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Written By WD

अशुभ का अंत है विजयादशमी

अशुभ का अंत है विजयादशमी -
- डॉ. श्रीराम परिहार

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यह शरद ऋतु है। निर्मलता की ऋतु है। फसलों में दानों के भराव की ऋतु है। नदियों और सरोवरों में ओस भीगी सुबह के मुँह धोने की ऋतु है। यह प्रकृति के कैशोर्य की अवस्था है। यह हरसिंगार के झरने की वेला है। यह खेतों की संपन्नता की घड़ी है।

यह शस्य-श्यामला भूमि के मुस्कराने और इठलाने का समय है। यह खेतों की मे़ड़ों पर काँस के खिलखिलाने का काल है। यह धान्य के रूप में लक्ष्मी के स्वागत की वेला है। यह शक्ति के जागरण और आराधन का समय भी है। यह ऋतु संघर्षों में से विजय को प्राप्त करने का उत्कर्ष पर्व है। यह ऋतु कृष्ण के महारास के समय छिटकी राधा की ही शारदीय आभा है।

विजयादशमी अकेले नहीं आती। इस महादेश के सांस्कृतिक हिमालय और विन्ध्याचल से निकलती, कल-कल करती, तटों को सींचती और अनुष्ठानों को संपन्न करती अनेक सरिताओं की धारा को विजयादशमी का जयघोष तरंगायित करता आता है। लोक, शास्त्र, पुराण और मिथकों के सूत्र इस पर्व से जुड़ते हैं। विजयादशमी रामकथा का उत्कर्ष और चरम तो है ही, यह भारतवर्ष की प्रकृति और लोक की उत्सवावृत्ति का भी गतिमय गीत है। एक विजय गीत है। एक जय गाथा है। उत्सवप्रिया की प्रतीक्षा का आनंद में पर्यावसान है। एक संघर्ष का विराम है। एक अशुभ का अंत है।

एक सत्य की अनगिनत रश्मियों में उतरती ज्योति है। राम कथा मन्दाकिनी है। एक बहती हुई स्रोतस्वनी है। इसमें वानस्पतिक संसार का, लोक का, समय का, देश का बहुस्वादी जल आकर मिला है। हजारों वर्षों पूर्व इस भूमि पर मानव इतिहास की एक अभूतपूर्व और अविस्मरणीय घटना घटी। वह सद् की असद् पर विजय की गाथा बन गई। राम सत्य हैं। इसलिए वे अपराजेय तो हैं ही, उनकी शक्ति भी अमोघ है। राम-रावण का युद्ध सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म के बीच हुआ ऐसा संग्राम है, जिसने सामाजिक संदर्भों को प्रभावित भी किया और उसके अंतस में मूल्यों को स्थापित भी किया।

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राम कथा की मन्दाकिनी में हजारों वर्षों से नित-नया जुड़ता चला गया। जुड़ रहा है। विजय पर्व आज अकेला राम का जयघोष नहीं, वह भारत वर्ष की व्यापकता में समाहित राम का विजय घोष बन गया है। इस देश एवं समाज की व्यापकता में अन्तर्निहित राम से तात्पर्य उस ऊर्जा से है, जो संघर्ष में थकती नहीं। अँधेरे से डरती नहीं। असत्य से हारती नहीं। अपने एकान्त में टूटती नहीं। मौसमी हवाओं से बुझती नहीं विपरीतताओं के आगे झुकती नहीं। जो संघर्ष का उत्तर प्रति संघर्ष से और आराधन का उत्तर दृढ़ आराधन से देना जानती है।

विजय पर्व में यह ऊर्जा कई कोणों से आकर राम कथा की धारा का ही नहीं, बल्कि इस देश की चेतना का या आत्मा का उत्सव रचती है। जब विजयादशमी होती है, तो उस उल्लास में शुम्भ-निशुम्भ को बिदारने का संकल्प-फल भी है। आदिशक्ति का ताली बजा-बजाकर अपने दल के साथ नृत्य भी है। शरद की दूधिया चाँदनी में नहाई राधा और राधा के नेह में भींगते कृष्ण का अनुराग भी है।

झरती हुई शरद ज्योत्सना और ओस से भारी होती रजनी में श्रीकृष्ण और गोपियों के महारास का रस भी है। जीव तथा ब्रह्म के रिश्तों का नेह-छोह भी है। जड़त्व के खिलाफ बीज का अंकुरित होकर नए बीज की सृष्टि की अदम्य जिजीविषा भी है। शाल्य पूजन और महालक्ष्मी की अगवानी की आकुल-आतुरता भी है। और स्वाति नक्षत्र में बरसती बूँद के साथ ही चातक की प्यास की अमरता भी है।
झरती हुई शरद ज्योत्सना और ओस से भारी होती रजनी में श्रीकृष्ण और गोपियों के महारास का रस भी है। जीव तथा ब्रह्म के रिश्तों का नेह-छोह भी है। जड़त्व के खिलाफ बीज का अंकुरित होकर नए बीज की सृष्टि की अदम्य जिजीविषा भी है।
विजयादशमी के संदर्भ न तो एक दिवसीय हैं, और न ही एक देशीय। एक देशीय से तात्पर्य, यह केवल अयोध्या के प्रजातांत्रिक राजतंत्र या केवल भारतवर्ष तक सीमित नहीं हैं। मानवीय मूल्यों की प्रसार क्षमता भूगोल की सीमाओं को तोड़कर भूमंडलीकृत होने की होती है। इन प्रसंगों में विजयादशमी की पीठिका राम जन्म या इसके भी पूर्व से आरंभ होती है। मनुष्यों और देवताओं की मुक्ति की कामना में यह आकांक्षा पल्लवित होती है। राम के नेतृत्व में संपूर्ण भारतीय समाज की एकसूत्रता में यही आकांक्षा गहरी और सघन होती है।

रावण के मरण के साथ ही सारे भारतवर्ष से राक्षसी उपनिवेशवाद की समाप्ति में यह आकांक्षा फलवती होती है। रामराज्य की स्थापना के साथ ही समाज के नवनिर्माण और प्रजातांत्रिक राज व्यवस्था, न्याय व्यवस्था की मूल्य-प्रतिस्थापना के बीज रूप में निःशेष हो जाने में यह आकांक्षा अपने एक यात्रा-चक्र का लक्ष्य पूरा करती है। यह सृष्टि की अनंत-अनंत यात्राओं में त्रेता की एक समुन्नत यात्रा का पूर्णाहुत है। विजयादशमी के सामाजिक संदर्भ वहाँ तक फैले हैं, जहाँ समाज की पंक्ति का अंतिम व्यक्ति खड़ा है।

केवट को राम आवाज देते हैं- नाव किनारे ले आओ, पार जाना है। केवट नाव नहीं लाता है। कहता है कि पहले पाँव धुलवाओ, फिर नाव पर चढ़ाऊँगा। अयोध्या के राजकुमार केवट जैसे सामान्यजन का निहोरा कर रहे हैं। यह समाज की व्यवस्था की अद्भुत घटना है। केवट चाहता है कि वह अयोध्या के राजकुमार को छुए। उनका सान्निध्य प्राप्त करे। उनके साथ नाव में बैठकर अपना खोया हुआ सामाजिक अधिकार प्राप्त करे। अपने संपूर्ण जीवन की मजूरी का फल पा जाए। राम वह सब करते हैं, जैसा केवट चाहता है। उसके श्रम को पूरा मान-सम्मान देते हैं।

उसके स्थान को समाज में ऊँचा करते हैं। राम की संघर्ष और विजय यात्रा में उसके दाय को बड़प्पन देते हैं। त्रेता के संपूर्ण समाज में केवट की प्रतिष्ठा करते हैं। केवट राम राज्य का प्रथम नागरिक बन जाता है। राम त्रेता युग की संपूर्ण समाज व्यवस्था के केंद्र में हैं, इसे सिद्ध करने की जरूरत नहीं है। प्रत्येक की निगाह में राम आतुरता की तरह बसे हैं। प्रत्येक की सत्यकांक्षा की वे तृप्ति बन गए हैं। वे सबका भरोसा बन जाते हैं। यह बहुत बड़ी बात है कि राम उन सबके भरोसे रक्षा करते हैं।

ऋषि मतंग ने शबरी से एक अपेक्षित घड़ी में कह दिया कि राम तुम्हारी कुटिया में आएँगे। ऋषि ने शबरी की श्रद्धा और सबूरी की परख करके यह भविष्य वाक्य कहा। शबरी एक भरोसे लेकर जीती रही। वह बूढ़ी हो गई, परंतु उसने आतुरता को बूढ़ा नहीं होने दिया। वन-फलों की अनगिनत टोकरियाँ भरी और औंधी की। पथ बुहारती रही। राह निहारती रही। प्रतीक्षा में शबरी स्वयं प्रतीक्षा का प्रतिमान हो जाती है।

शबरी की प्रतीक्षा के प्रतिमान की रक्षा करने राम शबरी की झोपड़ी में जाते हैं। भीलनी को सामाजिकता की मूलधारा में ले आते हैं। उसके झूठे बेर खाकर राम ने एक वनवासिन का मन ही नहीं रखा, बल्कि उसे पारिवारिकता दी। अपने प्रियजन और परिवारजन का झूठा खाने में संकोच नहीं होता। राम इस अर्थ में तमाम सामाजिक संकीर्णताओं को तोड़ते हुए मानव समाज की पुनर्रचना की नींव रखते हैं।

हनुमान, सुग्रीव, जामवन्त, नल-नील, अंगद आदि से राम का जुड़ाव उनके लक्ष्य को व्यापक करता है। इनमें से कुछ वानर हैं। कुछ भालू हैं। संभवतः वे दोनों ही वनवासी जातियाँ रही हों। न भी हो तो भी वानर और भालू आकृति और प्रकृति से मानव के सर्वाधिक निकट हैं। राम की जय यात्रा के सामाजिक-सूत्रों का विस्तार वानर-भालुओं तक है। अतः राम की जय यात्रा पृथ्वी की जय यात्रा है। पृथ्वी की जातीय स्मृतियों के संदर्भ अलग-अलग दिशाओं से आकर राम में समाहित होते हैं।

असद्वृत्ति की निस्सारता सिद्ध करने के लिए सब सद्वृत्ति के साथ हो जाते हैं, क्योंकि करोड़ों वर्षों की जीव यात्रा का अनुभव कहता है कि किसी एक भाव के प्रबल हो जाने से संतुलन गड़बड़ाता है और एक-सी स्थिति भी सदा-सदा नहीं रहती। रावण का अतिचार ही युग-पुरुष राम को चुनौती देता है। वह चुनौती केवल राम की ही नहीं, सारे पृथ्वीचरों की हो जाती है। राम के साथ केवट, गुह, निषाद, शबरी, आंज्यनेय, कपिपति, रीछपति सब उस चुनौती को स्वीकार करते हैं।
राम की जययात्रा के ध्वजधारी जितने-हनुमान, सुग्रीव, जामवन्त हैं, उतने कहीं गिद्धराज जटायु और संपाती हैं। जो जहाँ है, वह वहाँ से सत्य का समर्थन करते हुए असत्य को ललकार रहा है। जटायु ने दो महत्वपूर्ण कार्य किए, जिससे राम की जय यात्रा की दिशा इंगित होती।
राम के रूप में इस महादेश का महानायक उभरता है। उस महानायक का निर्माण अयोध्या से बाहर आकर अर्थात्‌ राजसत्ता की परिधि से परे व्यापक जन समुदाय और जीव समुदाय के बीच इन सबकी सहभागिता और सखत्व से होता है। जब युग के संदर्भ सृष्टि के प्रतिकूल होते हैं, तो उससे केवल पृथ्वी निवासी ही त्रस्त होते हैं, ऐसा नहीं है। उसके छींटे नभमंडल और जलमंडल पर भी पड़ते हैं।

राम की जययात्रा के ध्वजधारी जितने- हनुमान, सुग्रीव, जामवन्त हैं, उतने कहीं गिद्धराज जटायु और संपाती हैं। जो जहाँ है, वह वहाँ से सत्य का समर्थन करते हुए असत्य को ललकार रहा है। जटायु ने दो महत्वपूर्ण कार्य किए, जिससे राम की जय यात्रा की दिशा इंगित होती है। असत्य के गढ़ की ओर ध्यान केंद्रित होता है। संपाती ने उसे और सुनिश्चितता दी। जटायु ने एक कार्य किया- अपनी समूची सत्ता के साथ असत्य से लड़ते हुए स्त्रीत्व की रक्षा करने का। दूसरा अपने प्राणों को संपूर्ण इच्छा शक्ति के साथ रोककर राम को सीता हरण की खबर देने का। अनाचार के खिलाफ लड़ाई करने के लिए किस दिशा में बढ़ा जाए, यह तो जटायु ही बताता है।

अपने वर्तमान की चुनौती नभचारी भी स्वीकार करते हैं और उससे पार पाने के लिए वे राम के साथ हैं। राम हैं कि जटायु को गोद में उठा लेते हैं। उसके देहत्याग के बाद राम उसकी अंतिम क्रिया अपने हाथों से करते हैं। यह संपूर्ण युग के लिए परिवर्तनकारी उदाहरण बनता है। ये खगसमाजी संदर्भ राम की जय यात्रा की रामराज्य में फलश्रुति के बाद पक्षीराज गरूड़ और कागभुशुण्डी के संवादों में विस्तारित होते हैं।

सुरसा सर्पों की माता है। वह समुद्र में रहती है। पवनपुत्र को ग्रसने का प्रयास करती है, लेकिन असफल होती है। पवनपुत्र उसे मारते नहीं। वह स्वयं कहती है कि वह जिस परीक्षा हेतु यहाँ आई है, उसमें पवनपुत्र को सफल पा रही है। वह आशीष देकर चली जाती है। वहीं तुरंत बाद सिन्धु में रहने वाले निशाचर, जो गगन में उड़ने वाले जीव-जन्तुओं की परछाई को जल में देखकर उन्हें पकड़ लेता है, को हनुमानजी मारकर आगे बढ़ जाते हैं।

युग के संत्रास से मुक्ति के अभियान में सुरसा के बहाने जलचर भी संलग्न हैं, थल, नभ और जल के निवासी एक मन होकर युग पर छाए विद्रुप को दूर करना चाहते हैं। राम का हर प्रयास समूह मन की आकांक्षा की पूर्ति में किया गया प्रयास बन जाता है। इतिहास का परिवर्तनकारी संग्राम बन जाता है।

महात्मा गाँधी के नेतृत्व में ऐसे ही समूह मन की विजय का परिणाम है- भारतवर्ष को 1947 में मिली स्वतंत्रता। राक्षसों के समाज में भी सबके सब रावण के समर्थक नहीं हैं। विभीषण की सात्विकता तो उजागर है। लेकिन कई ऐसे भी हैं जो रावण के प्रभाव या भय से शरीर से तो उसकी तरफ हैं, उसके कार्य को पूरा कर रहे हैं, लेकिन मन-मस्तिष्क से चाहते हैं कि रावण का आतंक समाप्त हो। मंदोदरी, त्रिजटा आदि ऐसी नारी शक्ति हैं, जो लंका जैसे ऐश्वर्य और वैभव के बीच भी सद्-असद् का विवेक नहीं खोती हैं।

पूँजी और सत्ता के प्रभाव के बीच भी सत्य बोलती हैं और भयमुक्त रहती हैं। पदार्थों की चमक के बीच भी मूल्यों को अपनी पोटली से खिसकने नहीं देती। त्रिजटा नाउम्मीद को एक सपना देती है और मन्दोदरी अनीति को सीख भरी चुनौती। ये सब भी अप्रत्यक्ष रूप से असत्य के चरागाह में आग लगाना चाहते हैं। सोने की चमक से पेट की भूख नहीं बुझती। मूल्यहीनता से जीवन को रीढ़ नहीं मिलती। ऋषियों-मुनियों के आश्रमों में जाकर राम उनके चरणों में बैठते हैं। उनके प्रति श्रद्धावनत होते हैं।

ऋषि-मुनि युग के बौद्धिक हैं। जो आश्रमों की प्रयोगशालाओं में सारी विधाओं और सारी कलाओं का उत्कर्ष खोजते हैं। राम उनकी शरण में जाते हैं। उनसे वह कौशल प्राप्त करते हैं, जिससे राक्षसी आयुधों से निपटा जा सके। राम अनेक ऋषि-मुनि से अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करते हैं और स्वयं को रावण के खिलाफ समृद्ध करते चलते हैं।

राम के साथ त्रेता की बुद्धि का सर्वोच्च और श्रेष्ठतम ज्ञान हो जाता है। समूह मन की इच्छा, अपने समय का जल से पतला ज्ञान और तेज हवाओं की क्रियाशक्ति रामत्व बनकर रावणत्व का अंत कर देती है। विजयादशमी के सामाजिक संदर्भ शरद ऋतु की ओस नहाई सुबह के साथ सूर्य स्तवन करने लगते हैं और आज के समय में नए अर्थ पाने की इच्छा आँख खोलने लगती है।