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Written By ND

समस्त मानवता के लिए प्यार था उनके दिल में

समस्त मानवता के लिए प्यार था उनके दिल में -
- पी.एस. नेगी

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एक बार 'चाणक्य' नाम से उन्होंने स्वयं की भर्त्सना करते हुए एक अखबार में लिखा था- 'नेहरू मुँहफट, क्रोधी और दंभी है।' पाठकों की तीव्र प्रतिक्रिया हुई, तब सचाई सामने आई

आज बाल दिवस है, पं. जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन, जिसे प्रतिवर्ष मनाते हैं और जो अब एक औपचारिकता मात्र रह गया है। नई पीढ़ी उस महान सपूत के बारे में कितनी जानकारी रखती है? किंतु उनका स्नेहासिक्त जीवन सबके लिए आज भी प्रेरणादायी है। उनकी बाल-सुलभ सरलता, सत्यता, फुर्ती, जोश और कूट-कूटकर भरी राष्ट्रप्रेम की भावना किसे नहीं छूती! उनका उज्ज्वलतम्‌ पक्ष था समस्त मानवता के लिए उमड़ता प्यार।

नेहरूजी जहाँ भी जाते मानवों का समुद्र उमड़ पड़ता। उनके दर्शन के लिए लोग टूट पड़ते थे। वे राजनीतिज्ञ से एक कवि अधिक थे, एक राजकाजी दुनियादार से एक स्वप्नदृष्टा, एक परंपरावादी से प्रगतिवादी, एक निराशावादी से आशावादी। नेहरू अपनी कमजोरी से वाकिफ थे। एकबार 'चाणक्य' नाम से उन्होंने स्वयं की भर्त्सना करते हुए एक अखबार में लिखा था- 'नेहरू मुँहफट, क्रोधी और दंभी है।' पाठकों की तीव्र प्रतिक्रिया हुई, तब सचाई सामने आई।

हमने कई बार उन्हें उबलते हुए देखा था। एक बार वे अपनी कार से जा रहे थे तभी विद्यार्थियों का समूह सामने आ गया। गाड़ी रुकी। विद्यार्थी ज्ञापन देने आगे बढ़े। नेहरूजी ने आव देखा न ताव और उन्हें झापड़ रसीद करना शुरू कर दिया। बोले- 'मुझे जाना है और तुम मुझे रोकते हो!'

एक बार वे जेल से बाहर निकल रहे थे तभी तूफान आ गया। पहाड़ी रास्ता रुक गया। उस पर उखड़े पेड़ गिर गए। एक स्थानीय नेता ने खड़े होकर प्रार्थना की 'सर, आज यहीं रुक जाते... तूफान...।' पं. नेहरू लाल-पीले हो गए- 'शरम नहीं आती? ये कैसी बातें करते हो! लाओ,मुझे दो कुल्हाड़ी। मैं पेड़ काटता हूँ।' देखते-देखते रास्ता साफ हो गया। पहाड़ों के घुमावदार रास्तों से नेहरूजी की कार दूर गायब हो गई।
आज बाल दिवस है, पं. जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन, जिसे प्रतिवर्ष मनाते हैं और जो अब एक औपचारिकता मात्र रह गया है। नई पीढ़ी उस महान सपूत के बारे में कितनी जानकारी रखती है? किंतु उनका स्नेहासिक्त जीवन सबके लिए आज भी प्रेरणादायी है।


उनका पारा जिस शीघ्रता से चढ़ता, उसी गति से ठंडा भी हो जाता। कृष्ण मेनन लंदन में नेहरूजी के साथ पढ़ते थे। दोनों मित्र थे। नेहरू मंत्रिमंडल में वे रक्षामंत्री बनाए गए थे। नेहरूजी उन्हें भी नहीं छोड़ते थे। कठोर शब्दों में कुछ कह दिया तो मेनन कई दिन तक रूठे रहते।नेहरूजी तो तुरंत भूल जाते और मेनन के लटके चेहरे को देखकर पूछते, 'क्या हो गया?'

यह कहना अपर्याप्त होगा कि पं. नेहरू बहुत दिलदार थे। उनका मस्तिष्क भी वैसा ही तेज था। हैरो में अध्ययन के दौरान एक बार एक शिक्षक ने तत्कालीन मंत्रिमंडल के सदस्यों के नाम पूछे। केवल नेहरूजी ही थे, जिन्होंने सारे के सारे नाम सही-सही गिना दिए। 'ब्लिट्ज' के आर.के. करंजिया ने 'द माइंड ऑफ नेहरू' में उनकी समस्याओं की पकड़ और निदान की क्षमता, स्पष्टता और कुशलता की जमकर प्रशंसा की है।

वे तथ्यों को एक वैज्ञानिक की तरह अनासक्त भाव से देखते थे। रोलेट एक्ट के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन चल रहा था। पं. नेहरू और गोविंद वल्लभ पंत पर लखनऊ में लाठियाँ बरसाई गईं। दोनों घायल हो गए। बाद में पं. नेहरू ने पूरी स्थिति का विश्लेषण करते हुए लिखा- 'मुझे उन अँगरेज सैनिकों पर न क्रोध था न घृणा। आखिर वे अपनी फर्ज अदायगी में ही तो लगे थे।'

'आराम-हराम है' का नारा उन्होंने ही दिया था। स्वयं वे कठोर परिश्रम करते थे। म.प्र. के पूर्व पुलिस प्रमुख रुस्तमजी को थोड़े समय के लिए नेहरूजी के सान्निध्य में कार्य करने का अवसर मिला। अपने संस्मरण में उन्होंने लिखा है, 'मैं उन्हें देख हैरान हो जाता हूँ। कैसे एक वृद्ध-सा व्यक्ति अट्ठारह-अट्ठारह घंटे लगातार काम किए चला जाता है! मध्य रात्रि को लगभग तीन सौ पत्र लिखवाए जाते, जो सुबह उनकी मेज पर हस्ताक्षर के लिए तैयार रहने चाहिए। हमने देखा, वे कार से जा रहे हैं किंतु आँखों पर चश्मा चढ़ाए, नजर फाइल पर गड़ी है। इसके बावजूद आदिवासियों के वस्त्र पहनकर नाचने, रामलीला देखने और राबर्ट फ्रॉस्ट की कविता पढ़ने का समय निकाल लेते थे।'

जब उनके पास कारागार में समय था तो उन्होंने गहन अध्ययन में समय लगाया और 'विश्व इतिहास की झलक' और 'भारत की खोज' जैसी पुस्तकें दुनिया को दीं, जिनकी भाषा और शैली के कारण उन्हें अँगरेजी में लिखने वाले पाँच महान लेखकों में गिना गया है।

सन्‌ 54 में चाऊ एन ताई भारत आए। नेहरूजी उनके 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई' के धोखे में आ गए। उन्होंने तो बौद्धधर्म पर आधारित पंचशील का तोहफा भेंट किया था, लेकिन बदले में उनकी पीठ में छुरा घोंपा गया। 1962 में बिना उकसाए हम पर हमला बोल दिया गया। हम भौंचक्के रह गए। अपार धन की हानि सहनी पड़ी। आज तक चीनियों द्वारा हमारी हड़पी जमीन हमें वापस नहीं लौटाई गई। नेहरूजी के जीवन का यह सबसे अँधेरा और दुखद अध्याय है।

कुछ भी कहें, पं. जवाहरलाल नेहरू एक मील के पत्थर की तरह हमेशा हमें प्रेरणा देते रहेंगे। औपचारिकता निभाने भर की अपेक्षा उनके उज्ज्वल पक्ष पर हमें विद्यार्थियों और युवकों का ध्यान आकृष्ट कर उन्हें उत्प्रेरित करना चाहिए!