मंत्रियों को तो जी फर्स्ट क्लास में उड़ने दो!
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मधुसूदन आनंदकई मंत्रियों के चेहरे फूले हुए हैं। देश में सूखे की भीषण स्थिति को देखते हुए मंत्रियों को निर्देश दिया गया था कि वे देश में जहाँ कहीं जाएँ तो हवाई जहाज में इकॉनामी क्लॉस का टिकट लें। विदेश यात्रा करते हुए वे जरूर बिजनेस क्लास का टिकट ले सकते हैं। राजनेताओं, नौकरशाहों, वकीलों, डॉक्टरों, व्यापारियों आदि की एक विराट कतार खड़ी है, जो उपभोग की होड़ में एक-दूसरे से आगे निकल जाने को मचल रही है। उसे सही-गलत की, नियम-कायदों की कोई परवाह नहीं है। उसे ज्यादा से ज्यादा धन बटोरना है और सुविधाएँ हथियानी हैं
सरकार चाहती है कि देश की जनता में एक सही और सकारात्मक संदेश जाए कि जनता की दिक्कतों की उसे परवाह है और उसके मंत्री अनाप-शनाप खर्चे नहीं कर रहे हैं। कांग्रेस ने भी अपने निर्वाचित नुमाइंदों से कहा है कि वे अपने वेतन का 20 प्रतिशत दान में दें। इस पर भी कोई खास उत्साह नहीं है। दरअसल, हमारे समाज में जिसको जो सुविधा मिली हुई है या जिसने जो सुविधा हथिया ली है, उसे कोई भी छोड़ना नहीं चाहता।त्याग आज सिर्फ पुरानी कथाओं और किताबों में बंद है, जैसे कोई दुर्लभ प्रजाति का प्राणी। उसके बारे में आप पढ़िए और फिर चाहें तो खुश होइए या हँसिए कि संसार में कैसे मूर्ख प्राणी हो गए हैं। खुदा न खास्ता अगर आप संवेदनशील किस्म के प्राणी हुए तो क्षणभर को अपनी नैतिक गिरावट पर रोइए और ट्रैफिक लाइट पर किसी गरीब भिखारी बच्चे को दस-पाँच रुपए देकर अपनी अल्पकालिक ग्लानि से मुक्त हो जाइए। हमारे देश की 80 प्रतिशत जनता दिन-रात त्याग में जी रही है, जैसे एक वक्त की रोटी का त्याग। रोटी मिल जाए तो दाल और सब्जी का त्याग। शुद्ध-साफ पानी और हवा का त्याग। कपड़ों-लत्तों का त्याग। मकान और झोपड़ी का त्याग
आपके पास गरीबी, बेरोजगारी और गैर बराबरी को दूर करने का कोई इलाज नहीं है। तो त्याग आज कोई नहीं करना चाहता और दान या तो धन संग्रह के लिए किए गए पापों से मुक्त होने का धार्मिक अनुष्ठान है या फिर ऐसा पाखंड जिसके पीछे दानवीर होने की लौकिक चाह है।त्याग कभी मैंने भी नहीं किया है, न ही मैं कर सकता हूँ। यह एक असंभव काम है। इसके लिए अपनी सुंदर काया को कष्ट देना पड़ता है और कष्ट के हम जैसे लोग आदी नहीं रह गए हैं। आप हैं तो मैं आपको प्रणाम करता हूँ। लेकिन कोई आपका अभिनंदन करने नहीं जा रहा।हमारे देश की 80 प्रतिशत जनता दिन-रात त्याग में जी रही है, जैसे एक वक्त की रोटी का त्याग। रोटी मिल जाए तो दाल और सब्जी का त्याग। शुद्ध-साफ पानी और हवा का त्याग। कपड़ों-लत्तों का त्याग। मकान और झोपड़ी का त्याग। सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने की लोकतांत्रिक सुविधा का त्याग और यहाँ तक कि देह त्याग। कौन उनका अभिनंदन करता है और करता है तो शिलालेख लिखवाकर नहीं बल्कि पृष्ठ भाग पर दो लात जमाकर। यह 21वीं सदी है जनाब। सब तरफ भीषण होड़ और मारकाट मची है, मुझे फ्लैट और बंगला मिल जाए, मेरे पास चमचमाती कारें हों, कीमती से कीमती सामान खरीदने की सामर्थ्य हो, मैं जब चाहूँ हवाई जहाज से देश-विदेश की सैर कर सकूँ, मेरी पत्नी आभूषणों से लदी हो और मेरे बच्चों की परवरिश राजकुमार-सी हो। आप जानते ही होंगे कि दिल्ली जैसे शहर में इधर उच्च मध्यवर्ग में एक नहीं दो का प्रचलन बढ़ा है। एक नहीं दो टेलीफोन। मोबाइल भी दो। कार भी दो। टीवी भी दो। यहाँ तक कि कहीं-कहीं घर-संसार भी दो। यानी ज्यादा से ज्यादा भोग लेने की होड़। ज्यादा से ज्यादा और अच्छे से अच्छा खा लूँ, पहन लूँ, घूम लूँ, भोग लूँ, कल हो न हो। अभी बिलकुल अभी। कई साल पहले मैं लखनऊ में काम करने गया था। वहाँ मुझे दिल्ली के एक सज्जन मिले जिनके साथ मेरे रिश्ते बहुत औपचारिक किस्म के थे। उन्होंने मुझे देखते ही कहा : मैं कल शाम आया था। मैंने हरी मटर की टिक्की खा ली, चाट खा ली, अमीनाबाद की कुल्फी खा ली, टुंडे के कबाब खा लिए, मलाई पान खा लिया, राम आसरे की कचौड़ी खा ली। और क्या खाऊँ? मैं सोचने लगा तो वे बोले अच्छा मुझे शाम को वापस जाना है, कुछ और घूम आऊँ। उस वक्त भी उनके मुँह में पान के अवशेष थे। मैंने अपने साथ चल रहे अपने कार्टूनिस्ट से कहा और क्या बताऊँ, मुझे खा जा। और हम दोनों देर तक हँसते रहे थे। आप मानें या न मानें हमारे समाज में इधर चार्वाक का दर्शन 'ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत' उतर आया है यानी कर्ज लेकर भी घी पीओ। कर्ज लेकर भी खरीददारी करो। क्रेडिट कार्ड है ना। बाजार में चीजों का अंबार लगा है
तो आप मानें या न मानें हमारे समाज में इधर चार्वाक का दर्शन 'ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत' उतर आया है यानी कर्ज लेकर भी घी पीओ। कर्ज लेकर भी खरीददारी करो। क्रेडिट कार्ड है ना। बाजार में चीजों का अंबार लगा है। नए-नए फैशन के कपड़े, जूते, बेल्ट, चश्मे, घड़ियाँ, यू डी कोलोन, सेंट और सौंदर्य प्रसाधन का तमाम सामान। टीवी और रेडियो, अखबार और सिनेमा चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं खरीदो। खरीदो, एक लोगे तो दूसरी मुफ्त। सेल और महासेल। शॉपिंग को समाज की कंपल्सरी मजबूरी बनाया जा रहा है। इसलिए शॉपिंग नहीं तो विंडो-शॉपिंग। तरसो मत। नहीं खरीद सकते तो देख ही लो। छू ही लो। यह उपभोक्ता संस्कृति है जिसमें मनुष्य से ज्यादा चीजें अपरिहार्य हो गई हैं।मनमोहनसिंह उन नई आर्थिक नीतियों के जनक हैं जिनके कारण समाज के एक छोटे-से वर्ग में बेहद समृद्धि आई है और जो दिन-प्रतिदिन ज्यादा से ज्यादा सुविधाजीवी होता चला गया है। इस वर्ग में हमारे राजनेताओं, नौकरशाहों, वकीलों, डॉक्टरों, व्यापारियों आदि की एक विराट कतार खड़ी है, जो उपभोग की होड़ में एक-दूसरे से आगे निकल जाने को मचल रही है। उसे सही-गलत की, नियम-कायदों की कोई परवाह नहीं है। उसे ज्यादा से ज्यादा धन बटोरना है और सुविधाएँ हथियानी हैं। सुविधा-शुल्क आज एक नए शुल्क के रूप में समाज में जगह पा रहा है। लोभ और लालच, दूसरों के दुःख-तकलीफों के प्रति उदासीनता का भाव हमारे उत्तर आधुनिक समाज की नई प्रवृत्तियाँ हैं। कुछ साल पहले मैंने एक प्रतिष्ठित विदेशी पत्रिका में एक लेख पढ़ा था जिसमें एक चौंकाने वाली स्थापना की गई थी। स्थापना यह थी कि संसार में आज हम जो भी विकास और प्रगति देख रहे हैं, वह मानव जाति के लोभ-लालच के कारण संभव हुई। हम भारतीयों को बचपन से पढ़ाया जाता है कि लोभ पाप का मूल है हालाँकि लालच हम लोगों में कूट-कूटकर भरा है। इसलिए चाहे हम कितने ही लालची क्यों न हों, मगर लालच हमारे यहाँ एक नकारात्मक शब्द ही है। जाहिर है जब तर्क के साथ यह स्थापना दी जाए कि मनुष्य में लालच न हुआ होता तो यह प्रगति न हुई होती, तब हम आश्चर्य से हर जाते। आप जानते ही होंगे कि इतिहास के सभी युद्धों और महायुद्धों में लालच की केंद्रीय भूमिका रही है। चक्रवर्ती साम्राज्य या फिर विश्व विजय के सपने के पीछे बुनियादी दौर पर लालच ही काम करता रहा है और इस लालच ने सेकड़ों नहीं, बल्कि लाखों-करोड़ों निर्दोष नागरिकों की बलि ली है। आज इस लालच के कारण न केवल युद्ध होते हैं बल्कि गरीबी, भुखमरी और गैर बराबरी की समस्या भी काबू से बाहर होती जाती है। इसलिए महान लालची होते हुए भी हम लालच को एक सकारात्मक शब्द कैसे मान लें? उसका महिमामंडल कैसे स्वीकारें?
बहरहाल, इस स्थापना के बहुत गहराई में न जाते हुए आप इसे ऐसे समझिए कि आदमी में अगर लालच न हुआ होता तो आज का आधुनिक जीवन संभव न हुआ होता। मसलन बिजली है तो फिर पंखा क्यों नहीं और पंखा है तो फिर एसी क्यों नहीं। लालच की इस सकारात्मक अवधारणा से सहमत नहीं हुआ जा सकता, मगर समझने वाली चीज यह है कि किस तरह आज समाज में लालच के सकारात्मक पक्ष ढूँढ लिए गए हैं। यह भुला दिया गया है कि तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों के पीछे लालच नहीं बल्कि जिज्ञासा रही है।खैर, आज हम देशों में रहते हैं और बाजारों से बरतते हैं। बाजार के बिना आज किसी देश या समाज का काम नहीं चल सकता। एडम स्मिथ ने 18वीं शताब्दी में अपनी महत्वपूर्ण स्थापना दी थी कि अगर किसी अर्थव्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी हितों के लिए काम करे यानी उपभोक्ता काम की चीजों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करें और उन चीजों के निर्माता अधिक से अधिक मुनाफा कमाएँ तो समाज को बाजार की अदृश्य ताकत से सर्वोत्तम लाभ अपने आप प्राप्त होने लगेगा। इसका मतलब यह है कि आर्थिक प्रगति से समाज के सभी तबकों को लाभ पहुँचता है- यहाँ तक कि नीचे से नीचे तबके के आदमी को भी, लेकिन आज तक तो भारत में ऐसा हुआ नहीं है। बाजार के अदृश्य हाथ को किसी ने अपनी तरफ मोड़ रखा है। तो आर्थिक विकास के लाभ चूँकि हमारे यहाँ छनकर नीचे तक नहीं पहुँचे इसलिए हम देखते हैं कि गरीबी बढ़ती ही गई। अब यह तबका सादा जीवन तो क्या बिताएगा, इसे तो आदमी से भी कमतर माना जाता है। जो उपभोग कर रहे हैं और अपने पैसे से कर रहे हैं उनकी नैतिकता की परिभाषा अलग है। तो सादगी का नारा देकर आप प्रायः मध्यवर्ग को ही आकर्षित करना चाहते हैं, जो चाहे कितना ही ढुलमुल हो लेकिन समाज में राय बनाने में उसकी अहम भूमिका होती है।मंत्रियों से मितव्ययिता का जो आग्रह है, वह इसी वर्ग को ध्यान में रखकर किया गया है। अब मंत्रियों में जनता का दुःख-दर्द समझने का माद्दा होता तो वे खुद ही त्याग की घोषणाएँ करते। कांग्रेस का कदम भी अपने मतदाता को ध्यान में रखकर उठाया गया है। पर सादगी की जरूरत सिर्फ आज की नहीं, कल और परसों की भी है, बल्कि तब तक है जब तक हरेक को अपनी नैतिक और बुनियादी जरूरतों के अनुरूप नहीं मिलता।कांग्रेस सरकार खुद देश में नई आर्थिक नीतियों के तहत उपभोग या शाहखर्ची की संस्कृति को बढ़ावा दे रही है, इसलिए हमारे मंत्री अपनी सुविधाएँ कैसे छोड़ें? वैसे भी पैसा जनता का है तो उन्हें दर्द भी क्यों हो? इसीलिए उनके मुँह फूले हुए हैं। उन्हें तो जी आप फर्स्ट क्लास में ही उड़ने दो!