जेटली और मल्होत्रा खेमे का द्वंद्व
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वेबदुनिया डेस्क दिल्ली और राजस्थान में भाजपा की हार से उपजी तनातनी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है और हार के लिए पार्टी का एक खेमा दूसरे को दोषी ठहरा रहा है। दिल्ली में पार्टी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली के समर्थक खेमे का कहना है कि राजधानी में हार के लिए विजय कुमार मल्होत्रा और उनके समर्थक हैं।जेटली के समर्थकों का कहना है कि जेटली, राजनाथसिंह और रामलाल खेमे मानते थे कि विजय गोयल को मुख्यमंत्री का प्रत्याशी घोषित किया जाए, जबकि सुषमा स्वराज का खेमा हर्षर्धन को मुख्यमंत्री घोषित करने के पक्ष में था। पर इस मामले में विजयकुमार मल्होत्रा की चली क्योंकि उन्होंने पार्टी के सबसे बड़े नेता, लालकृष्ण आडवाणी का समर्थन भी हासिल कर लिया था। जेटली समर्थकों का कहना है कि वे कहते रहे कि दिल्ली की जनता को न तो मल्होत्रा और न ही हर्षबर्धन प्रभावित करेंगे और इस बात के स्पष्ट संकेत भी मिल रहे थे। जेटली समर्थक यह भी चाहते थे कि पार्टी के सिटिंग विधायकों को टिकट न दिया जाए, लेकिन मल्होत्रा ऐसे विधायकों को दोबारा टिकट देने के पक्ष में थे।इस घमासान का यह असर हुआ है कि पार्टी बढ़त लेने के लिए उत्तरप्रदेश से प्रत्याशी घोषित करने जा रही थी, लेकिन अब इस पर अनिश्चित काल तक रोक लगा दी गई है। राज्य की 80 लोकसभा सीटों के लिए पार्टी ने 11 प्रत्याशियों का चयन कर लिया था और विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद शेष प्रत्याशियों के नाम घोषित किए जाने थे, लेकिन ऐसा नहीं किया जा सका। पार्टी में इस बात को लेकर भी भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि 20 से 30 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों को किस तरह पार्टी के प्रति आकर्षित किया जाए। पार्टी में इस बात पर भी विचार किया जा रहा है कि किस तरह अस्सी वर्षीय बूढ़े आडवाणी को युवा और पहली बार वोट डालने जा रहे मतदाताओं के लिए आकर्षक बनाया जाए। पार्टी के एक वर्ग का यह भी मानना है कि आतंकवाद के मुद्दे पर सकारात्मक प्रचार किया जाए और इस मामले से जुड़ी अपनी नीतियाँ घोषित की जाएँ और इस मुद्दे को धार्मिक आधार पर न उठाया जाए। समझा जाता है कि आडवाणी खुद पार्टी की खेमेबाजी से चिंतित हैं और वे शीर्ष नेताओं से कह रहे हैं कि वे अपने मतभेदों को भुला दें ताकि आम चुनावों में पार्टी की जीत सुनिश्चित की जा सके। सोमवार की रात संसदीय बोर्ड की बैठक में पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी का कहना था कि प्रत्याशी के चयन के मामले में जीतने की क्षमता को ही ध्यान में रखा जाए, जबकि नेताओं या गुटों के प्रति निष्ठा को नकारा जाए।