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Written By अनिल जैन
Last Updated : बुधवार, 9 जुलाई 2014 (23:13 IST)

यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का

यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का -
मालदीव में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (सार्क) की सत्रहवीं शिखर बैठक के मौके पर भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के बीच हुई सौहार्दपूर्ण बातचीत से एक बार फिर दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलती दिखाई दे रही है।

हालांकि हाल ही में पाकिस्तान द्वारा भारत को औपचारिक रूप से मोस्ट फेवर्ड नेशन (एमएफएन) यानी कारोबार के क्षेत्र में तरजीही देश का दर्जा दे देने के बाद वहां से इस मामले में जो विरोधाभासी बयान आए थे उनसे एक बार तो लगा था कि पाकिस्तान रिश्तों को सुधारने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ने के बाद दो कदम पीछे हट गया है। लेकिन दो-तीन दिन तक बनी रही अनिश्चय की स्थिति के बाद आखिरकार प्रधानमंत्री गिलानी और उनके विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता तेहमीना जंजुआ ने ही साफ किया कि उनका देश भारत को कारोबारी वरीयता देने के लिए प्रतिबध्द है और इससे पीछे हटने का सवाल ही नहीं उठता।

उन्होंने यह भी कहा कि यह फैसला सेना को विश्वास में लेकर किया गया है तथा वाणिज्य मंत्रालय को इस सिलसिले में औपचारिकताएं पूरी करने के निर्देश दे दिए गए हैं। इन बयानों से जाहिर है कि पाकिस्तान को इस बारे में औपचारिक फैसला करने में भले ही कुछ वक्त और लगे लेकिन उसकी प्रक्रिया शुरू हो गई है।

दरअसल, भारत को कारोबारी दृष्टि से तरजीही देश का दर्जा देने के बारे में पाकिस्तानी हुकूमत की ओर से जो विरोधाभासी बयान आए थे उसके पीछे उसकी घरेलू मजबूरियां ही खास तौर पर जिम्मेदार हैं जिन्हें आसानी से समझा जा सकता है। यह सही है कि पाकिस्तान के लेखकों, फनकारों और अन्य बुध्दिजीवियों के साथ ही आम अवाम भी चाहता है कि दोनों मुल्कों के बीच दोस्ताना रिश्ते हों।

वहां सरकार भी अवाम के द्वारा ही चुनी हुई है लेकिन उस सरकार को एक ओर जहां सेना और जमात-ए-इस्लामी जैसे कई अंध राष्ट्रवादी गुटों के दबाव में काम करना पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर उसके ही पोषित और संरक्षित आतंकवादी गुट पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में ध्वस्त करने में जुटे हुए हैं।

इन सारी ताकतों का भारत-विरोध जगजाहिर है और वे कभी नहीं चाहेंगी कि दोनों देशों के बीच दोस्ताना रिश्ते कायम हों कोई तीन महीन पहले अपनी पहली भारत यात्रा पर आते वक्त पाकिस्तान की युवा विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार ने फरमाया था कि उनका मुल्क इतिहास से सबक जरूर लेगा लेकिन उसकी गुलामी नहीं करेगा। उस वक्त अनेक आलोचकों ने उनके इस बयान को एक अनुभवहीन राजनेता की अति उत्साह में आकर की गई टिप्पणी माना था।

लेकिन उनकी उस यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच कई ऐसे मौके आए हैं जब पाकिस्तान ने अपने संजीदा और सकारात्मक रवैये से यही संकेत देने की कोशिश की है कि वह अपने सिर से इतिहास का बोझ उतारकर भारत के साथ अपने रिश्तों का एक नया अध्याय शुरू करना चाहता है। अभी कुछ दिनों पहले ही उसने अपनी सीमा में भटक कर पहुंचे भारतीय सेना के एक हेलीकॉप्टर और उस पर सवार चार सैन्य अधिकारियों को चंद घंटों के अंदर रिहा कर ऐसी ही सदाशयता का परिचय दिया था।

इससे पहले भारत ने भी पाकिस्तान को सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य बनने में मदद की थी और पाकिस्तान ने तुर्की के अफगान सम्मेलन में भारत के प्रवेश का समर्थन किया था। और, अब उसने भारत के 15 साल पहले के 'इजहार' पर 'इकरार' करने की पहल करते हुए व्यापारिक रिश्तों को बढ़ावा देने के लिए भारत को 'मोस्ट फेवर्ड नेशन' का दर्जा देने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।

भारत ने तो पाकिस्तान को यह दर्जा 1996 में ही दे दिया था, लेकिन तब पाकिस्तान कई कारणों से ठिठक गया था और 15 साल तक ठिठका रहा। इसके पीछे कई कारण थे। एक तो भारत के प्रति उस समय की पाकिस्तानी हुकूमत के अपने अपने पूर्वाग्रह थे और इसके अलावा वहां के कट्टरपंथी मजहबी और राजनीतिक समूहों का अंध भारत विरोधी रवैया भी था। वैसे दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्तों की बुनियाद पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के समय ही रख दी गई थी, लेकिन उनकी मौत के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने आमतौर पर भारत विरोधी नजरिया ही अपनाया, जिसके कारण दोनों देशों के व्यापारिक रिश्ते कभी सही ढंग से आकार नहीं ले सके।

दरअसल, पाकिस्तान के सत्ता-प्रतिष्ठान और वहां की कट्टरपंथी सियासी जमातों को हमेशा यह आशंका रही कि यदि उसने भारत से कारोबार के लिए अपने दरवाजे खोल दिए तो भारत से आने वाली अच्छी और सस्ती चीजें पाकिस्तान में छा जाएगी, जिससे पाकिस्तान के उद्योग-धंधे चौपट हो जाएंगे। इसके अलावा भारत के साथ तनाव भरे रिश्तों में ही अपना वजूद तलाशने वाली पाकिस्तानी फौज को भी यह आशंका सताती थी कि यदि दोनों मुल्कों के बीच बगैर किसी बाधा के कारोबार शुरू हो गया तो दोनों के रिश्तों में इतनी गर्मजोशी आ जाएगी कि कश्मीर जैसे मसले अपनी अहमियत खो देंगे।

अब इस तरह की तमाम आशंकाओं की कैद से मुक्त होने की कोशिश करते हुए पाकिस्तानी हुकूमत ने व्यापार के क्षेत्र में भारत से रिश्ते बनाने की प्रक्रिया शुरू की है। उसके इस कदम से अब दोनों देशों के बीच न सिर्फ द्विपक्षीय व्यापार बढ़ेगा बल्कि वीजा संबंधी अड़चनें खत्म होने से पेशेवरों को एक देश से दूसरे देश आने-जाने में भी सहुलियत मिलेगी। भारत अब तक पाकिस्तान को महज 1946 वस्तुओं का निर्यात कर सकता था लेकिन अब वह 20 हजार से ज्यादा वस्तुओं का निर्यात कर सकेगा।

दोनों देशों के बीच अभी सालाना लगभग 2.6 अरब डॉलर का सीधा व्यापार होता है जो अब सालाना 6 से 8 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है। इससे उन सामानों की लागत भी कम होगी जो अभी दुबई, ईरान और अफगानिस्तान के जरिए पाकिस्तान पहुंचते हैं। इसके अलावा पाकिस्तान के व्यापारी भारतीय माल को मध्य एशिया के देशों में बेचकर अच्छा मुनाफा कमा सकेंगे और भारतीय व्यापारी भी पाकिस्तान के माल को बांग्लादेश, नेपाल, भूटान आदि देशों में बेच पाएंगे।

इस तरह जब दोनों देशों के बीच बड़े पैमाने पर कारोबार होने लगेगा तो दोनों के बीच कश्मीर जैसे सियासी मसले भले ही खत्म न हों, पर उनमें वैसी कर्कशता नहीं रहेगी, जैसी अब तक चली आ रही है।

हालांकि फिलहाल कारोबारी मोर्चे पर नरमी दिखाने के बावजूद पाकिस्तान के सियासी तेवरों में विशेष बदलाव नहीं आया है। उसने साफ कर दिया है कि भारत को तरजीही देश का दर्जा देने के बाद भी कश्मीर मुद्दे पर वह अपने पुराने रुख पर कायम रहेगा। उसके ऐसा कहने के पीछे उसकी सियासी मजबूरियों को समझा जा सकता है।

जिस कश्मीर को लेकर पाकिस्तानी हुक्मरान पिछले छह दशकों से भारत के खिलाफ हर तरह के नापाक हथकंडे अपनाते रहे हों, अमेरिका से मिलने वाले अरबों डॉलर और हथियारों की मदद को वे अपने यहां चलने वाली आतंकवाद की नर्सरी पर खर्च कर कश्मीर सहित भारत के अन्य इलाकों में खूनखराबा कराते रहे हों, हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर का मसला उठाकर उस अपना दावा जताते रहे हों, उस कश्मीर के बारे में उनसे यह उम्मीद तो की ही नहीं जा सकती कि वे रातोंरात अपना रुख बदल लेंगे। उनके लिए ऐसा करना मुमकिन भी नहीं है और मुनासिब भी नहीं।

पाकिस्तान में हुकूमत चाहे आसिफ अली जरदारी और यूसुफ रजा गिलानी की हो या किसी और की, किसी के लिए भी कश्मीर पर परंपरागत रुख से एकाएक पलटना आसान नहीं हो सकता। जाहिर है कि भारत के साथ रिश्तों में सुधार की कोशिशें उसके लिए निश्चित ही चुनौती भरी हैं। इन मुश्किलों भरे हालात में भारत के साथ कारोबारी रिश्ते बनाने की दिशा में उसका आगे बढ़ना न सिर्फ दोनों देशों के लिए बल्कि समूचे दक्षिण एशिया के लिए बहुत महत्व रखता है।

भारत-पाकिस्तान के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलने के आसार बनाते इस दौर में भारत-पाकिस्तान के दोस्ताना रिश्तों के हिमायती मशहूर पाकिस्तानी शायर अहमद फराज का यह शेर काफी मौजूं मालूम होता है- स्याह रात नाम लेती नहीं है खत्म होने का, यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का।