दिल्ली विधानसभा का तीसरा चुनाव नवंबर 1998 में हुआ। उस समय तक राष्ट्रीय राजनीति का परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका था। 1996 के आम चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारकर सत्ता से बाहर हो चुकी थी। देश गठबंधन राजनीति के युग में प्रवेश कर चुका था। गैर भाजपा विपक्षी दलों के संयुक्त मोर्चा की दो अल्पकालिक सरकारें देश देख चुका था और फरवरी 1998 में हुए मध्यावधि चुनाव में भाजपा की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एनडीए की सरकार केंद्र में बन चुकी थी।
उसी सरकार में मंत्री सुषमा स्वराज से इस्तीफा दिलाकर भाजपा ने उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव के ऐन पहले दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया था। दूसरी तरफ केंद्र की सत्ता से बाहर हो चुकी कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व भी पीवी नरसिंहराव के हाथ से निकलकर सीताराम केसरी के पास होता हुआ फिर से गांधी-नेहरू परिवार के हाथों में आ चुका था और सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष बन चुकी थीं।
इसी पृष्ठभूमि में हुआ था दिल्ली विधानसभा का तीसरा चुनाव। भाजपा ने यह चुनाव सुषमा स्वराज के चेहरे पर लड़ा जबकि कांग्रेस ने इस बार भी मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर किसी नेता का चेहरा पेश नहीं किया। चूंकि शीला दीक्षित दिल्ली प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष थीं, इसलिए चुनाव में एक तरह से वे ही कांग्रेस की अगुवाई कर रही थीं। उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का पूरा भरोसा हासिल था।
भारी भरकम बहुमत के साथ 5 साल तक सरकार चलाने के बावजूद भाजपा के खाते में ऐसी कोई उपलब्धि या बड़ा काम नहीं था जिसके आधार वह वोट मांग सके। संगठन के स्तर पर भी वह बुरी तरह बंटी हुई थी। मदनलाल खुराना दोबारा मुख्यमंत्री न बनाए जाने से क्षुब्ध थे तो साहिब सिंह वर्मा मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने से अपने को अपमानित महसूस कर रहे थे, जबकि विजय कुमार मल्होत्रा को इस बात का मलाल था कि पार्टी ने उनकी वरिष्ठता को नजरअंदाज करते हुए उन्हें मुख्यमंत्री पद के योग्य नहीं माना। तीनों दिग्गज पूरे चुनाव अभियान के दौरान खिंचे-खिंचे रहे और तीनों ने अपनी सक्रियता को सिर्फ अपने समर्थक उम्मीदवारों के चुनाव क्षेत्रों तक ही सीमित रखा।
दूसरी ओर कांग्रेस ने भी पांच साल विपक्ष में रहते हुए ऐसा कुछ नहीं किया था, जिसके आधार पर लोग उससे अपना जुड़ाव महसूस करें या वह लोगों से वोट मांग सके। उसके पास बताने को सिर्फ भाजपा की नाकामियां ही थीं। दिल्ली के लोग बिजली और प्याज के संकट से बुरी तरह जूझ रहे थे। यह संकट ही कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा मुद्दा था।
लोग भाजपा सरकार में नेतृत्व के स्तर पर पूरे 5 साल तक मची रही अफरातफरी और कामकाज के मामले में मची अराजकता से ऊब चुके थे। सरकार के प्रति जनता के गुस्से और ऊब का नतीजा यह निकला कि यह चुनाव करीब-करीब एकतरफा ही रहा। कुल मिलाकर मतदान भी काफी कम हुआ और सिर्फ 48.99 फीसद लोगों ने ही वोट डाले। इस चुनाव में दिल्ली में कुल 4851199 मतदाता थे। 70 सीटों पर कुल 815 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे, जिनमें से 669 की जमानत जब्त हो गई थी।
दिल्ली के जिन लोगों ने महज 9 महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को 7 में से 6 सीटों पर जिताया था, उन्हीं लोगों ने नौ महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को धूल चटा दी। उसे अनसोची शर्मनाक हार का सामना करना पडा। कांग्रेस ने 70 में से 52 सीटें जीत कर जोरदार जीत दर्ज की। जो शीला दीक्षित छह महीने पहले पूर्वी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव में भाजपा के लाल बिहारी तिवारी से हार गई थीं, उन्हें भी नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतने में कोई खास परेशानी नहीं हुई। भाजपा महज 15 सीटों पर सिमट गई। एक सीट जनता दल को मिली और दो सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवार जीते।
भाजपा की ओर से जीतने वाले उम्मीदवारों में मुख्यमंत्री स्वराज भी थीं जो हौजखास विधानसभा क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतरी थीं। दिल्ली में भाजपा के हारने के बाद उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने फिर से अपनी सरकार में मंत्री बना दिया था, लिहाजा उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उनके इस्तीफे से हुए उपचुनाव में कांग्रेस की किरण वालिया ने जीत दर्ज की, जिससे विधानसभा में भाजपा की एक सीट और कम हो गई और कांग्रेस की 53 सीटें हो गईं।
चुनाव नतीजे आने के बाद शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार बनी। कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार थे और वे शीला दीक्षित को बाहरी मानते थे। ऐसे सभी दावेदारों का खिन्न होना स्वाभाविक था। लेकिन आखिरकार सबके सामने कांग्रेस आलाकमान का फैसला स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इस प्रकार दिल्ली को शीला दीक्षित के रूप में लगातार दूसरी महिला मुख्यमंत्री मिलीं।
शीला दीक्षित सरकार के इस कार्यकाल में दिल्ली का चेहरा बदलना शुरू हुआ। आज दिल्ली की जीवनरेखा मानी जाने दिल्ली मैट्रो परियोजना इसी कार्यकाल में शुरू हुई थी और दिल्ली की सड़कों पर फ्लाई ओवर का जाल बिछना भी शीला दीक्षित के इसी कार्यकाल मे शुरू हुआ था। इन्हीं कामों की निरंतरता के बूते कांग्रेस ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में लगातार 15 वर्षों दिल्ली का शासन चलाया।
दूसरी ओर भाजपा के लिए इस चुनाव में शुरू हुआ हार का सिलसिला न सिर्फ 2003 में भी जारी रहा बल्कि उसके बाद अभी तक हुए सभी चुनाव में अटूट रहा है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)