आतंकवाद, एलटीटीई और श्रीलंका सरकार के बीच गृह युद्ध उन समस्याओं में से कुछ थीं, जो राजीव गांधी की सरकार के सामने थीं। विश्वनाथ प्रताप सिंह, राजीव के सबसे बड़े आलोचक थे जिन्होंने सरकार में वित्त मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय का कामकाज संभाल रखा था। सिंह के रक्षामंत्री के रूप में कार्यकाल के दौरान यह अफवाह थी कि उनके पास बोफोर्स रक्षा सौदे से संबंधित ऐसी जानकारी थी, जो राजीव गांधी की प्रतिष्ठा को बर्बाद कर सकती थी।
 
इस बात को लेकर सिंह को शीघ्र ही मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया गया और फिर उन्होंने कांग्रेस और लोकसभा में अपनी सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद खान के साथ जनमोर्चा का गठन किया और इलाहाबाद से फिर से लोकसभा में प्रवेश किया।
 
11 अक्टूबर, 1988 को जन मोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) के विलय से जनता दल की स्थापना हुई ताकि सभी दल एकसाथ मिलकर राजीव गांधी सरकार का विरोध करें। जल्द ही द्रमुक, तेदेपा और अगप सहित कई क्षेत्रीय दल जनता दल से मिल गए और नेशनल फ्रंट की स्थापना की।
 
पांच पार्टियों वाला नेशनल फ्रंट, भारतीय जनता पार्टी और दो कम्युनिस्ट पार्टियों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के साथ मिलकर 1989 के चुनाव मैदान में उतरा।
 
लोकसभा में 525 सीटों के लिए यह चुनाव 22 नवंबर और 26 नवंबर, 1989 को 2 चरणों में आयोजित हुए। नेशनल फ्रंट के लिए लोकसभा में यह आसान बहुमत प्राप्त हुआ और उसने वाम मोर्चे और भारतीय जनता पार्टी के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई। राष्ट्रीय मोर्चे की सबसे बड़े घटक जनता दल ने 143 सीटें जीतीं, इसके अलावा माकपा और भाकपा ने क्रमशः 33 और 12 सीटें हासिल कीं। निर्दलीय और अन्य छोटे दल 59 सीटें जीतने में कामयाब रहे।
 
हालांकि, कांग्रेस अभी भी 197 सांसदों के साथ लोकसभा में अकेली सबसे बड़ी पार्टी थी। भाजपा 1984 के चुनावों में 2 सीटों के मुकाबले इस बार के चुनावों में 85 सांसदों के साथ सबसे ज्यादा फायदे में रही। सिंह भारत के 10वें प्रधानमंत्री बने और देवीलाल उपप्रधानमंत्री बने।
 
उन्होंने 2 दिसंबर, 1989 से 10 नवंबर 1990 तक कार्यभार संभाला। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दे पर रथयात्रा शुरू किए जाने और मुख्यमंत्री लालू यादव द्वारा बिहार में आडवाणी को गिरफ्तार किए जाने के बाद पार्टी ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। सिंह ने विश्वास मत हारने के बाद इस्तीफा दे दिया।
 
चंद्रशेखर 64 सांसदों के साथ जनता दल से अलग हो गए और उन्होंने समाजवादी जनता पार्टी बनाई। उन्हें बाहर से कांग्रेस का समर्थन मिला और वे भारत के 11वें प्रधानमंत्री बने। उन्होंने आखिरकार 6 मार्च, 1991 को इस्तीफा दे दिया, जब कांग्रेस ने आरोप लगाया कि सरकार, राजीव गांधी की जासूसी करवा रही है।
 
10वीं लोकसभा (1991) : 10वीं लोकसभा के चुनाव मध्यावधि चुनाव थे क्योंकि पिछली लोकसभा को सरकार के गठन के सिर्फ 16 महीने बाद भंग कर दिया गया था। चुनाव विपरीत वातावरण में हुए थे और दो सबसे महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दों, मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने और राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद विवाद के चलते इन्हें 'मंडल-मंदिर' चुनाव भी कहा जाता है।
 
जहां एक ओर वीपी सिंह सरकार द्वारा लागू मंडल आयोग की रिपोर्ट में सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) को 27 फीसदी आरक्षण दिया गया था जिसके कारण बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और सामान्य जातियों के छात्रों ने देशभर में इसका विरोध किया, वहीं दूसरी ओर मंदिर अयोध्या के विवादित बाबरी मस्जिद ढांचे का प्रतिनिधित्व करता था जिसे भारतीय जनता पार्टी अपने प्रमुख चुनावी मुद्दे के रूप में उपयोग कर रही थी।
 
मंदिर मुद्दे के कारण देश के कई हिस्सों में दंगे हुए और मतदाताओं का जाति और धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण हो गया। राष्ट्रीय मोर्चे में फैली अव्यवस्था ने कांग्रेस की वापसी के संकेत दे दिए थे।
 
3 चरणों में चुनाव 20 मई, 12 जून और 15 जून, 1991 को आयोजित किए गए। यह कांग्रेस, भाजपा और राष्ट्रीय मोर्चा- जनता दल (एस)- वामपंथियों मोर्चे के गठबंधन के बीच एक त्रिशंकु मुकाबला था।
 
20 मई को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मतदान के पहले दौर के एक दिन बाद तमिल ईलम लिबरेशन टाइगर्स द्वारा श्रीपेरुम्बुदूर (तमिलनाडु) में चुनाव प्रचार के दौरान हत्या कर दी गई। चुनाव के शेष दिनों को जून के मध्य तक के लिए स्थगित कर दिए गया और अंत में मतदान 12 जून और 15 जून को हुआ। इस बार के संसदीय चुनावों में अब तक का सबसे कम मतदान हुआ, इसमें केवल 53 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया।
 
चुनावों के परिणामों के बाद एक त्रिशंकु संसद बनी जिसमें 232 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और 120 सीटों के साथ भाजपा दूसरे स्थान पर रही। जनता दल सिर्फ 59 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रहा।
 
21 जून को कांग्रेस के पी.वी. नरसिंहराव ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। राव, नेहरू-गांधी परिवार के बाहर दूसरे कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। नेहरू-गांधी परिवार के बाहर पहले कांग्रेसी प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री थे।
 
11वीं लोकसभा (1996) : 11वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव परिणामों से एक बार फिर त्रिशंकु संसद बनी और 2 वर्ष तक राजनीतिक अस्थिरता रही जिसके दौरान देश के 3 प्रधानमंत्री बने।
 
इस दौरान प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव की कांग्रेस (आई) सरकार को सुधारों की एक श्रृंखला जारी करने का श्रेय जाता है जिसने विदेशी निवेशकों के लिए देश की अर्थव्यवस्था को खोल दिया। राव के समर्थकों ने उन्हें देश की अर्थव्यवस्था को बचाने और देश की विदेश नीति को स्फूर्ति देने का श्रेय दिया लेकिन उनकी सरकार अप्रैल से मई में चुनाव से पहले अनिश्चित और कमजोर थी।
 
मई 1995 में वरिष्ठ नेता अर्जुनसिंह और नारायण दत्त तिवारी ने कांग्रेस छोड़ दी और अपनी पार्टी का गठन किया। हर्षद मेहता घोटाले, राजनीति के अपराधीकरण पर वोहरा की रिपोर्ट, जैन हवाला कांड और 'तंदूर हत्याकांड' मामले ने राव सरकार की विश्वसनीयता को क्षतिग्रस्त किया। भाजपा व उसके सहयोगी दल और संयुक्त मोर्चा, वाम मोर्चा और जनता दल का गठबंधन चुनावों में कांग्रेस के मुख्य प्रतिद्वंद्वी थे।
 
राव ने तीन सप्ताह के अभियान के दौरान अपने द्वारा लागू किए गए आर्थिक सुधारों को मुद्दा बनाकर मतदाताओं को आकर्षित किया और भाजपा ने हिन्दुत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर मतदाताओं को रिझाया। मतदाता किसी भी पार्टी से प्रभावित नहीं लगते थे। भाजपा ने 161 सीटें जीतीं और कांग्रेस ने 140। संसद की सीटों की आधी संख्या 271 थी।
 
राष्ट्रपति ने भाजपा नेता अटलबिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया क्योंकि वे संसद में सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया थे। वाजपेयी ने 16 मई को प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला और संसद में क्षेत्रीय दलों से समर्थन पाने की कोशिश की। वे इस काम में विफल रहे और 13 दिनों के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। जनता दल के नेता देवेगौड़ा ने 1 जून को एक संयुक्त मोर्चा गठबंधन सरकार का गठन किया। उनकी सरकार 18 महीने चली।
 
देवेगौड़ा के विदेश मंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री के रूप में अप्रैल 1997 में पदभार संभाला, जब कांग्रेस बाहर से एक नई संयुक्त मोर्चा सरकार का समर्थन करने के लिए सहमत हो गई। लेकिन गुजराल केवल एक कामचलाऊ व्यवस्था के रूप में थे। देश में 1998 में फिर से चुनाव होना तय था।

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12वीं लोकसभा (1998) : 11वीं लोकसभा का जीवन बहुत छोटा था, यह मुश्किल से डेढ़ साल चली। अल्पमत वाली इंद्र कुमार गुजराल की सरकार (मई 1996 के आम चुनावों से 18 महीनों के भीतर संयुक्त मोर्चा की दूसरी सरकार), 28 नवंबर, 1997 को गिर गई। सीताराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने 1991 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या में शामिल होने के विवाद के चलते सरकार से तब सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।
 
इसके बाद चुनावों की घोषणा की गई और 10 मार्च, 1998 को 12वीं लोकसभा का गठन हुआ और वरिष्ठ भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले गठबंधन को 9 दिन बाद शपथ दिलाई गई। 12वीं लोकसभा केवल 413 दिन चली, जो उस तिथि तक का सबसे कम समय था।
 
एक व्यवहार्य विकल्प के अभाव के कारण तब विघटन हो गया, जब 13 महीने पुरानी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार को 17 अप्रैल को केवल 1 मत से बेदखल कर दिया गया। ऐसा 5वीं बार हुआ था, जब लोकसभा को अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले भंग कर दिया गया।
 
4 दिसंबर, 1997 को लोकसभा के विघटन के बाद समय से पहले ही सभी लोकसभा सीटों के लिए चुनाव हुए। पिछली बार आम चुनाव अप्रैल/मई 1996 में आयोजित हुए थे।
 
चुनाव पश्चात गठबंधन की रणनीति ने भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन को 265 सीटों का कार्यकारी बहुमत प्रदान किया। इस संदर्भ में 15 मार्च को राष्ट्रपति नारायणन ने वाजपेयी को अगली सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। 19 मार्च को वाजपेयी ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
 
13वीं लोकसभा (1999) : 17 अप्रैल 1999 को वाजपेयी ने लोकसभा में विश्वास मत खो दिया और इसके फलस्वरूप उनकी गठबंधन सरकार ने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने इसका कारण अपने 24 पार्टी वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में सामंजस्य की कमी होना बताया। भाजपा, गठबंधन की अपने सहयोगी जयललिता के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक के पीछे हटने के कारण मतदान में 1 वोट से हार गई थी।
 
अपनी मांगें पूरी न होने पर जयललिता लगातार समर्थन वापस लेने की धमकी दे रही थीं। इन मांगों में विशेष रूप से तमिलनाडु सरकार को बर्खास्त करना शामिल था जिसका नियंत्रण वे 3 साल पहले खो चुकी थीं। भाजपा का आरोप था कि जयललिता, भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच से बचाने की मांग कर रही थीं और पार्टियों के बीच कोई समझौता नहीं किया जा सका जिससे सरकार की हार हुई।
 
मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस- क्षेत्रीय और वामपंथी समूहों के साथ मिलकर बहुमत वाली सरकार बनाने के लिए पर्याप्त समर्थन नहीं पा सकी। इसे लेकर 26 अप्रैल को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने लोकसभा भंग कर दी और जल्दी चुनाव करने की घोषणा कर दी। भाजपा ने मतदान होने तक एक अंतरिम प्रशासन के रूप में शासन करना जारी रखा। चुनाव आयोग द्वारा चुनावों की तिथि 4 मई घोषित की गई थी।
 
चूंकि पिछले चुनाव 1996 और 1998 में आयोजित हुए थे, इसलिए 1999 के चुनाव 40 महीने में तीसरी बार हो रहे थे। चुनावी धोखाधड़ी और हिंसा को रोकने के लिए देश के 31 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में सुरक्षा बलों को तैनात करने हेतु ये चुनाव 5 सप्ताह तक चले थे। कुल मिलाकर 45 पार्टियों ने (6 राष्ट्रीय, बाकी क्षेत्रीय) 543 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा।
 
इस लंबे चुनाव अभियान के दौरान भाजपा और कांग्रेस ने आमतौर पर आर्थिक और विदेश नीति के मुद्दों पर सहमति व्यक्त की। इसमें पाकिस्तान के साथ कश्मीर सीमा विवाद का निपटारा भी शामिल था। उनकी प्रतिद्वंद्विता केवल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और वाजपेयी के बीच के व्यक्तिगत टकराव के रूप में ही अधिक प्रकट हुई।
 
1998 में सोनिया गांधी को काफी कम उम्र में पार्टी अध्यक्ष पद के लिए निर्वाचित किया गया। महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेता शरद पवार ने सोनिया की जन्मभूमि इटली होने की बात को मुद्दा बनाकर उनके चयन को चुनौती दी। इस कारण से कांग्रेस में आंतरिक संकट पैदा हो गए और भाजपा ने प्रभावी रूप से एक चुनावी मुद्दे के रूप में इसका प्रयोग किया।
 
कारगिल युद्ध में वाजपेयी द्वारा निपटने का सकारात्मक दृष्टिकोण भी एक मुद्दा था, जो भाजपा के पक्ष में काम कर रहा था। यह युद्ध चुनावों से कुछ महीने पहले ही समाप्त हुआ था और इसने कश्मीर में भारत की स्थिति को मजबूत किया था। इसके अलावा पिछले 2 वर्षों में भारत ने आर्थिक उदारीकरण और वित्तीय सुधारों के चलते आर्थिक रूप से काफी वृद्धि हासिल की थी। इसके साथ-साथ मुद्रास्फीति की दरें कम और औद्योगिक विकास की दरें भी उच्च थीं।
 
अन्य दलों के साथ मजबूत और व्यापक गठजोड़ के माध्यम से राजनीतिक विस्तार के आधार पर 1991, 1996 और 1998 के चुनावों में भाजपा और उसके सहयोगियों ने लगातार प्रगति की और क्षेत्रीय विस्तार के कारण राजग प्रतिस्पर्धी बन गया और यहां तक कि उसने कांग्रेस की बहुलता वाले क्षेत्रों जैसे उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और असम में भी सबसे ज्यादा वोट प्राप्त किए थे। ये कारक 1999 के चुनाव परिणामों में निर्णायक साबित हुए थे।
 
6 अक्टूबर को आए परिणाम में राजग को 298 सीटें मिलीं तथा कांग्रेस और उसके सहयोगियों को 136 सीटों पर विजय प्राप्त हुई। वाजपेयी ने 13 अक्टूबर को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
 
14वीं लोकसभा (2004) : प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की देखरेख में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने 2004 में अपने शासन के 5 साल पूरे किए और 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच 4 चरणों के चुनाव हुए।
 
अधिकांश विश्लेषकों का मानना था कि राजग, फील गुड फैक्टर और अपने प्रचार अभियान 'भारत उदय' की मदद से सत्ता विरोधी लहर को हरा देगी और स्पष्ट बहुमत प्राप्त करेगी। भाजपा शासन के दौरान अर्थव्यवस्था में लगातार वृद्धि दिखाई दी थी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश को पटरी पर लाया गया था।
 
भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार में 100 अरब डॉलर से अधिक राशि जमा थी। यह दुनिया में 7वीं सबसे बड़ा भंडार और भारत के लिए एक रिकॉर्ड था। सेवा क्षेत्र में भी बड़ी संख्या में नौकरियां उपलब्ध हुई थीं।
 
1990 के दशक के अन्य सभी लोकसभा चुनावों की तुलना में इन चुनावों में दो व्यक्तित्वों (वाजपेयी और सोनिया गांधी) का टकराव अधिक देखा गया क्योंकि वहां कोई तीसरा व्यवहार्य विकल्प मौजूद नहीं था। भाजपा और इसके सहयोगियों का झगड़ा एक तरफ था और कांग्रेस और उसके सहयोगियों का झगड़ा दूसरी तरफ। हालांकि क्षेत्रीय मतभेद राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरे थे।
 
भाजपा ने राजग के सदस्य के रूप में चुनाव लड़ा, हालांकि इसकी सीटों के बंटवारे को लेकर इसके समझौते राजग के बाहर कुछ मजबूत क्षेत्रीय दलों के साथ भी थे, जैसे आंध्रप्रदेश में तेलुगुदेशम पार्टी और तमिलनाडु में अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी।
 
आगे चुनावों में कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर का विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश भी हुई। अंत में कोई समझौता नहीं हो पाया लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर कई राज्यों में कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों में गठबंधन हो गया। यह पहली बार था कि कांग्रेस ने संसदीय चुनावों में इस तरह के गठबंधन के साथ चुनाव लड़ा था।
 
वामपंथी दलों विशेषकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने अपने मजबूत क्षेत्रों जैसे पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में अपने दम पर चुनाव लड़ा और कांग्रेस और राजग दोनों का सामना किया। अन्य राज्यों जैसे पंजाब और आंध्रप्रदेश में उन्होंने कांग्रेस के साथ सीटें बांटीं। तमिलनाडु में वे द्रमुक के नेतृत्व वाले जनतांत्रिक प्रगतिशील गठबंधन का हिस्सा थे।
 
बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस या भाजपा दोनों में से किसी के साथ भी जाने से इंकार कर दिया। ये दोनों भारत के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तरप्रदेश में आधारित हैं।
 
चुनाव पूर्व भविष्यवाणियों में पराजय के लिए विभिन्न कारणों को जिम्मेदार माना जाता है। राष्ट्रीय मुद्दों की बजाय लोग अपने आसपास के मुद्दों जैसे पानी की कमी, सूखा आदि के बारे में ज्यादा चिंतित थे और भाजपा के सहयोगी सत्ता विरोधी भावनाओं का सामना कर रहे थे।
 
13 मई को भाजपा ने हार को स्वीकार किया और कांग्रेस अपने सहयोगियों की मदद और सोनिया गांधी के मार्गदर्शन में 543 में से 335 सदस्यों ( बसपा, सपा, एमडीएमके और वाम मोर्चा के बाहरी समर्थन सहित) का बहुमत प्राप्त करने में सफल रही। चुनाव के बाद हुए इस गठबंधन को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) कहा गया।
 
हालांकि सोनिया गांधी ने नया प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर लगभग सभी को हैरान कर दिया। इसके बजाय उन्होंने पूर्व वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से यह दायित्व उठाने के लिए कहा।
 
डॉ. सिंह इससे पहले नरसिंहराव की सरकार में 1990 के दशक की शुरुआत में अपनी सेवाएं दे चुके थे, जहां उन्हें भारत की ऐसी पहली आर्थिक उदारीकरण नीति के रचयिताओं में से एक माना जाता था जिसने आसन्न राष्ट्रीय मौद्रिक संकट से उबरने में मदद की थी।
 
15वीं लोकसभा (2009) : मई 2009 में, 15वीं लोकसभा के चुनाव के परिणामों की घोषणा की गई, जहां कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) ने लोकसभा का नेतृत्व करने का जनादेश जीता। श्रीमती मीरा कुमार लोकसभा अध्यक्ष बनीं और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दोबारा देश का नेतृत्व करने का अवसर मिला।