पौराणिक ग्रंथों के अनुसार रावण में यह विशेषता थी कि वह संत-महात्माओं का महान पूजक था। इसी संदर्भ में बौद्ध संस्कृत ग्रंथ 'लंकावतार-सूत्र' में रावण के अगाध श्रद्धा के दृष्टांत का वर्णन किया गया है। सातवीं शताब्दी में इस ग्रंथ का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ और यह प्रसंग इसी पर आधारित है।
लंकावतार-सूत्र के प्रथम अध्याय में वर्णन है कि भगवान बुद्ध अपने अनेक अवतारों की परंपरा में एक बार लंकानगरी के निकट मलय पर्वत पर अपने अनेक शिष्यों सहित सहसा अवतीर्ण हुए। उस समय उनके व्यक्तित्व से चमकती हुई अनेक किरणें प्रकट होने लगीं जिसके फलस्वरूप सारा मलय पर्वत चकाचौंध हो गया।
तथागत बुद्ध अपनी ओजस्वी वाणी से धर्मोपदेश देने लगे जो दिग्-दिगांतर में गूंजने लगी। पर्वत के नीचे स्थित लंकानगरी में आसीन यक्षाधिराज रावण ने जब ऐसी अभूतपूर्व चकाचौंध देखी और उसी के साथ दिव्य वाणी सुनी तो वह इस रहस्य को समझ न सका। जिज्ञासावश रावण ने ध्यान लगाया तो देखा कि भगवान बुद्ध मलय पर्वत पर अनेक नाग-कन्याओं के बीच में तथा अनेक शिष्यों से घिरे हुए धर्मोपदेश दे रहे हैं।
ऐसा दिव्य दृश्य देखकर महामति रावण की उत्कट इच्छा हुई कि 'मैं भी भगवान के समक्ष उपस्थित होकर उनके दर्शनों का लाभ लूं और उनसे सादर प्रार्थना करूं कि वे लंकानगरी में पधारें और लंकावासियों का कल्याण करें।' इस सदाशयता से रावण अनेक पुष्पों से सुसज्जित रथ पर यक्ष-कन्याओं एवं दिव्यांगनाओं को लेकर मलय पर्वत की ओर अग्रसर हुआ। वहां पहुंच कर लंकाधिपति रावण ने रथ में बैठे-बैठे ही भगवान बुद्ध की तीन परिक्रमाएं कीं। तब वहां उपस्थित कई संगीतज्ञों ने अपने वाद्य-यंत्रों की अलौकिक धुन से सारा वातावरण संगीतमय बना दिया।
राक्षसराज रावण ने भी इन गायकों के साथ ऋषभ, गांधार, घैवत, निषाद, मध्यम और कैशिक रागों में भगवान बुद्ध की स्तुति की। इन स्तुतियों में लंकाधिपति ने भगवान से अनुरोध किया कि 'मलय पर्वत के ठीक नीचे विशाल समुद्र की विचलित उमड़ती हुई लहरों की तरह इस संसार के प्राणियों के चित्त भी विचलित हैं अतः हे भगवन! आपने जो अपने अंतःकरण में सत्य का पूर्ण रूप से अनुसंधान किया है वही सत्य लंकापुरी में पधारकर हम सभी प्रजाजन को बतलाएं।
तोटक राग में की गई रावण की इस स्तुति से तथागत प्रसन्न होकर अपने आसन से उठे। रावण भी अपने दिव्य रथ से नीचे उतरा और उन्हें बहुमूल्य उपहार देते हुए सादर वंदन किया। दशानन रावण ने भगवान बुद्ध को अपना परिचय देते हुए कहा-
हे महामति! यह मैं आपके समक्ष उपस्थित दशशीर्ष से युक्त, राक्षसों का राजा 'रावण' कहलाता हूं। मैं आपके दिव्य वचनों को सुनकर यहां आपसे प्रार्थना करने आया हूं कि आप लंकापुरी में पधारें और वहां के निवासियों पर अनुग्रह करें। आपके स्वागत-सत्कार के लिए अनेक यक्ष-यक्षिणियां, अनेक राक्षस एवं कुंभकर्ण यहां तत्पर हैं। मैं लंकानगरी का स्वामी रावण जो कुछ भी वैभव लिए हूं, वह सारा वैभव आपको समर्पित है।'
यक्षाधिपति रावण की ऐसी अगाध भक्ति से प्रसन्न होकर तथागत ने कहा कि 'हे राक्षसराज! इस लंकापुरी में पहले भी अनेक बुद्ध प्रकट हुए हैं जिन्होंने बुद्ध धर्म की यहां घोषणा की है और भविष्य में भी करेंगे। मैं तुम्हारी स्तुति से प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारे साथ लंकापुरी अवश्य चलूंगा' ऐसा कहकर भगवान रथ पर आरूढ़ हो गए। आगे-आगे नृत्य- गायन करती हुई अप्सराएं चल रही थीं।
गायक संगीत की ताल और मृदंग की थाप पर विभिन्न राग अलाप रहे थे। समूचा वातावरण सुगंधित द्रव्यों से मादक-सा बन गया था। आकाश से पुष्प वृष्टि हो रही थी। ऐसे सुरम्य परिवेश में तथागत लंकापुरी में अवतरण कर रहे थे। राक्षसराज की नगरी में भगवान के पदार्पण करते ही अनेक यक्ष-सुंदरियां बुद्ध का स्वागत करने भव्यता से आगे बढ़ रही थीं।
स्वागत समारोह की सारी औपचारिकताओं के बाद रावण ने महामति बुद्ध से आसन ग्रहण करने का अनुनय करते हुए सभी को धर्मोपदेश देने का आग्रह किया।
तभी बुद्ध ने एक ऐसा चमत्कार किया जिससे लंकानगरी के चारों ओर अनेक पर्वत प्रकट हो गए। उन पर्वतों पर अनेक रावण, अनेक बुद्ध और प्रजाजन दिखाई देने लगे। तभी तथागत ने अपना प्रवचन प्रारंभ करते हुए मानव को आंतरिक अनुभूति दर्शाने वाले परमार्थ सत्य का प्रतिपादन किया।
अपने लंबे प्रवचन के बाद जब तथागत ने यह जान लिया कि समस्त लंकावासी मेरे प्रवचन से लाभान्वित हो चुके हैं तो वे अकस्मात वायु मार्ग से आकाश में अंतर्ध्यान हो गए तभी रावण और प्रजाजन ने अपने आपको लंकापुरी में स्थित पाया। उन सभी में एक नई चेतना प्रस्फुटित हो चुकी थी, उन्हें प्रत्येक पदार्थ में यथार्थ दिखाई देने लगा। सत्य वस्तु पर मिथ्या आरोपित न हो सका।
बुद्ध की कृपा से अब लंकाधिपति रावण पूर्ण योगी बन चुका था। उसी समय आकाशवाणी हुई। नभोमंडल से रावण को दिव्य स्वर सुनाई दिया- 'ओ लंका के स्वामी! अब तुम पूर्ण योगी बन चुके हो, तुम्हारी हृदय ग्रंथि खुल चुकी है, तुम बुद्ध-पुत्र हो गए हो। भगवान बुद्ध के दिव्योपदेश से हे महामति रावण! अब तुम शुद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए हो।'
ऐसे कई किस्से राम-कथा से संबंधित ग्रंथों में लंकाधिपति रावण का चरित्र एक विद्वान, राजनीतिज्ञ एवं शिव के अनन्य भक्त के रूप में चित्रित किए गए हैं।