निरंतर ध्यान दिलाता है तृप्तता !
मिथ्याभ्रम से आता है नकारात्मक भाव
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श्रीश्री रवि शंकर ध्यान दो प्रकार से सहायता करता है- यह तनाव को तुम्हारे अंदर प्रवेश करने से रोकता है और साथ ही साथ यह पहले से इकट्ठा हुए तनाव को मुक्त करता है। निरंतर ध्यान, प्रसन्नता और तृप्तता की तरफ भी ले जाता है और, मस्तिष्क संबंधी तंत्रों को और सचेतन बनाता है तथा अंतर्ज्ञान की तरफ ले जाता है। (अर्थात् देखने, स्वाद लेने, स्पर्श आदि के अनुभव को और अधिक गहन बनाता है)हमारे दैनिक जीवन में ध्यान को आत्मसात करने के साथ ही चेतना की पांचवी अवस्था, जिसे लौकिक चेतना कहते हैं, उदय होती है। संपूर्ण ब्रह्मांड को स्वयं के एक अंश की तरह बोध करना लौकिक चेतना है। जब हम विश्व को अपने अंश की तरह से बोध करते हैं तो हमारे और विश्व के बीच में तीव्र गति से प्रेम का संचार होता है।पुनः प्रेम एक भावना नहीं है बल्कि यह एक स्थिति है। यह प्रेमी पात्रों द्वारा प्रस्तुत किया गया एक भावनात्मक नाटक नहीं होता है बल्कि हमारी अपनी प्रकृति होती है। यह प्रेम, हमें विरोधात्मक शक्तियों तथा जीवन के झंझावातों को वहन करने की क्षमता प्रदान करता है। क्रोध तथा निराशा, क्षण भंगुर भावनाएँ हो जाती हैं जो क्षणभर के लिए आती हैं और फिर लुप्त हो जाती हैं। वे रुकती नहीं हैं।सामान्यतः हमारी यह प्रवृत्ति होती है कि हम सुखद अनुभवों को तो भुला देते हैं और दुखद अनुभवों से चिपके रहते हैं-विश्व की 99 प्रतिशत जनसंख्या यही करने की आदी है लेकिन जब हमारी चेतना ध्यान के द्वारा सुसंस्कृत होकर मुक्त हो जाती है, तो नकारात्मक भावनाओं को पकड़े रहने की हमारी यह प्रवृत्ति सबसे पहले समाप्त होती है। हम 'इस क्षण' में जीवित रहना प्रारंभ कर देते हैं और भूतकाल को भूलने लगते हैं। यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम जिन व्यक्तियों से संपर्क करते हैं वे कितने भी अच्छे क्यों न हों, प्रत्येक संबंधों में मिथ्याभ्रम होना अवश्यंभावी है। एक बार जब मिथ्याभ्रम उत्पन्न हो जाता है, हमारी भावनाएँ विकृत हो जाती हैं और नकारात्मकताएँ प्रवाहित होने लगती हैं।लेकिन जब हम इसे भूलने में सक्षम हो जाते हैं और चेतना की योग्यता को प्रत्येक क्षण की गरिमा में आनंदोत्सव मनाने के लिए केंद्रित करते हैं तो हमें उपर्युक्त सभी बातों से एक कवच के रूप में सुरक्षा मिल जाती है। हमारे अंदर इस सत्य का उदय हो जाता है, कि प्रत्येक क्षण हमें आश्रय प्रदान करता है और हमारे विकास में सहायता देता है। इस प्रकार चेतना की उच्चतर अवस्था को प्राप्त करने के लिए किसी गूढ़ योजना को बनाने की आवश्यकता नहीं होती है, उसे यह सीखने की आवश्यकता है कि भूतकाल भुला दिया जाए।चेतना की उच्चतर अवस्था प्राप्त व्यक्ति से यह अपेक्षा होती है कि वह सभी कुछ जानता है। लेकिन जब मन और चेतना 'सब कुछ' जानने की योग्यता रखता है तो क्या यह आवश्यक है कि वास्तव में उन्हें 'सब कुछ' जानने की आवश्यकता है। 'सबकुछ जानना' का सरल तात्पर्य यह है कि जो कुछ तुम जानते हो उसके सार तत्व से सजग रहो। इस स्थिति में ज्ञान और अज्ञान साथ-साथ रहते हैं और एक-दूसरे के पूरक रहते हैं। उदाहरण के लिए, कोई भी खेल खेलते समय परिणाम को पहले से न जानना खेल को आनंददायक और यथार्थ बनाता है। यदि, खेलते समय ही परिणाम मालूम हो गया तो खिलाड़ी और खेल दोनों का आवेग समाप्त हो जाएगा। उसी प्रकार यदि तुम्हें इस बात का ज्ञान हो जाए कि कोई मित्र तुम्हें 10 वर्षों के समय में नीचा दिखाने वाला है तो उस व्यक्ति के साथ तुम्हारे संबंध अभी से प्रभावित हो जाएँगे।यदि जीवन में सभी कुछ सहजता से और योजनाबद्ध तरीके से होता है तो जीवन आनंददायक नहीं रह जाएगा। किसी भी कहानी का आनंद इसके संशय में होता है। और इस जीवन का सबसे बड़ा व्यापार क्या है? केवल 60 या 80 वर्ष? यह कुछ नहीं है। तुम इस तरह से कितनी बार इस संसार में आते रहे हो, बहुत से शरीरों में रहे हो, बहुत से कार्य तुमने किए हैं। जीवन नगण्य है। जब तुम्हें इस बात का अनुभव होगा तो यहाँ-वहाँ की छोटी बातें तुमको व्यथित नहीं करेंगी। जीवन का प्रत्येक उतार-चढ़ाव जीवन के इस खेल को अधिक रुचिकर बनाती है। जब तुम किसी विशेष क्षण की चेतना से अपने को अंगीकृत करते हो तो तुम्हें प्रत्येक क्षण में इस ब्रह्मांड में अगणित क्रियाकलापों के घटित होने का बोध होता है। जैसे- लोग जाग रहे हैं, सो रहे हैं, सोने की तैयारी कर रहे हैं, ड्राइविंग कर रहे हैं, कार्य कर रहे हैं, मुर्गियाँ अंडे दे रही हैं, मेंढक टर्र-टर्र कर रहे हैं, वायरस और बैक्टीरिया लोगों के अंदर प्रवेश कर रहे हैं, इस अनंत सृष्टि में उस क्षण में दसों अरब घटनाएँ घटित हो रही हैं और फिर भी चेतना सभी कुछ जानती है। अंतरतम की गहराइयों में प्रत्येक व्यक्ति इस संसार के बारे में सबकुछ जानता है। यह ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के अंदर है। तुम इन संपूर्ण घटनाओं का एक अंश हो।