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'अखंड भारत' : 'अलगाव' और 'एकता' के विभ्रम

'अखंड भारत' : 'अलगाव' और 'एकता' के विभ्रम - United India, Spain, K, separatism, Ram Madhav,  Islamic State
- सुशोभित शक्तावत
 
कार्लेस पुगदेमों स्पेन के कातालोनिया प्रांत के नए प्रेसिडेंट बने हैं। तो क्या हुआ? यक़ीनन, इसमें कोई ख़ास बात नहीं, सिवाय इसके कि कार्लेस भीषण अलगाववादी हैं और वे चाहते हैं कि स्कॉटलैंड रेफ़रेंडम की तर्ज पर कातालोनिया भी जल्द ही जनमत सर्वेक्षण की राह पर चले और बार्सीलोना एक नए राष्ट्र की राजधानी बने।
(इसको थोड़ा पर्सपेक्टिव में समझते हैं। कातालोनिया की सबसे अच्छी फुटबॉल टीम का नाम है एफसी बार्सीलोना। शेष स्‍पेन की सबसे अच्छी टीम है रीयल मैड्रिड। जब भी इन दोनों टीमों के बीच मैच होते हैं तो वैसी ही कड़ी प्रतिस्पर्धा देखी जाती है, जैसी कि भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैचों में होती है। रीयल-बार्सा टकरावों को एल क्लैसिको कहा जाता है और यह दुनिया का सबसे ज्यादा देखा जाने वाला स्पोर्टिंग इवेंट है। बार्सीलोना का पक्ष लेने वाले मैड्रिडियन को 'देशद्रोही' (ट्रेटर) तक कह दिया जाता है एंड वाइसे वर्सा, जबकि वो एक ही देश है, स्‍पेन!)
 
क्षेत्रीय और अलगाववादी आकांक्षाओं की यह एक बानगी भर है। हर यूके में एक स्कॉटलैंड है, हर भारत में एक कश्मीर। हर स्पेन में कातालोनिया है, हर श्रीलंका में जाफ़ना। और हर यूनाइटेड स्टेओट्स में गृहयुद्धों का डीप साउथ बसा हुआ है : मिसिसिपी, टेनसी, केंटकी।
 
अखंड क्या होता है? विखंडन के क्या मायने हैं?
 
जर्मनी और ऑस्ट्रिया दो पृथक राष्‍ट्र हैं, लेकिन दोनों में जर्मन भाषा बोली जाती है, दोनों ही जर्मन भावनाओं से ओतप्रोत हैं। पहले जर्मन रायख़ यानी होली रोमन एम्‍पायर की गद्दी तो वियना में थी, बर्लिन में नहीं। ओटो वॉन बिस्‍मार्क ने इसी भावना के चलते 1871 में जर्मनी का एकीकरण किया। 
 
इसी का हवाला देकर नात्सियों ने 1938 में ऑस्ट्रिया को जर्मनी में मिला लिया था। विलियम शिरेर के स्‍मरणीय शब्‍दों में, 'वियना हैड बिकम जस्‍ट अनादर जर्मन सिटी इन द थर्ड रायख़।' इसकी तुलना में तो जर्मनी के दक्षिण में स्थित प्रांत बवेरिया उससे कहीं भिन्‍न है। बवेरियाई ख़ुद को जर्मन तक नहीं मानते। यानी दो भिन्‍न राष्‍ट्रों में भी ऐक्‍य हो सकता है और एक ही राष्‍ट्र के भीतर भी वैभिन्‍न्‍य हो सकता है।
 
यही कारण है कि हाल ही में भाजपा महासचिव राम माधव ने जब एक ऐसे 'अखंड भारत' की बात कही, जिसमें भारत-पाक-बंगदेश एक हों, (क्योंकि वे 47 के पहले भी एक थे) तो शायद एकता और अलगाव के तर्कों के आधार पर वे एक निराधार बात कर रहे थे, क्योंकि एकता और अलगाव के कोई सुनिश्चित तर्क होते ही नहीं हैं!
 
राम माधव ने कहा, जब दो जर्मनी और दो वियतनाम एक हो सकते हैं तो भारत-पाक क्यों नहीं? उन्होंने यह नहीं कहा कि आखिर सोवियत संघ क्यों टूटकर बिखर गया। सोवियत संघ टूटा और पंद्रह नए राष्ट्र अस्तित्व में आए!

लेकिन सवाल तो यही उठता है कि आखिर तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान और अज़रबैजान इन द फ़र्स्ट प्लेस सोवियत संघ में क्या कर रहे थे? कहां तो पूर्वी यूरोप में वर्चस्व की भावनाओं से ओतप्रोत मॉस्को-पीटर्सबर्ग, कहां मध्य एशिया के ये मुल्क। ये तो जियो-पॉलिटिकल दृष्टि से भी एक भारी विडंबना थी। द ग्रेट यूटोपियन यूनियन को तो बिखरना ही था।
 
माधव ने यह भी नहीं बताया कि आखिर यूगोस्लाविया क्यों टूट गया? याद रहे, यूगोस्लाविया सर्ब्स, क्रोएट्स, स्लोवेन्स राजसत्ताओं के एक परिसंघ के रूप में बना था, जब वह टूटा तो सर्बिया, क्रोएशिया, स्लोवेनिया के रूप में नए राष्‍ट्र तो बने ही, मोंटेनीग्रो, मकदूनिया और बोस्निया-हर्जेगोविना भी अस्तित्व में आ गए। टूटन की प्रक्रिया और तीक्ष्ण साबित हुई। वियतनाम और जर्मनी में यदि नस्ली और भाषाई ऐक्य था तो वह तो कोरियाई प्रायद्वीप में भी है, इसके बावजूद उत्तर और दक्षिण मिलने को तैयार नहीं।
 
इन समतुल्यमताओं को और आगे बढ़ाते हैं। मध्य-पूर्व के देशों को एक मोनोलिथिक ढांचे की तरह देखा जाता है, लेकिन ईरान शिया है और सऊदी अरब सुन्नी। इस्लामिक स्टेट का उभार एक जिहादी आंदोलन नहीं बल्कि शिया-सुन्नी टकरावों का परिणाम है।

इस्लामिक स्टेट को खिलाफ़त कहा जाता है, लेकिन कोई भी खिलाफ़त मक्का-मदीना के बिना पूरा नहीं हो सकता। यही कारण है कि सऊदी अरब भी इस्ला‍मिक स्टेट से ख़ाइफ़ रहता है। शिया-सुन्नी में भेद हैं तो सुन्नी-सुन्नी में भी भेद हैं। हम नस्ल, राष्ट्र, मज़हब के नाम पर जुड़ने की ओर बढ़ रहे हैं या टूटने की ओर?
 
ख़ुद भारत-विभाजन की थ्‍योरी बड़ी भ्रामक थी। हिंदुओं से अलग चौका-चूल्‍हा चाहने वालों में अलीगढ़ वालों का बोलबाला था और मुस्लिम लीग का हेडक्‍वार्टर लखनऊ में था। जब देश टूटा तो सिंध, पंजाब, बलूचिस्‍तान का जो हिस्‍सा पाकिस्‍तान में गया, वह तो तुलनात्‍मक रूप से अधिक प्रो-इंडिया था। ज्‍़यादा प्रो-पाकिस्‍तान तो हैदराबाद था, जो भारत में ही रह गया और आज तलक क़ायम है।
 
भारत में आर्य और द्रविड़ प्रांतों के स्‍पष्‍ट विभाजन हैं। उनमें भी अनेक धाराएं-उपधाराएं हैं। पूर्वोत्‍तर को तो हमने कभी मुख्‍यधारा का हिस्‍सा माना नहीं। अगर यह देश टूटा था तो किन तर्कों के आधार पर टूटा था और अगर जुड़ा हुआ है तो किन तर्कों के आधार पर जुड़ा हुआ है? राष्‍ट्रीय भावना एक विचित्र किस्‍म का मिथ है। क्रिकेट एक राष्‍ट्र को जोड़ देता है, राजनीति उसी को तोड़ देती है। राष्‍ट्र एक बड़ी अमूर्त और अपरिभाषेय किस्‍म की चीज़ है। इसे कैसे तय करेंगे?
 
हमारे इतिहास ने हमें संघर्षों की विरासत सौंपी है और विडंबना यही है कि केवल सर्वसत्तावादी और तानाशाही हुकूमतें ही किसी मुल्क को एक सूत्र में पिरोकर रखने में क़ामयाब रहती हैं। जहां से जनतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दायरा शुरू होता है, विभेद नज़र आने लगते हैं लेकिन ऐसी एकरूपता का भी क्या अर्थ, जिसमें आप न तो अपनी राय रख सकते हों, न ही सिनेमा देख सकते हों, जैसा कि आज चीन और उत्तर कोरिया में हो रहा है।
 
साथ-साथ रहने का फ़ैसला तर्कों से नहीं मंशाओं से होता है। मंशा हो तो भारत और पाकिस्‍तान तो क्‍या, पूरी दुनिया भी एक हो सकती है। समूची मनुष्‍यता अपना एक कुल बना सकती है और अगर मंशा न हो तब तो हर घर एक-दूसरे से अलग है, हर मोहल्‍ला अपने में एक किलेबंदी है। भूगोल एक राजनीतिक भ्रम है।

एटलस पर दर्ज नक्‍़शे एक प्रशासनिक बाध्‍यता हैं। अंतिम रूप से अखंड और विखंडित जैसा कुछ नहीं होता। चेतना की निरंतरता के परिप्रेक्ष्‍यों में एक गहरी ऐतिहासिक समझ के साथ चीज़ों को देखा जाए, तो ही अधिक श्रेयस्‍कर।