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Written By WD

लोग साथ आते गए, कारवां बनता गया

अमेठी से दीपक असीम

लोग साथ आते गए, कारवां बनता गया -
कुमार विश्वास जब अपनी नामाकंन पद यात्रा 'जन विश्वास यात्रा' लेकर अमेठी मुख्यालय से चले तो सैकड़ा भर लोग रहे होंगे, जिनमें भी बाहरी कार्यकर्ता ज्यादा थे। मगर जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए लोग आकर उनके कारवां में शरीक होते रहे।
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चौदह किलोमीटर बाद यानी गौरीगंज में ये जनविश्वास यात्रा इतनी बड़ी हो गई थी कि आधा किलोमीटर इलाके में केवल सफेद टोपियां ही नज़र आ रही थीं। अमेठी से गौरीगंज तक जितने गांव पड़े, उनके लोग अपने-अपने इलाके से शामिल होते रहे। दूर गांवों से आने वाले जो लोग लेट हो गए थे, उन्होंने भी रैली को आखिरकार पकड़ लिया और साथ हो गए।

कुमार विश्वास और साथियों को पंद्रह किलोमीटर पैदल चलने में साढ़े चार घंटे लगे। आम आदमी पार्टी और अन्य में फर्क यह है कि इनके कार्यकर्ता सड़क के एक तरफ चल रहे थे और कहीं भी रास्ता जाम नहीं होने दे रहे थे। अगर कहीं कुछ होता तो कार्यकर्ता खुद ट्रैफिक पुलिस का रोल निभाते हुए गाड़ियां पास करा देते। भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि रास्ता बार-बार जाम होता रहा। स्वागत भी जगह-जगह खूब हुआ।

कुमार विश्वास की इस पदयात्रा ने अचानक मानो एक माहौल अमेठी में बना दिया और बसों में, टैंपो में, चाय की दुकानों पर, चौराहों पर चर्चा का विषय अचानक यह हो गया कि चुनाव तो कुमार विश्वास लड़ रहे हैं और इस बार राहुल को कड़ी टक्कर है। नामांकन तो खैर और लोगों ने भी भरे मगर न तो किसी के पास इतनी भीड़ थी और ना ही भीड़ में वो उत्साह था।

अगले पन्ने पर, कुमार की रैली का क्या था खास...


अलग-अलग गांवों से करीब बीस ढोलक वाले आ गए थे। ढोलक थी तो फिर नाच भी था। हरे रंग की गुलाल भी थी। दिल्ली से कई लड़कियां भी आई थीं। कुमार विश्वास ने पैदल चलना सबके लिए जरूरी नहीं किया था। जो चल सकता था, वो चल रहा था और थकने वाले पीछे धीरे-धीरे आ रही गाड़ियों में बैठते जा रहे थे।
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गौरीगंज में कार्यकर्ताओं को खाना दिया गया। पैकेट में छह-छह पूरियां और बिना तेल की कोई सब्जी। सभी ने यहां खाना खाया और चल पड़े नामांकन भरने। मजाल है जो कुमार विश्वास या दिल्ली से आई हुई टीम के माथे पर कोई शिकन हो या थकन का कोई निशान हो। नामांकन के बाद जरूर कुमार विश्वास गाड़ी से वापस गए मगर अमेठी में कल चारों तरफ टोपियां ही टोपियां थीं।

निश्चित ही इस बार राहुल (अगर जीत रहे हैं) तो बहुत कम वोटों से जीतेंगे। बसपा का काम सायलेंट मोड पर चल रहा है। स्मृति ईरानी को संगठन और संघ का सहारा है। कुमार विश्वास के पास युवाओं का उत्साह है। राहुल के पास बस परंपरागत वोट हैं। सवाल यह है कि क्या ये वोट इतने हैं कि इन सभी की नुकसानी पाटने के बाद भी इज्जत लायक बच सकें। कुछ हजार वोटों की जीत तो राहुल के लिए हार जैसी ही होगी।