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Written By ND

यह विकास नहीं, कुविकास है

यह विकास नहीं, कुविकास है -
- विष्णुदत्त नागर

विभिन्न परिस्थितियों से जुड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भों के मूल में यदि जाएँ तो एक प्रमुख यथार्थ स्पष्ट रूप से नजर आता है कि विकास, सामाजिक न्याय, बाजार की शक्तियों को प्रभावित करने वाले लक्ष्यों के बारे में भ्रम है, अनिश्चितता है।

इसी भटकाव के कारण किसी भी रास्ते पर चला जाए या व्यवस्था को
  आजादी के बाद प्रथम तीन दशकों में विकास दर औसतन 3.5 प्रतिशत रही, अस्सी के दशक में 3 प्रतिशत रही और नब्बे के दशक में प्रतिवर्ष 5.4 प्रतिशत रही है। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम सात वर्षों में विकास दर 6.9 प्रतिशत रही और प्रति व्यक्ति आय 5 प्रतिशत बढ़ी      
अपनाया जाए तो न तो आर्थिक समस्याओं का ही स्थायी हल होता है और न ही बाजार के बाहर रहने वाले वंचित वर्ग बाजार में प्रवेश कर पाते हैं। ऐसी लक्ष्यविहीनता और गलत नीतियों का नतीजा यह हुआ है कि पुरानी परिभाषाएँ, मुहावरे और नियम-सभी अप्रासंगिक हो गए हैं और नई विकृतियाँ उभरकर बाजार में आई हैं।

राष्ट्रीय आय को ही लें, जो किसी भी अर्थ में सारे राष्ट्र की सारी आमदनी नहीं है। इस पर कुछ ही लोगों की आय, संपत्ति और श्रम शक्ति का पृथक-पृथक एकछत्र अधिकार होता है। जिन अर्थों में राष्ट्र्रीय झंडा, राष्ट्र्रीय गान, राष्ट्रीय संविधान, राष्ट्रीय संस्कृति समूचे रूप में राष्ट्रीय है, उन अर्थों में राष्ट्रीय कही जानी वाली यह आमदनी सब नागरिकों की या पूरे राष्ट्र्र की नहीं कही जा सकती। चाहे कृषि क्षेत्र हो या उद्योग अथवा सेवा क्षेत्र से जुटाई गई राष्ट्रीय आय हो, उसको अर्जित करने में मुख्यतः एक-तिहाई कार्यशील जनसंख्या का ही योगदान है, दो-तिहाई आश्रित रहने वालों का नहीं।

इसी प्रकार- कानून, बाजार के नियम और अर्थव्यवस्था के आधार पर राष्ट्रीय आय का वितरण सभी के हाथों में नहीं होता। देश की इकहत्तर प्रतिशत भूमि लगभग चौबीस प्रतिशत भू-स्वामियों के पास है और शेष उनतीस प्रतिशत भूमि छिहत्तर प्रतिशत लोगों के पास। यही स्थिति औद्योगिक जगत की है, जहाँ लगभग डेढ़ सोै घरानों के पास आधी से ज्यादा औद्योगिक परिसम्पत्तियाँ और उत्पादन पर अधिकार है।

यह भी दावा कि राष्ट्रीय आमदनी में वृद्धि के साथ देशवासियों की भलाई और भौतिक कल्याण में वृद्धि होती है, सदैव सही और आवश्यक नहीं होता। आजादी के बाद प्रथम तीन दशकों में विकास दर औसतन 3.5 प्रतिशत रही, अस्सी के दशक में 3 प्रतिशत रही और नब्बे के दशक में प्रतिवर्ष 5.4 प्रतिशत रही है। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम सात वर्षों में विकास दर 6.9 प्रतिशत रही और प्रति व्यक्ति आय 5 प्रतिशत बढ़ी।

लेकिन विकास दर बढ़ने से न तो गरीबी घटी और न बेरोजगारी ही दूर हुई, बल्कि सरकारी आँकड़े ही बताते हैं कि पिछले तीस वर्षों में औद्योगिक उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन रोजगार वृद्धि की दर घटी, क्योंकि औद्योगिक प्रगति का आधार ही पूँजी प्रधान तकनीक थी।

राष्ट्रीय आय या प्रति व्यक्ति आय को विकास का प्रतीक बताना बहुत बड़ा सैद्धांतिक षड्यंत्र है जिसके जरिए कुछ ही लोगों की खुशहाली और कल्याण को 'बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय' का प्रतिरूप बनाकर पेश किया जाता है। सच्चाई यह है कि राष्ट्र्रीय आय में वृद्धि कुछ विशेष परिस्थितियों में और कुछ पूर्व शर्तों के आधार पर ही राष्ट्र्रीय कल्याण में वृद्धि की परिचायक हो सकती है।

आँकड़ों के सहारे भ्रामक और मिथ्या उपचार करना तथा गहरी मनोवैज्ञानिक
  कैसी विचित्र स्थिति है कि शराब की दुकानें खुलने से राष्ट्रीय आय बढ़ती है। विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादकों के मुनाफे का बढ़ना और रोजगार में कमी विकास के मानदंड नहीं हो सकते      
चालों के आधार पर मनमाने नियमों का बनाना आज की व्यवस्था का विशेष गुण है। आँकड़ों का एक खास अर्थ और उद्देश्य होता है और उनसे विशेष निष्कर्ष निकलते हैं, लेकिन ये एक दुधारी तलवार की तरह होते हैं जिन्हें एकत्रित करने, पेश करने और इस्तेमाल करने में विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है।

दीर्घकालिक या अंतिम आँकड़ों की तुलना अल्पकालिक या असत्य आँकड़ों से नहीं की जा सकती। मुद्रास्फीति के घटने से कीमतों का घटना या बढ़ना प्रतिबंधित नहीं होता। मुद्रास्फीति के आँकड़ों के पीछे एक खतरनाक अवधारणा का छद्म रूप छिपा हुआ है, जो जनसाधारण को भ्रमित करता है।

आम आदमी को मुद्रास्फीति की दर में गिरावट से यह आभास होने लगता है कि कीमतों के स्तर में गिरावट आई। लेकिन सच्चाई यह है कि कीमतों में बढ़त बदस्तूर जारी रहती है, लेकिन वह पिछले सप्ताह से या पिछले वर्ष से कम तेजी से बढ़ी है। आँकड़ों के पीछे छिपी सच्चाई की इस कलई को खोलने की नितांत आवश्यकता है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय आय में हर वृद्धि विकास का लक्षण नहीं हो सकती, यह कुविकास है। उदाहरणार्थ नई-नई विलासिता-वस्तुओं, महँगी कारें, शराब, पर्यावरण को प्रदूषित करने वाली चीजों का उत्पादन बढ़ाने को विकास से विभूषित नहीं किया जा सकता। कैसी विचित्र स्थिति है कि शराब की दुकानें खुलने से राष्ट्रीय आय बढ़ती है। विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादकों के मुनाफे का बढ़ना और रोजगार में कमी विकास के मानदंड नहीं हो सकते।

क्या देश में बेरोजगारी होते हुए विदेश से माल मँगाकर उनका उपयोग करना सही है। आज देश में हो रहे उत्पादन की अपेक्षा 120 फीसदी ज्यादा माल बाहर से मँगाने के कारण हमारा बाजार बाहर जा रहा है और बाहर के लोगों का रोजगार बढ़ रहा है। देश की ब्लू चिप कंपनियों के 4.5 प्रतिशत शेयर छोटे निवेशकों के पास हैं।

इनके ज्यादातर शेयर विदेशी संस्थागत निवेशक एफआईआई के पास हैं जिनकी वजह से शेयर बाजार में उथल-पुथल हो रही है। स्टील व सीमेंट की कीमतें बढ़ती रही हैं और निहित स्वार्थों के गठजोड़ को देखते हुए सरकार मिन्नतें कर रही है कि दाम नीचे कर लो, लेकिन उत्पादक टस से मस नहीं हुए यह अपविकास है।

पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय खाद्यान्न नीति शोध संस्थान ने भारत की 8.5 प्रतिशत की विकास दर और आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर होने के संदर्भ में भारत को सावधान किया है कि भोजन के मामले में अब भी वह दुनिया के सबसे कम विकसित देशों की कतार में खड़ा है। विश्व भुखमरी सूचकांक 2007 के अनुसार भारत ने भले 1990 के सूचकांक के अपना स्कोर 33.731 से घटाकर उसे 25.03 तक जरूर पहुँचा दिया, लेकिन 180 देशों की सूची में वह 94वें स्थान पर है जबकि चीन 47 और पाकिस्तान 88वें स्थान पर है।

यदि देश के नेशनल सेम्पल सर्वे की ही बात मानें तो असम, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा ऐसे तीन राज्य हैं, जहाँ भूखे सोने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। देश में एक-तिहाई आबादी भरपेट भोजन से महरूम है। ऐसी स्थिति में जहाँ एक-तिहाई नागरिकों को आत्मा और शरीर से संघर्ष करते हुए जीना पड़े, विकास नहीं कहा जा सकता, यह विकास के बजाए अपविकास या कुविकास है।

कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस ने गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे लोगों को रंगीन टीवी देने का वादा किया, वह भी उन लोगों से जिनका कैलोरी उपभोग देश में निम्नतम 1845 कैलोरी है। संभवतः रंगीन टीवी में ही फास्ट फूड के विज्ञापन देखकर ही वे अपनी भूख शांत कर लें। यह सकारात्मक पक्ष नहीं, मूल्यों के क्षरण का नकारात्मक स्वरूप है।
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं।)