जबसे प्रधानमंत्री मोदी ने लखनऊ में दशहरा मनाने की बात कही तभी से तरह-तरह की अटकलें लगने लगी थीं। सभी की निगाहें उनके लखनऊ में होने वाले भाषण पर लगी हुई थीं। वैसे ही जैसे उड़ी हमले के बाद वो कोझीकोड़ में पहली बार बोलने वाले थे। तब भी देश और दुनिया ने उनको ध्यान से सुना था। इस बीच गंगा में बहुत पानी बह गया। बहुचर्चित लक्ष्यभेदी हमले हो गए। इन हमलों की मार पाकिस्तान से ज़्यादा तो देश के भीतर होती हुई दिखाई दी। तरह-तरह की कराहें सुनाई दीं। लोगों को बड़ा लक्ष्य उत्तरप्रदेश का चुनाव नज़र आने लगा।
इसीलिए प्रधानमंत्री द्वारा लखनऊ में दशहरा मनाए जाने को लेकर फिर चिंता की लकीरें खिंच गईं। सबको लगा कि अब ये देश के भीतर एक लक्ष्यभेदी हमला है। सपा, बसपा, कांग्रेस सभी की नींद उड़ गई। वो ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने दिल्ली के बाहर दशहरा मनाया। जाहिर है लीक तोड़कर दिल्ली से बाहर लखनऊ की ओर लक्ष्य कर दशहरा मनाने के इस कदम को लेकर राजनीतिक रस्साकशी तो होनी ही थी। सबको लग रहा था कि ये राजनीतिक और लक्षित हमला है। लखनऊ के दशहरा मैदान में किस को लक्ष्य कर कौन से तीर कहाँ चलेंगे उसको लेकर चिंता की लकीरें खिच गईं।
बहरहाल मोदीजी का भाषण तो हो गया। इसमें मोटे तौर पर तीन बातें सामने आईं –
1. आज के समय का सबसे बड़ा रावण आतंकवाद है और हमें उससे लड़ना है
2. कन्या भ्रूण हत्या बहुत ही क्रूर अपराध है, केवल देवी पूजा से नहीं चलेगा
3. हम युद्ध से बुद्ध की ओर जाने वाले लोग हैं
अभी हम उत्तरप्रदेश के चुनाव और उसको लक्ष्य कर मनाए गए दशहरे के आरोप पर बात नहीं कर रहे हैं, क्योंकि आज के भाषण में जो युद्धत्व और बुद्धतत्व की बात हुई है, वो ख़ासा महत्व रखती है। इसीलिए यहाँ तीसरा बिन्दु बहुत अहम है। एक ऐसे समय में जब देश में युद्धोन्माद चरम पर है और लक्षित हमलों के छींटों ने कुछ जगहों पर पानी की बजाय घी का ही काम किया है। एक ऐसे समय में जब दुनिया भी भारत-पाक युद्ध और उसके संभावित ख़तरों का आकलन कर रही है तब प्रधानमंत्री का ये बयान बहुत मायने रखता है। ये जो लक्षित हमला है इसकी कलिंग के युद्ध से कोई तुलना ही नहीं हो सकती, पर उसके बाद भी अगर मोदीजी युद्ध और बुद्ध की बात कर रहे हैं तो ये बहुत महतवपूर्ण है। वो इसलिए कि उनकी छवि भी ऐसे सम्राट के रूप में गढ़ने की कोशिश की जा रही है जो चक्रवर्ती बनने की चाह में देश को युद्ध में झोंकने से नहीं हिचकेगा। ख़ासतौर पर तब जब उन्होंने अपने सीने की नपाई के दौर में सेना से लक्ष्यभेदी हमले का उद्घोष करवाया। इसी के बाद बहुत सारी भौंहें ऊपर हो गईं। कई लोगों ने फेसबुक और व्हॉट्सएप पर उन्हें अशोक और बुद्ध याद दिलाने की कोशिश की। ये बताया कि कैसे युद्ध और जीत की चाह के बाद भी अशोक ने कलिंग के बाद ख़ुद को अकेला पाया। कवि श्रीकांत वर्मा के शब्दों में कहें तो लड़े भी अशोक, जीते भी अशोक, हारे भी अशोक और अकेले भी पड़े अशोक। - क्या एक नायक के रूप में मोदी उसी ओर तो नहीं बढ़ रहे? इसी छवि को लेकर बहुत सजग होकर उनका युद्ध से बुद्ध की ओर वाला ये बयान आया है। वो भी शायद जानते हैं कि तमाम जयघोष के बीच भी युद्ध का ये उन्माद कहाँ ले जा सकता है। इसीलिए उन्होंने स्पष्ट करने की कोशिश की लक्ष्य युद्ध नहीं लक्ष्य आतंकवाद है।
इसी की एंटी थीसिस यानी विरोधी सिद्धांत भी ख़ूब चर्चा में रहा है। वो लंबी बहस फिर कभी पर वो ये सवाल उठाता है कि यदि अशोक बुद्धत्व को प्राप्त नहीं हुए होते तो एक राष्ट्र के रूप में भारत का इतिहास कैसा होता? – जाहिर है इतिहास किंतु-परंतु से नहीं चलता। जो होता है उसी से इतिहास आगे बढ़ता है। और वो यहाँ तक पहुँच चुका है। युद्ध का निर्णय किसी भी राष्ट्र प्रमुख के लिए आसान नहीं है, ख़ासतौर पर तब जब वो विश्व पटल पर राष्ट्र की और अपनी व्यापक छवि लिए खड़ा हो। इसी छवि की दुविधा ने नेहरू को 1962 में बड़ा झटका दिया। दूसरी ओर इसी दुविधा का हल ढूँढ लेने और परिस्थिति के हिसाब से निर्णय लेने के कारण उनकी बेटी इंदिरा ने 1971 में बांग्लादेश बनवा दिया।
इस सबके बाद भी युद्ध एक विभीषिका है। जंग किसी मसले का हल नहीं वरन ख़ुद ही एक मसला है। लोग तो 62 में भी मरे, 65 में भी और 71 में भी। कलिंग के उस युद्ध मैदान में भी सैकड़ों लाशें बिछी थीं। दरअसल युद्ध और लाशों के बीच की ये दुविधा एक प्रधानमंत्री और नेतृत्वकर्ता के रूप में नरेन्द्र मोदी की नहीं है, ये समूचे भारतवर्ष की दुविधा है। 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' के उच्चार और अशोक के चक्रवर्ती हो जाने की चाह के बीच ये देश सतत ही बुद्ध और युद्ध के बीच में झूलता रहा है। इस राष्ट्र के पुरुषार्थ पर सदैव ही वसुधैव कुटुंबकम और सहिष्णुता का लेप चढ़ा रहा है। या तो कोई इस लेप को लगातार हमले कर हटा देता है उसमें से शौर्य और आक्रमण का लावा फूट पड़ता है या फिर इस लेप के पुराने पड़ने पर इन दरारों से छटपटा कर कभी वो अशोक बनकर निकलता है तो कभी 1971 बनकर बाहर आता है। लेकिन फिर इस पर बुद्धत्व का लेप चढ़ जाता है।
ऐसा इसलिए भी है इस लेप के नीचे जो पुरुषार्थ है, उसके और नीचे, मूल में - प्राणियों में सद्भाव हो और 'सबै भूमि गोपाल की' का प्राण-तत्व है। बुद्धत्व का लेप दरअसल हमारे उस आत्म-तत्व का पोषण करता है। हमारी आत्मा को सहलाता है। इसीलिए हम उस मूल की तरफ बार-बार उद्यत होते हैं। उसे अंगीकार करना चाहते हैं। कई अपवादों और विरोधाभासों के बीच। इस पर बहुत लंबी बहस भी हो सकती है। उपदेश देकर इसी की आड़ में छुप जाने वाले दब्बू भी बहुत हुए हैं। पर मूल रूप से ये राष्ट्र, इस धरती के लोग इसी युद्धत्व और बुद्धत्व के बीच झूलते रहे हैं।
यही दुविधा आज प्रधानमंत्री के युद्धत्व से बुद्धत्व की ओर मुड़ने की बात कहने से सतह पर आकर और प्रमुखता से प्रकट हुई। आज के समय में यही एक देश के रूप में हमारी सबसे बड़ी चुनौती भी है। कब युद्धत्व हो और कब बुद्धत्व ये एक बड़ी जंग है। राजनीति की भी अपनी भूमिका है। ... पर हम अपने मूल को सहेजते हुए अपने पुरुषार्थ से पीछे नहीं हटें तो ही हम एक देश, एक राष्ट्र के रूप में प्रभावी और मजबूत हो पाएँगे।