क्या प्रधानमंत्री मध्य प्रदेश की तरफ़ भी देख रहे हैं?
कोरोना से दो-दो हाथ करने को लेकर इस समय दो मॉडलों की बड़ी चर्चा है। पहली, साढ़े तीन करोड़ की आबादी के राज्य केरल की है और दूसरी उससे कोई सौ गुना छोटे राजस्थान के भीलवाड़ा शहर की। केरल की कुल आबादी में कोई 95 लाख और भीलवाड़ा की कुल आबादी में पचास हज़ार मुस्लिम हैं।
केरल में 29 जनवरी को कोरोना का पहला केस दर्ज हुआ था और भीलवाड़ा में 20 मार्च को। केरल में अब तक के मृतकों की संख्या तीन है। 15 अप्रैल को केवल एक नया मामला सामने आया था। 16 अप्रैल को खाड़ी से लौटने वालों के ज़रूर कुछ नए मामले सामने आ गए। भीलवाड़ा में कोई भी नया मरीज़ नहीं मिला है।
अब बात करें केरल से दोगुना से ज़्यादा आबादी के राज्य मध्य प्रदेश की जो 3 मार्च के बाद से कथित तौर पर राजनीतिक-प्रशासनिक लॉकडाउन में तो था ही 26 मार्च से बाक़ी देश के साथ कोरोना के लॉकडाउन में भी आ गया। शिवराज सिंह के नेतृत्व में प्रदेश तीन से अधिक बार कृषि उत्पादन के क्षेत्र में ‘कृषि कर्मण’ पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है। इसी प्रकार प्रदेश का सबसे बड़ा शहर इंदौर तीन बार स्वच्छता में ‘नम्बर वन’ घोषित हो चुका है। 16 अप्रैल तक मध्य प्रदेश में कोरोना प्रभावितों का आंकड़ा 1164 और कुल मरने वालों का आंकड़ा 55 (63?) पर पहुंच चुका था।
इस आंकड़े में केवल इंदौर शहर के ही कुल 115 कंटेन्मेंट क्षेत्रों के 707 प्रभावित लोग और 47 (?) मृतक शामिल हैं। 16 अप्रैल को 245 नए मरीज़ मिलने की भी खबरें हैं। मेडिकल सुविधाओं के मामले में इंदौर पूरे प्रदेश में सबसे ज़्यादा सुविधा सम्पन्न माना जाता है, उसके बावजूद इस तरह के हालात हैं। कोरोना-प्रभावित मृतकों की संख्या में महाराष्ट्र के बाद इस समय मध्य प्रदेश ही आता है। राजधानी भोपाल में स्वास्थ्य विभाग के अफ़सरों के कोरोना से प्रभावित होने की कई कहानियां पहले ही उजागर हो चुकी हैं।
सवाल यह है कि मध्य प्रदेश में हाल-फ़िलहाल जो कुछ भी चल रहा है उसके लिए किसे दोषी ठहराया जाए : नागरिकों को? तबलीग़ी जमात को? समूची मुस्लिम आबादी को? या फिर प्रदेश की मौजूदा राजनीतिक-प्रशासनिक अस्थिरता-अक्षमता को? तीन मार्च की रात मध्य प्रदेश में जिस पोलिटिकल ड्रामे की शुरुआत हुई थी उसका औपचारिक पटाक्षेप होना अभी बाक़ी है।
घटनाक्रम को संक्षेप में री-केप करें तो तीन मार्च की रात कांग्रेस, सपा, बसपा के दस विधायकों को उड़ाकर पहले दिल्ली और फिर गुरुग्राम ले ज़ाया गया। नौ मार्च को सत्तारूढ़ कांग्रेस के 17 विधायक बेंगलुरु पहुंच गए। दस मार्च को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा में प्रवेश कर लिया। 19 मार्च को कोरोना को लेकर पहली बार प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित किया। 20 मार्च को कमलनाथ का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा हो गया। 23 मार्च की रात शिवराज सिंह ने चौथी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण कर ली।
मुख्यमंत्री का पद सम्भालने के बाद शिवराज सिंह ने पहला बड़ा काम कमलनाथ सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारियों को हटाने का किया। अफ़सरों को हटाने-लाने की सूचियां अभी भी लगातार जारी हो रही हैं। 23 मार्च से आज दिनांक तक सरकार के सारे विभागों में केवल मंत्री हैं, जो कि मुख्यमंत्री भी है। शिवराज सिंह ही कोरोना के साथ लड़ाई भी लड़ रहे हैं और सरकार भी चला रहे हैं। इस बीच बहस भी जारी है कि नए मंत्रिमंडल में किसे लिया जाए और सिंधिया के किन लोगों को क्या पद दिए जाएं। इस बीच मौत के आंकड़े भी बढ़ते रहें तो कोई आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए।
कोई भी इस बारे में बात करने को तैयार नहीं है कि संक्रमण की रोकथाम करने अथवा आम जनता को राहत और राहत सामग्री उपलब्ध कराने के काम में उजागर हो रही कमियों और अक्षमताओं के लिए क्या किसी और को नहीं बल्कि सरकार को ही ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए? हो यह रहा है कि 45 दिनों की विफलताओं का ठीकरा फोड़ने के लिए कमज़ोर माथों की तलाश की जा रही है और इस काम में मदद के लिए चापलूसों की एक बड़ी ‘जमात’ भी जुटी हुई है।
मुख्यमंत्री अगर कोरोना संकट के लिए तीन सप्ताह पहले ही बिदा हो चुकी कमलनाथ सरकार को ही दोषी ठहरा रहे हैं और राहुल गांधी के इस सुझाव पर भी बिफर गए हैं कि ‘लॉकडाउन’ कोरोना से निपटने का इलाज नहीं है तो शिवराज सिंह की चिंता को समझा जा सकता है। और यह भी समझा जा सकता है कि ‘लॉकडाउन’ चाहे बाक़ी देश के साथ शुरू हुआ हो, ज़रूरी नहीं कि ख़त्म भी देश के साथ ही हो! क्या प्रधानमंत्री मध्य प्रदेश की तरफ़ भी देख रहे हैं? (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)