क्यों जाता है सीधे मरीज दवा दुकान पर?
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अखिलेश श्रीराम बिल्लौरे अक्सर अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, पोर्टलों पर यह पढ़ने को मिलता है कि बिना चिकित्सक की सलाह के कोई दवाई नहीं लेनी चाहिए। इनसे मनुष्य के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ता है। तमाम चेतावनियों के बावजूद आम आदमी दवाइयों की दुकान से बिना चिकित्सक की सलाह के दवाई खरीदता रहता है। दवाइयों की दुकानों का व्यवसाय भी इनसे फलता-फूलता है। चिकित्सक ने एक बार पर्ची क्या बना दी, मरीज उसी पर्ची के सहारे जब उसे तकलीफ हुई, दवाई खरीदकर खा लेता है। छोटी-मोटी बीमारी के लिए तो मरीज चिकित्सक के पास जाना भी पसंद नहीं करता और अपने अनुभव या दवाई दुकानदार से पूछकर या अखबारों, टीवी आदि के विज्ञापनों के आधार पर दवाई खरीदकर ग्रहण कर लेता है। ऐसे भी अनेक लोग देखे गए हैं जो किसी और की दवाई स्वयं ग्रहण कर लेते हैं। कोई-कोई तो स्वास्थ्यवर्धक दवाई ऐसे लेते हैं जैसे गोली-बिस्किट खा रहे हों।इन सब बातों से प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्यों मरीज किसी की परवाह किए बगैर ऐसा करता है? वह चिकित्सक के पास जाने में क्यों गुरेज करता है? सीधे दवाई की दुकान पर जाकर क्यों वह मनमर्जी की दवा खरीद लेता है? इन सभी प्रश्नों पर गौर किया जाए और गहराई से सोचा जाए तो बहुत सी बातें सामने आती हैं। इनमें सबसे मुख्य वजह तो यह है कि इस तेजरफ्तार जिंदगी में मनुष्य के पास समय बहुत कम बचा है। वह जल्दी से जल्दी ठीक होना चाहता है। उसे समय पर अपने काम पर उपस्थित होना पड़ता है। इस चक्कर में वह शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए कोई भी खतरनाक कदम उठा लेता है। एक आम हिन्दुस्तानी बहुत भावुक होता है। वह सांसारिक जीवन की तमाम समस्याओं से इतना घिरा रहता है कि उसे सोचने का कुछ अवसर ही नहीं मिल पाता। थोड़ा बहुत इलाज कराने पर मरीज ठीक नहीं होता तो तुरंत वह अन्य विकल्प की तलाश में निकल पड़ता है। किसी ने कहा कि अमुक दवाई से ठीक हो जाएगा या उस पहाड़ी के पीछे बाबा के पास चले जाओ, वे सभी बीमारियों का इलाज मुफ्त में करते हैं। सिरदर्द हो रहा है तो ऐसा कर लो, वैसा कर लो। ये दवा ले लो वह दवा ले लो आदि तमाम तरह की बातें। इस प्रकार आम हिन्दुस्तानी भ्रमित होता रहता है। इन सबके पीछे महत्वपूर्ण कारण है उसकी जेब की ताकत। वह यही सोचता है कि जल्दी से जल्दी ठीक होने और पैसा भी कम लगे इसका कोई उपाय है क्या?
सरकारी अस्पतालों पर से उठता विश्वासयह जगजाहिर है कि सरकारी अस्पतालों में हालत कैसी है। आम आदमी को सरकारी अस्पताल के नाम से कँपकँपी छूटने लगती है। क्योंकि वहाँ जाने के बाद अक्सर देखा गया है कि उसे निराशा ही हाथ लगती है। सर्वप्रथम तो कतिपय सरकारी अस्पतालों में मरीज का सामना गंदगी से होता है। साफ-सफाई के अभाव के चलते अस्पताल में घुसते ही ऐसा लगता है जैसे नर्क में आ गए हों। शासकीय अस्पतालों में नियम-कानून-कायदों का इस प्रकार भय दिखाया जाता है कि मरीज बेचारा ‘बे चारा’ ही बन जाता है। नामी चिकित्सकों की महँगी जाँचकतिपय चिकित्सकों की जाँच फीस इतनी अधिक होती है कि आम आदमी उसे वहन करने में सक्षम नहीं होता। जितनी बार जाँच कराने मरीज जाता है उतनी बार उसे शुल्क देना पड़ता है। साथ ही निजी अस्पतालों में यदि उसे अच्छा उपचार मिल सकता है तो उसे कर्ज लेकर वहाँ का खर्च चुकाना पड़ता है।इसके विपरीत आम आदमी को दवा दुकानों पर बिना अतिरिक्त खर्च किए दवा मिल जाती है तात्कालिक लाभ मिलने पर वह भविष्य की चिंता करना छोड़ देता है। हालाँकि कुछ दुकानदार कोई गंभीर दवा बिना चिकित्सक की ताजा पर्ची के नहीं देते फिर भी मरीज दबाव डालता है।चिकित्सा शिक्षा का महँगी होना चिकित्सक की फीस इतनी महँगी इसलिए होती है कि उसे चिकित्सक बनने के पूर्व लाखों रुपए खर्च करने पड़ने पड़ते हैं। उसे अपना करियर सँवारने के लिए अनेक कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। इतना खर्च और त्याग करने के बाद वह तो निश्चित रूप से चाहेगा कि मुझे अधिक से अधिक मेहनताना मिले और पढ़ाई के ऊपर किया गया खर्च जल्दी से जल्दी पूरा हो। उसका अपना भी परिवार होता है। माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-बच्चे, उसे इन सबका भी ध्यान रखना होता है।...
तो फिर क्या होना चाहिएसंबंधित प्रशासन को इन बातों पर अच्छी तरह विचार करके व्यवस्था सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। चिकित्सा शिक्षा देश में बहुत महँगी है। शासकीय केंद्रों के अलावा निजी केंद्रों में शिक्षा ग्रहण करने वालों को डिग्री लेने के बाद रोजगार के अवसर मिलने और स्थापित होने में काफी वक्त लग जाता है। इसलिए अधिक से अधिक शासकीय शिक्षा केंद्र खोले जाने और अवसर दिए जाने की आवश्यकता है।