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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

धरती पर मंडरा रहा महाविनाश का खतरा, जानिए 10 कारण

Earth
धरती पर कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ के हालात है। चारों और भूकंप और तूफानों से लोग डरे हुए हैं। इसी बीच ‍वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारी धरती अपनी धुरी से 1 डिग्री तक खिसक गई है और ग्लोबल वार्मिंग शुरू हो चुकी है। अब जल्द ही इसके प्रति सामूहिक प्रयास नहीं किए तो 'महाविनाश' के लिए तैयार रहें।
लगातार मौसम बदलता जा रहा है। तापमान बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन हो रहा है, लेकिन इस सबसे अलावा भी धरती को महाविनाश की ओर धकेले जाने के और भी कई कारण है उनमें से हम ढूंढकर लाएंगे ऐसे 10 कारण जिनको जानकर हैरान रह जाएंगे और यह भी यहां कहना जरूरी होगा कि आप भी धरती को विनाश की ओर धकेलने के लिए उतने ही दोषी हैं जिनते की अन्य है।
 
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ग्लोबल वॉर्मिंग : उत्तराखंड के केदारधाम में चोराबाड़ी ग्लेशियर के टूटने से आई तबाही ने एक बार फिर दुनिया का ध्यान ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने की तरफ खींचा है।
 
हिमालयी ग्लेशियरों को लेकर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने एक अध्ययन कराया था। इस अध्ययन ने साफतौर पर चेतावनी दी थी कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय क्षेत्र की 15,000 हिमनद (ग्लेशियर) और 9,000 हिमताल (ग्लेशियर लेक) में आधे वर्ष 2050 और अधिकतर वर्ष 2100 तक समाप्त हो जाएंगे। इस बात की पुष्टि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने भी की है।
 
यदि हिमालय और धरती के अन्य ग्लेशियर तापमान के कारण पिघलते रहे तो हमारी धरती समुद्र में समा जाएगी। ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती का मौसम बदल रहा है। प्रदूषण (ग्रीन हाउस गैसों) के कारण यह सब हो रहा है। प्रदूषण कई तरह का होता है। हमारे वाहनों से निकलने वाला धुंआ, कोयले के प्लांट से निकलने वाला धुआं, कारखनों से निकलने वाला धुआं और अन्य कई कारणों से धरती के वातावरण में कार्बन डाई-आकसाइड की मात्रा बढ़ती जा रही है जिसके चलते धरती का तापमान लगभग एक डिग्री से ज्यादा बढ़ गया है और ऑक्सिजन की मात्रा कम होती जा रही है।
 
पहले 100 या 200 साल के बीच में अगर तापमान में एक सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाती थी तो उसे ग्लोबल वार्मिंग की श्रेणी में रखा जाता था। लेकिन पिछले 100 साल में अब तक 0.4 सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है जो बहुत खतरनाक है। हालांकि ग्लोबल वार्मिंग एक वृहत्तर विषय है लेकिन यहां इतना समझने से ही समझ में आ जाता है कि मुख्‍य कारण क्या है।
 
प्राकृतिक तौर पर पृथ्वी की जलवायु को एक डिग्री ठंडा या गर्म होने के लिए हजारों साल लग सकते हैं। हिम-युग चक्र में पृथ्वी की जलावायु में जो बदलाव होते हैं वो ज्वालामुखी गतिविधि के कारण होती है जैसे वन जीवन में बदलाव, सूर्य के रेडियेशन में बदलाव तथा और प्राकृतिक परिवर्तन, ये सब कुदरत का जलवायु चक्र है, लेकिन पिछले सालों में मानव की गतिविधियां अधिक बढ़ने के कारण यह परिवर्तन देखने को मिला है जो कि मानव अस्तित्व के लिए खतरनाक है।
 
इस ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक ओर जहां पीने के पानी का संकट गहराएगा वहीं मौसम में तेजी से बदलावा होगा और तापमान बढ़ने से ठंड के दिनों में भी गर्मी लेगेगी। ऐसे में यह सोचा जा सकता है कि यह कितना खतरनाक होगा।
 
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समुंदर निकल जाएगा धरती को : आबादी लगातार बढ़ती जा रही है जिसके चलते कई देश जगह की कमी से भी जूझ रहे हैं। धरती पर रहने के धरती की सिर्फ 27 से 30 प्रतिशत ही जगह है बाकी जगह पर तो समुद्र फैला है यानी धरती के 70 प्रतिशत भाग पर समुद्र है।
यदि ग्लोबल वार्मिंग जारी रहा, ग्लेशियर पिघलते रहे तो भविष्य में समुद्र के जलस्तर के बढ़ने में और तेजी आ जाएगी और दुनियाभर के तटवर्तीय देशों में महाविनाश का मंजर होगा। यानी महाविनाश होगा तो किसी एक कारण से नहीं, वायु प्रदूषण से ग्लेशियर पिघलेंगे, ग्लेशियर के पिघलने से समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, इससे जल संकट गहराएगा और फिर होगा वह सब कुछ जिसकी मानव ने अभी कल्पना नहीं की है।
 
अगर समुद्रों का जलस्तर वर्तमान गति से बढ़ता रहा तो इस शताब्दी तक पूरी दुनिया में सागरों का जल 30 सेंटीमीटर ऊपर जा सकता है। ऑस्ट्रेलिया के कुछ शोधकर्ताओं ने पाया है कि 1870 से 2004 के बीच समुद्री जलस्तर में 19.5 सेंटीमीटर की वृद्धि हुई। इससे पहले जलवायु परिवर्तन पर अंतर्देशीय पैनल की एक रिपोर्ट में भी कहा गया था कि वर्ष 1990 से 2100 के बीच समुद्री जल का स्तर 9 सेंटीमीटर से 88 सेंटीमीटर के बीच बढ़ सकता है।
 
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर समुद्र का जल इसी स्तर से बढ़ना जारी रहा तो जलस्तर इस शताब्दी में 28 से 34 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है। जलस्तर बढ़ने का मतलब होगा नीचे पड़ने वाले क्षेत्रों में आंधी-तूफ़ान के समय बार-बार बाढ़ आना।
 
धरती का तापमान बढ़ने से समुद्री जल के स्तर में कई कारणों से वृद्धि हो सकती है जिनमें हिमखंडों का पिघलना और समुद्री जल का गर्म होने के कारण फैलना जैसे कारण शामिल हैं।
 
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आतंकवाद : आतंकवाद के कई रूप है। धार्मिक आतंकवाद, जातीय आतंकवाद, नक्सली आतंकवाद, माओवादी आतंकवाद और प्रांतीय आतंकवाद। इसे आप कुछ भी कहें चाहे उग्रवाद कहें या अलगाववाद ये सभी आतंक की श्रेणी में ही आते हैं। आतंक फैलेने के कई तरीके होते हैं, जिसमें एक सबसे सभ्य तरीका है धर्मनिरपेक्ष, वामपंथ का चोगा पहनकर आतंक फैलाना भी शामिल है।
‍दुनिया को एक ही विचारधारा के झंडे तले जाने की सोच अमानवीय ही नहीं मनुष्य जाति के अस्तित्व के लिए घातक भी है। इस पर विस्तार से विचार किया जाना चाहिए कि ऐसी कौन-कौन-सी विचारधाराएं है जो आतंकवाद को जन्म देती है। जब तक ऑइडियोलॉजी रहेगी तब तक आतंकवाद भी रहेगा। विश्‍व इतिहास में इस आतंक के कारण अब तक करोड़ों निर्दोष लोग मारे गए हैं।
 
इस्लामिक आतंकवाद के दौर में परमाणु हथियारों की दौड़ ने अपना परंपरागत स्थान बदल लिया है और अब इसने यूरोप-अमेरिका को छोड़कर एशिया का रुख कर लिया है। स्टॉकहोम स्थित अंतरराष्ट्रीय शांति अनुसंधान संस्थान (स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट) द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एशिया में सामूहिक विनाश के हथियारों का सबसे बड़ा शस्त्रागार चीन के पास है।
 
जानकार लोग लगातार इस बात की चेतावनी देते रहे हैं कि परमाणु और रासायनिक हथियारों का आतंकवादियों के हाथ लगना दुनिया के लिए सबसे खतरनाक होगा। सद्दाम हुसैन ने रासायनिक हथियार के इस्तेमाल से 10 हजार कुर्द मुसलमानों को एक ही झटके में मौत की निंद सुला दिया था। सीरिया में भी रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया जा रहा है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के तालिबान दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभरे हैं।
 
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ओजोन परत धरती के लिए सबसे बड़ा खतरा : लाखों वर्ष की प्रक्रिया के बाद ओजोन परत का निर्माण हुआ जिसने पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र के साथ मिलकर पृथ्वी पर आने वाले हानिकारक सौर विकरण को रोककर इसको जीवन उत्पत्ति और प्राणियों के रहने लायक वातावरण बनाया। लेकिन आधुनिक मानव ने मात्र 200 साल की अपनी गतिविधि से इस ओजोन परत को इस कदर क्षतिग्रस्त कर दिया है।
 
ओजोन परत पृथ्वी और पर्यावरण के लिए एक सुरक्षा कवच का कार्य करती है तथा इसे सूर्य की खतरनाक पराबैंगनी (अल्ट्रा वायलेट) किरणों से बचाती है। वैज्ञानिकों के अनुसार धरती शीर्ष से पतली होती जा रही है, क्योंकि इसके ओजोन लेयर में छेद नजर आने लगे हैं। सभी वैज्ञानिकों का कहना है कि यह विडंबना ही है कि जीवन का समापन co2 की कमी से होगा।
 
ओजोन परत सूरज की गर्मी से रक्षा करती है लेकिन अब वैज्ञानिकों ने 4 दिनों पहले सूरज की सतह पर एक सनस्पॉट देखा। वो सनस्पॉट धरती की सतह से 25 गुना बड़ा था। जब भी सनस्पॉट बनता है सूरज से उठती है चुंबकीय आंधियां, जो धरती की ओर बढ़ती हैं और इंसानी सभ्यता को ठप करने की ताकत रखती हैं। वैज्ञानिकों को डर है कि आने वाले दिनों में सूरज से उठने वाले कई आंधियां धरती पर पहुंचेंगी।
 
महाभारत के वनपर्व में उल्लेख मिलता है कि कलियुग के अंत में सूर्य का तेज इतना बढ़ जाएगा कि सातों समुद्र और नदियां सूख जाएंगी। संवर्तक नाम की अग्रि धरती को पाताल तक भस्म कर देगी। वर्षा पूरी तरह बंद हो जाएगी। सब कुछ जल जाएगा, इसके बाद फिर बारह वर्षों तक लगातार बारिश होगी जिससे सारी धरती जलमग्र हो जाएगी।
 
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एक उल्कापिंड गिरेगा और तबाही : ज्यादातर वैज्ञानिक मानते हैं कि पृथ्वी पर प्रलय अर्थात जीवन का विनाश तो सिर्फ सूर्य, उल्कापिंड या फिर सुपर वॉल्कैनो (महाज्वालामुखी) ही कर सकते हैं। हालांकि कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि सुपर वॉल्कैनो पृथ्वी से संपूर्ण जीवन का विनाश करने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि कितना भी बड़ा ज्वालामुखी होगा वह अधिकतम 70 फीसदी पृथ्वी को ही नुकसान पहुंचा सकता है।
अब जहां तक सवाल उल्कापिंड का है तो खगोलशास्त्रियों को पृथ्वी की घूर्णन कक्षा में ऐसा कई उल्कापिंड दिखाई दिए हैं, जो पृथ्वी को प्रलय के मुहाने पर लाने की क्षमता रखते हैं। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि यदि कोई भयानक विशालकाय उल्कापिंड पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के चंगुल में फंस जाए तो तबाही निश्चित है।
 
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वायु प्रदूषण : आप सोच रहे होंगे कि वायु प्रदूषण से कैसे महाविनाश हो सकता है? वायु प्रदूषण से हर वर्ष 20 लाख लोग मारे जाते हैं, लेकिन यहां मसला सिर्फ वायु प्रदूषण का ही नहीं है। वायु प्रदूषण से हमारे पर्यावरण में जो बदलाव आ रहा है वह सबसे खतरनाक है।
'एनवायरमेंटल रिसर्च लेटर्स' के शोध से पता चला कि मानवीय कारणों से फैल रहे प्रदूषण के कारण ओजोन परत का छिद्र बढ़ता जा रहा है। यह प्रदूषण जल्द ही नहीं रोका गया तो प्रतिवर्ष इस कारण 4 लाख 70 हजार लोगों की मौत होने का आंकड़ा बढ़ता जाएगा।
 
इस प्रदूषण के कारण ही कैंसर जैसे घातक रोग बढ़ते जा रहे हैं। इसके अलावा अनजान रोगों से लोगों की मृत्यु की आंकड़े भी बढ़ते जा रहे हैं। मानवीय कारणों से 'फाइन पार्टिकुलेट मैटर' में भी वृद्धि होती है, जिससे सालाना करीब 21 लाख लोगों की मौत हो जाती है।
 
शोधकर्ताओं ने वर्ष 1850 में औद्योगीकरण शुरू होने से वर्ष 2000 तक ओजोन पर भी ध्यान केंद्रित किया। शोधकर्ताओं ने हालांकि पाया कि ओजोन में इस दौरान मामूली बदलाव आए।
 
शोध के अनुसार, जलवायु परिवर्तन कई तरीके से हवा की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। इससे स्थानीय स्तर पर वायु प्रदूषण में वृद्धि या कमी हो सकती है। उदाहरण के लिए, तापमान एवं आर्द्रता से रासायनिक अभिक्रिया में परिवर्तन आ सकता है जिससे प्रदूषण फैलाने वाले कारकों का निर्माण होता है। इसी तरह बारिश से यह तय हो सकता है कि प्रदूषण फैलाने वाले कारक कब संघटित होंगे।
 
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जल संकट : पीने योग्य पानी हमें नदी, तालाब, कुएं और आसमान की बारिश से ही मिलता है। नदियां को बिजली उत्पादन के नाम पर नष्ट कर दिया गया है और कुएं एवं तालाब पहले से ही बंद पड़े हैं। लाखों नलकूप से धरती का जमा पानी खिंच कर खत्म किया जा रहा है जिसके चलते अब जल संकट भी गहराने लगा है।
 
दुनियाभर में 1 प्रतिशत जल ही पीने योग्य है। इस 1 प्रतिशत जल के लिए होगा युद्ध। भारत ही नहीं, पूरा विश्व शुद्ध जल के संकट से गुजर रहा है। वैज्ञानिक कहते हैं कि जनसंख्या का बढ़ना और प्रदूषण का फैलना इसी तरह चलता रहा तो आने वाले समय में शुद्ध जल सबसे महंगी वस्तु होगी। जल ही जीवन है। जल जीवन का सार है। प्राणी कुछ समय के लिए भोजन के बिना तो रह सकता है लेकिन पानी के बिना नहीं। 
 
जानकार कहते हैं कि भारत में मौजूद पानी का 80 फीसदी खेती में इस्तेमाल होता है जबकि उद्योग इस पानी का 10 फीसदी से भी कम इस्तेमाल करते हैं। बारिश के पानी के संरक्षण की कोई खास योजना नहीं है। जल वितरण प्रणाली भी कोई खास नहीं है। प्रतिवर्ष देश के कई राज्यों में सूखा पड़ता है। लोगों को कई किलोमीटर चलकर पानी लाना पड़ता है। पानी का मौजूदा संकट सिर्फ पानी की कमी और मांग के बढ़ने की वजह से ही नहीं है, इसमें पानी के प्रबंधन का भी बहुत बड़ा हाथ है।
 
एशियाई विकास बैंक (एडीबी) द्वारा जारी एक अध्ययन के मुताबिक एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 75 फीसदी देशों में जल सुरक्षा का अभाव है और कई देश ऐसे हैं, जहां यदि तुरंत कदम नहीं उठाए गए तो जल्द ही जल संकट की स्थिति गंभीर हो सकती है। अध्ययन 'एशियन वाटर डेवलपमेंट आउटलुक (एडब्ल्यूडीओ) 2013' एडीबी और एशिया प्रशांत-जल मंच (एपीडब्ल्यूएफ) द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया है।
 
दूसरी ओर, दुनियाभर की नदियों पर बांध बनाए जाने से जहां जल की स्वाभाविक आपूर्ति रुक गई है वहीं बाढ़ के खतरे भी बढ़ गए हैं। इस सबके चलते धरती का पर्यावरण भी गड़बड़ा गया है। सिर्फ एक नदी को रोक देने से उसके मार्ग के सभी जलीय जीव-जंतु और पेड़-पौधों का अस्तित्व लगभग अब समाप्त ही हो गया है। यह धरती के लिए सबसे खतरनाक स्थिति है। इससे आने वाले समय से सभी नदियां एकसाथ सूख जाएंगी।
 
नदियों के रोक देने से धरती के भीतर पानी का स्तर भी कम होता गया और अब दुनिया के हर बड़े शहरों में धरती का जल 400 से 500 फीट ‍नीचे पहुंच चुका है। धरती के इतिहास में कभी यह स्थिति नहीं रही कि जलस्तर इस कदर घट जाए। 
 
अगर हम वैश्विक परिदृश्य पर गौर करें तो कईं चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। विश्व में 260 नदी बेसिन इस प्रकार के हैं जिन पर एक से अधिक देशों का हिस्सा है। इन देशों के बीच जल बंटवारे को लेकर किसी प्रकार का कोई वैधानिक समझौता नहीं है। दुनिया के कुल उपलब्ध जल का 1 प्रतिशत ही जल पीने योग्य है। हमें पीने का पानी ग्लेशियरों से प्राप्त होता है और ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ा है और इस कारण भविष्य में जल संकट की भयंकर तस्वीर सामने आने वाली है। 
 
हमें यह मानना ही होगा कि मानव की जल की आवश्यकता किसी अन्य आवश्यकता से काफी महत्वपूर्ण है। हमें यह समझना और समझाना होगा कि जल सीमित है और विश्व में कुल उपलब्ध जल का 27% ही मानव उपयोगी है। अब हमें यह गौर करना होगा कि वर्तमान में इस जल संकट के प्रमुख कारण क्या हैं।
 
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सुपर वॉल्कैनो : नए आकलन के मुताबिक पृथ्वी के भीतरी कोर का तापमान 6 हजार डिग्री सेल्सियस के करीब है। सूर्य की सतह का तापमान भी इतना ही होता है।
 
बीबीसी की एक खबर अनुसार 1990 के शुरुआती सालों में ये अनुमान लगाया गया कि पृथ्वी के केंद्र का तापमान करीब 5,000 डिग्री सेल्सियस तक हो सकता है। नए शोध अध्ययन के सह लेखक और फ्रांसीसी शोध एजेंसी सीआईए के एजनेस डवेल ने बताया, 'तब ऐसे आकलनों की शुरुआत थी और उन लोगों ने पहला अनुमान 5,000 डिग्री सेल्सियस का लगाया।'
 
इसके बाद पृथ्वी के केंद्र का तापमान आंका गया, जो करीब 6,000 डिग्री सेल्सियस था। आखिर क्या है इस तापमान का कारण? पहले माना जाता रहा है कि पृथ्वी का केंद्र लौह अयस्क से बना है, लेकिन वास्तव में ये क्रिस्टलीय धातु से बना है जिसके बाहर तरलीय घेरा होता है। दुनियाभर के ज्वालामुखी से धरती के गर्भ में पल रही इस खौलती हुई आग का निष्कासन होता है। 
 
ज्वालामुखी धरती पर वह प्राकृतिक छेद या दरार है जिससे होकर पृथ्वी का पिघला पदार्थ लावा, राख, वाष्प तथा अन्य गैसें बाहर निकलती हैं। पृथ्वी पर जितने भी ज्वालामुखी मौजूद हैं, उनमें से ज़्यादातर 10 हजार से 1 लाख साल पुराने हैं। वक्त के साथ-साथ इनकी ऊंचाई और भयानकता बढ़ जाती है। ज्वालामुखी पर्वत से निकलने वाली चीज़ों में मैग्मा के साथ कई तरह की विषैली गैसें भी होती हैं।
 
ज्वालामुखी न सिर्फ़ पृथ्वी पर ही मौजूद हैं, बल्कि इनका अस्तित्व महासागरों में भी है। वैज्ञानिकों के अनुसार अनुमानत: समुद्र में करीब 10 हजार ज्वालामुखी मौजूद हैं। विनाशकारी सुनामी लहरों का निर्माण भी समुद्र के भीतर ज्वालामुखी विस्फोट से ही होता है। सबसे बड़ा ज्वालामुखी पर्वत हवाई में है। इसका नाम 'मोना लो' है। यह करीब 13,000 फीट ऊंचा है। इसके बाद सिसली के 'माउंट ऐटना' का नंबर आता है। यह विश्व का एकमात्र सबसे पुराना ज्वालामुखी है। यह 35,000 साल पुराना है।
 
एशिया महाद्वीप पर सबसे ज्यादा ज्वालामुखी इंडोनेशिया में हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक धरती पर सबसे ज्यादादा खतरनाक ज्वालामुखी 'तंबोरा' है, जो इंडोनेशिया में मौजूद है। हिन्द महासागर में सबसे ज्यादा ताकतवर ज्वालामुखी 'पिटों दे ला फॉर्नेस' है।
 
वैज्ञानिकों के अनुसार आज से 70 हजार वर्ष पहले हवाई के ज्वालामुखी में विस्फोट हुआ था जिससे धरती की अधिकतर आबादी नष्ट हो गई थी, क्योंकि उसके काले धुएं से 6 वर्ष तक धरती ढंकी रही और फिर कई वर्षों तक धरती पर बारिश होती रही।
 
ज्वालामुखी कभी भी धरती के लिए खतरा बन सकते हैं। इनसे धरती के भीतर भूकंपीय गतिविधियां बढ़ती रहती हैं और ये धरती के पर्यावरण को भी प्रभावित करते हैं। दुनिया का हर देश ज्वालामुखी के ढेर पर बैठा है।
 
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तृ‍तीय विश्व युद्ध : परमाणु हथियारों की दौड़ ने अपना परंपरागत स्थान बदल लिया है और अब इसने यूरोप-अमेरिका को छोड़कर एशिया का रुख कर लिया है। स्टॉकहोम स्थित अंतरराष्ट्रीय शांति अनुसंधान संस्थान (स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट) द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एशिया में सामूहिक विनाश के हथियारों का सबसे बड़ा शस्त्रागार चीन के पास है।
जानकार लोग लगातार इस बात की चेतावनी देते रहे हैं कि परमाणु और रासायनिक हथियारों का आतंकवादियों के हाथ लगना दुनिया के लिए सबसे खतरनाक होगा।
 
स्टॉकहोम अंतरराष्ट्रीय शांति अनुसंधान संस्थान की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य देशों- अमेरिका, रूस, ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के अलावा भारत, पाकिस्तान और इसराइल के पास परमाणु हथियारों और उन्हें लेकर उड़ने वाली मिसाइलों की कुल संख्या 17 हजार 265 थीं जबकि सन् 2011 में यह संख्या 19 हजार हो गई।
 
चीन, भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु हथियारों की दौड़ सबसे तेज है। सन् 2012 में चीन के पास परमाणु हथियारों की संख्या 240 से बढ़कर 250, भारत के पास 100 से बढ़कर 110, पाकिस्तान के पास 110 से बढ़कर 120 हो गई। पाकिस्तान, इस प्रकार, भारत से भी आगे निकल गया है।
 
यहां सबसे बड़ी समझने वाली बात यह है कि अकेले चीन के पास ही इतने परमाणु बम हैं कि वह धरती को कई बार नष्ट कर सकता है। आज परमाणु हथियारों का खतरा हिरो‍शिमा और नागासाकी पर गिरे बम के काल से कहीं अधिक है। तृतीय युद्ध की कल्पना करना भी सामूहिक विनाश की घातक कल्पना है।
 
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लाइलाज रोग : घातक बीमारियों से मिट जाएगी आधी आबादी: एड्स, कैंसर, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू आदि ऐसे कुछ ऐसी बीमारियां है जिसके चलते मनुष्‍य ही नहीं प्राणी जगत भी संकट में है। इन बीमारियों के कई कारण हो सकते हैं।

अफ्रीका के बाद भारत एड्स के मामले में दूसरे नंबर पर है। देश में रजिस्टर्ड मरीजों की संख्‍या 5.2 लाख एड्स के रोगी है। यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। इसके अलावा स्वाइन फ्लू और बर्ड फ्लू से ग्रसित लोगों की संख्या में बड़ती जा रही है। पहले कैंसर आम रोग नहीं होता था लेकिन अब यह आप रोग होता जा रहा है।