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वे तीन धरतीवासी, जो पहले चंद्रयात्री बने

वे तीन धरतीवासी, जो पहले चंद्रयात्री बने - First Humans on Moon
First Humans on Moon : 23 अगस्त के दिन चंद्रयान-3 ने भारत को चंद्रमा पर पहुंचा दिया। जिस प्रकार 54 वर्ष पूर्व अमेरिका के चंद्रयात्रियों ने मानव इतिहास में पहली बार चंद्रमा पर अपने पैर रखे थे, ठीक उसी प्रकार एक न एक दिन भारतीय चंद्रयात्री भी चंद्रमा पर विचरण करेंगे। याद आती है मानवजाति के इतिहास में चंद्रमा की ज़मीन पर सबसे पहले अपना पैर रखने वाले नील आर्मस्ट्रांग की, जिनकी दो ही दिन बाद, 25 अगस्त को 11वीं पुण्यतिथि थी।
   
54 साल पहले 20 जुलाई 1969 के दिन चंद्रमा की तब तक अछूती ज़मीन पर सबसे पहले अमेरिका के नील आर्मस्ट्रांग ने अपने पैर रखे थे। कोई 20 मिनट बाद उनके साथी एडविन ‘बज़’ एल्ड्रिन भी लैंडर यानी अवतरणयान ‘ईगल’ से बाहर निकले। तीसरे साथी माइक (माइकल) कॉलिंस को चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे कमांड-यान ‘कोलंबिया’ में रहना पड़ा।
 
पृथ्वी से लाखों किलोमीटर दूर किसी दूसरे आकाशीय पिंड पर पहुंचने और उतरने की इस असाधारण रोमांचक घटना को दुनिया के करोड़ों लोग टेलीविज़न पर देख या रेडियो पर सुन रहे थे। नील आर्मस्ट्रांग का नाम तो आज भी बहुतों को याद है, लेकिन बाक़ी दोनों को उतनी ख्याति नहीं मिली, जबकि तीनों बहुत ही दिलचस्प लोग थे।
 
नील आर्मस्ट्रांग : चंद्रमा की बात हो और उसकी जमीन पर पैर रखने के बाद नील आर्मस्ट्रांग के इस अमर वाक्य का उल्लेख न हो (यह एक आदमी का छोटा-सा क़दम है, लेकिन मानवता की एक लंबी छलांग) ऐसा संभव नहीं है। उनका जन्म पांच अगस्त 1930 को अमेरिका के ओहायो राज्य में स्थित वापाकोनेता नाम के स्थान से कोई 10 किलोमीटर दूर एक फ़ार्म पर हुआ था। पिता एक सरकारी लेखा परीक्षक (चार्टर्ड एकाउटेंट) थे और मां जर्मन मूल की एक गृहणी।
 
स्कूली दिनों से ही नील आर्मस्ट्रांग को विमानों और उड़ानों में भारी रुचि थी। कार चलाने के ड्राइविंग लाइसेंस से पहले ही मात्र 16 वर्ष की आयु में ही उन्हें विमान उड़ाने का लाइसेंस मिल गया था। बाद में अमेरिकी नौसेना की एक छात्रवृत्ति पर नौसेना के ही एक विश्वविद्यालय में उन्होंने एरोनॉटिकल (विमानन) इंजीनिरिंग की पढ़ाई शुरू की। तीन सत्रों (सेमेस्टर) की पढ़ाई के बाद ही जनवरी 1949 में नौसेना ने नील आर्मस्ट्रांग को सैन्य सेवा के लिए बुला लिया और युद्धक विमान उड़ाने का प्रशिक्षण दिया। नौसेना के विमानचालक के तौर पर ही 20 साल की आयु में आर्मस्ट्रांग को कोरिया युद्ध में भी भाग लेना पड़ा। अपने दस्ते (स्क्वैड्रन) में वे ही सबसे कम उम्र के पायलट थे।
 
1952 में नील आर्मस्ट्रांग ने नौसेना की नौकरी छोड़ दी और फिर से पढ़ाई करने लगे। जनवरी 1955 में एरोनॉटिक्स में स्नातक (ग्रेजुएट) की डिग्री के साथ पढ़ाई पूरी की। 1962 से उन्होंने अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के लिए काम करना शुरू किया। चार वर्ष बाद उन्हें अमेरिकी अंतिरक्ष यात्राओं के ‘जेमिनी’ कार्यक्रम के अधीन ‘जेमिनी-8’ अंतरिक्षयान के कमांडर के तौर पर पहली अंतरिक्ष यात्रा का मौका मिला। इस उड़ान के दौरान उन्हें और उनके सहयोगी डेविड स्कॉट को पहली बार अंतरिक्ष में दो यानों को आपस में जोड़ना था।
 
लेकिन इस प्रयास के समय ‘जेमिनी-8’ डगमगाने लगा। नील आर्मस्ट्रांग ने किसी तरह उसे संभाला, पर इस अभ्यास को समय से पहले ही रोक देना पड़ा। ‘जेमिनी’ कार्यक्रम से जुड़ा होने के कारण नील आर्मस्ट्रांग का नाम उन छह कमांडरों में शामिल नहीं था, जो भावी ‘अपोलो’ कार्यक्रम के लिए चुने गए थे। उनका नाम तब शामिल किया गया, जब 27 जनवरी 1967 को एक दुर्घटना हो गई। उस दिन ‘अपोलो-1’ में ज़मीन पर एक अभ्यास के समय आग लग जाने से तीन अंतरिक्ष यात्रियों की मौत हो गई थी।
 
एक ही साल बाद, छह मई 1968 के दिन नील आर्मस्ट्रांग स्वयं भी एक दुर्घटना में बाल-बाल बचे। भावी चंद्रयात्रा के समय परिक्रमायान से अलग होकर उड़नखटोलेनुमा जिस अवतरण यान से उन्हें चांद की सतह पर उतरना था, उसके एक नमूने के साथ उतरने का आकाश में अभ्यास करते समय वह जलता हुआ ज़मीन पर गिरने लगा। आर्मस्ट्रांग अंतिम क्षण में उससे अलग होकर किसी तरह अपनी जान बचाने में सफल हो गए। हालांकि इस दुर्घटना के तुरंत बाद वे अपने कामों में ऐसे व्यस्त भी हो गए, मानों कुछ हुआ ही नहीं था।
 
20 जुलाई, 1969 को चंद्रमा पर उतरते समय भी उन्हें ईंधन की हर बूंद बचाते हुए बड़ी सावधानीपूर्वक अपने उड़नखटोले ‘ईगल’ को ख़तरनाक़ चट्टानों पर उतरने से बचाना पड़ा। 10-15 सेकंड बाद ही उतरान के लिए नियत ईंधन ख़त्म हो जाने वाला था। वापसी के बाद एक बार उन्होंने कहा, पृथ्वी पर वापस लौट सकने की संभावना 90 प्रतिशत थी, पर चंद्रमा पर सकुशल उतर सकने की संभवना 50:50 प्रतिशत ही थी।
 
चंद्रयात्रा से लौटने के बाद 1971 में नील आर्मस्ट्रांग ने नासा को छोड़ दिया। 1971 से 1979 तक वे सिनसिनैटी विश्वविद्यालय में हवाई और अंतरिक्ष यात्रा के प्रोफेसर रहे। बाद में वे सार्वजनिक जीवन से धीरे-धीरे दूर होते गए। एकाकी बन गए। इंटरव्यू इत्यादि नहीं देते थे। वे चाहते थे कि अमेरिका को मंगल ग्रह पर पहुंचने का अभियान चलाना चाहिए। राष्ट्रपति बराक ओबामा के शासनकाल में नील आर्मस्ट्रांग उनकी इस बात के लिए आलोचना करने लगे कि वे चंद्रमा पर फिर किसी को नहीं भेजना चाहते। 2012 में दिल की एक बाईपास सर्जरी के बाद 25 अगस्त 2012 को उनकी मृत्यु हो गई।
 
एडविन 'बज़' एल्ड्रिन : लोग उन्हें 'बज़' एल्ड्रिन कहते थे। वे नील आर्मस्ट्रांग द्वारा चंद्रमा की सतह पर पैर रखने के 20 मिनट बाद ‘ईगल’ नाम के अवतरणयान से बाहर निकले थे, इसलिए चांद पर पैर ऱखने वाले ‘दूसरे’ यात्री कहलाए। ‘पहला’ कहलाने का श्रेय सदा के लिए नील आर्मस्ट्रांग के नाम तय हो गया। एडविन ‘बज़’ एल्ड्रिन का जन्म 20 जनवरी 1930 के दिन मॉन्टक्लेयर, न्यू जर्सी राज्य में हुआ था। उनके पिता सेना में विमान चालक रह चुके थे।
 
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उन्हें फिर से सेना के लिए विमान चलाने पड़े। एडविन ‘बज़’ एल्ड्रिन के नाम के साथ जुड़ा ‘बज़’ शब्द वास्तव में अंग्रेज़ी के ‘बज़र’ (गुंजन करने वाला) का अपभ्रंश है, जो उन्हें अपनी बहन से मिला था। बहन जब भी उन्हें ‘ब्रदर’ (भाई) कहना चाहती थी, तो उसके मुंह से निकली ध्वनि ‘बज़’ जैसी सुनाई पड़ती थी। इसी से उन्हें ‘बज़’ एल्ड्रिन कहा जाने लगा। 1988 में उन्होंने अपने नाम से ‘बज़’ को हटाकर उसकी जगह ‘यूजीन’ जोड़ दिया।
 
एडविन एल्ड्रिन ने अमेरिका की एक सैनिक अकादमी में मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते हुए 1951 में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे वायुसेना में भर्ती हो गए। युद्धक विमान चालक के रूप में उन्हें भी कोरिया युद्ध में भाग लेना पड़ा। हवाई मुठभेड़ों में उन्होंने उस समय के दो मिग-15 विमान भी मार गिराए। कोरिया युद्ध के अंत के बाद वे अमेरिका में सैन्य सेवा देते रहे। 1950 वाले दशक के मध्य में वे जर्मनी में अमेरिका के एक वायुसैनिक अड्डे बिटबुर्ग पर भी तीन वर्ष तैनात रहे।
 
1959 में एडविन एल्ड्रिन ने फिर से पढ़ाई शुरू कर दी। इस बार उन्होंने प्रसिद्ध ‘मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी’ (एमआईटी) में हवाई और अंतरिक्ष तकनीक की पढ़ाई की और 1963 में डॉक्टर की उपाधि प्राप्त की। उन्हीं दिनों अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा अंतरिक्ष यात्रियों की 14 सदस्यों वाली तीसरी टीम में भर्ती के लिए आवेदन आमंत्रित कर रही थी। एडविन एल्ड्रिन ने भी आवेदन किया। डॉक्टर की उपाधि वाले उस समय वे ऐसे पहले अंतरिक्ष यात्री बने, जो औरों की तरह पहले कोई टेस्ट-पायलट नहीं रह चुका था। उन्हें ‘जेमिनी’ अंतरिक्षयानों वाली उड़ानों की योजना बनाने का काम सौंपा गया।
 
फ़रवरी 1966 में एक विमान दुर्घटना में जेमिनी-9 की उड़ान के लिए नियत दो अंतरिक्ष यात्रियों की मृत्यु हो जाने से एडविन एल्ड्रिन को उनमें से एक का स्थान मिला। जेमिनी-9 को जून 1966 में अंतरिक्ष में भेजा गया। जेमिनी-9 की ही तरह अपोलो-11 की उड़ान में भी एडविन एल्ड्रिन का नाम शुरू से ही शामिल नहीं था। इस बार भी उनका चयन इसलिए हुआ, क्योंकि अपोलो-1 के साथ ज़मीन पर ही 27 जनवरी 1967 वाले परीक्षण के दौरान उसमें आग लग जाने से तीन भावी अंतरिक्ष यात्री उसमें जलकर भस्म हो गए थे।
 
भाग्य की भी क्या विडंबना है कि किसी का दुर्भाग्य किसी का सौभाग्य बन जाता है। इसी दुखद दुर्घटना ने नील आर्मस्ट्रांग के लिए भी अपोलो-11 में जगह बनाई और इसी ने एल्ड्रिन को भी उसमें जगह दिलाई। इस दुर्घटना के बिना ये दोनों चंद्रमा पर सबसे पहले एक साथ विचरण करने वाले अंतरिक्ष यात्री नहीं बन पाए होते। एडविन एल्ड्रिन को तो अपने सौभाग्य के लिए दो बार दूसरों के जानलेवा दुर्भाग्य का आभारी बनना पड़ा। पहली बार फ़रवरी 1966 वाली विमान दुर्घटना में मारे गए जेमिनी-9 के दोनों भावी अंतरिक्ष यात्रियों का, और दूसरी बार अपोलो-1 में जल मरे तीन अन्य साथियों का।
 
एल्ड्रिन ने जुलाई 1971 में नासा का साथ छोड़ दिया। वे कैलिफ़ोर्निया में अमेरिकी सेना के ‘एडवर्ड्स एयर फ़ोर्स बेस’ में अंतरिक्ष यात्रा प्रशिक्षण केंद्र के निदेशक बन गए। जल्द ही उन्हें यह काम भी नापसंद लगने लगा। वे विषाद (डिप्रेशन) से घिरने लगे। 1972 में उन्होंने इस्तीफा दे दिया और लक्ष्यहीन जीवन बिताने लगे। शराबी बन गए। उन्होंने तीन बार शादियां की थीं, तीनों टूट गईं।
 
लंबे उपचार आदि के बाद 1978 में एडविन एल्ड्रिन ने शराबख़ोरी से मुक्ति पाई। एक बार उन्होंने अपने एक परिचित से कहा था, ‘एक दिन आप एक महान हीरो होते है और किसी दूसरे दिन कार चलाने के दौरान कोई पुलिसवाला आप को रोक कर चालान काट देता है, क्योंकि आपकी कार बहुत तेज़ थी, मेरी जिंदगी का सबसे मुश्किल हिस्सा चांद पर जाना नहीं, बल्कि उससे निपटना था, जिसका मुझे (पृथ्वी पर) वापसी के बाद सामना करना पड़ा। यही बात उन्होंने अपनी आत्मकथा 'रिटर्न टू अर्थ' (ज़मीन पर वापसी) में भी कही है।
 
93 साल के हो चुके एडविन एल्ड्रिन ने इस बीच अपने आप को संभाल लिया है और चौथी बार विवाह भी किया है। चौथी पत्नी इस समय 63 साल की है। इस आयु में भी वे सामाजिक और व्यावसायिक रूप से सक्रिय हैं। दिसंबर 2016 में 86 वर्ष की आयु में उन्होंने दक्षिणी ध्रुव के ‘आमुन्दसन-स्कॉट स्टेशन’ पर जाकर सबसे अधिक आयु में दक्षिणी ध्रुव पर जाने का एक कीर्तिमान भी बनाया है।
 
माइकल (माइक) कॉलिंस : माइकल कॉलिंस के भाग्य में यह पछतावा लिखा था कि वे 3,84,403 किलोमीटर दूर चंद्रमा के पास पहुंचकर भी उस पर अपने पैर नहीं रख सकेंगे। उन्हें सारे समय चंद्रमा के फेरे लगा रहे कमांडो यान ‘कोलंबिया’ में बैठे रहकर चंद्रमा और पृथ्वी के बीच रेडियो संपर्क बनाए रखने वाले रिले-स्टेशन की भूमिका निभानी पड़ी। उनकी इस भूमिका के बिना न तो अमेरिका में ह्यूस्टन स्थित उड़ान नियंत्रण केंद्र और चंद्रमा पर विचरण कर रहे नील स्ट्रांग तथा एडविन एल्ड्रिन के बीच कोई संपर्क रहा होता और न दुनियाभर में करोड़ों लोग इस विचरण को रेडियो-टीवी पर उसी क्षण देख-सुन रहे होते।
 
माइकल कॉलिंस का जन्म 31 अक्टूबर, 1930 को इटली की राजधानी रोम में हुआ था। उनके पिता उस समय रोम के अमेरिकी दूतावास में सैनिक-अताशी थे। उनकी स्कूली पढ़ाई वॉशिंगटन में हुई। स्नातक डिग्री उन्होंने 1952 में अमेरिका में वेस्ट प्वाइंट की सैन्य अकादमी से प्राप्त की। वहीं उन्होंने युद्धक विमान चलाने और टेस्ट पायलट बनने का प्रशिक्षण भी पाया। वे भी अमेरिकी वायुसैनिक बने। कई अमेरिकी वायुसैनिक अड्डों पर तैनाती के बाद 1954 से 1957 तक फ्रांस में भी तैनात रहे। वापस बुलाए जाने के बाद उन्हें कैलिफ़ोर्निया के ‘एडवर्ड्स एयर फ़ोर्स बेस’ पर टेस्ट पायलट प्रशिक्षक का काम सौंपा गया।
 
1960 वाले दशक की शुरुआत में जब नासा को भावी अंतरिक्ष यात्रियों की तलाश थी तो यात्रियों की दूसरी टीम में भर्ती होने के लिए कॉलिंस ने भी आवेदन किया, लेकिन उन्हें नहीं लिया गया। कुछ समय बाद भावी अंतरिक्षयात्रियों की तीसरी टीम के लिए भी जब आवेदन का मौका आया तो कॉलिंस ने एक बार फिर भाग्य आजमाया। इस बार उन्हें ले लिया गया।
 
14 भावी अंतरिक्षयात्रियों की इस टीम को 18 अक्टूबर, 1963 को सार्वजनिक तौर पर पेश किया गया। जुलाई 1965 में माइकल कॉलिंस को ‘जेमिनी-7’ के ‘अतिरिक्त’ पायलट के तौर पर चुना गया। ‘जेमिनी-7’ को उसी साल दिसंबर में उड़ना था, लेकिन अतिरिक्त पायलट होने के नाते कॉलिंस की ज़रूरत नहीं पड़ी। पायलट के तौर पर पहली उड़ान का मौका उन्हें तब मिला, जब ‘जेमिनी-10’ के उड़ने की बारी आई। 18 जुलाई से 21 जुलाई 1966 के बीच हुई यह उड़ान ऐसी पहली उड़ान थी, जिसमें अंतरिक्ष में दो यानों का संयोजन होना था और अंतरिक्षयान से बाहर खुले आकाश में निकलना भी था।
 
अपने स्पेस सूट में माइकल कॉलिंस दो बार ‘जेमिनी-10’ से बाहर निकले। पहली बार बाहर निकलकर उन्हें अंतरिक्ष से पृथ्वी के और तारों के फ़ोटो लेने थे। दूसरी बार उन्हें कई महीनों से अंतरिक्ष में पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे एक उपग्रह (सैटेलाइट) के पास जाकर उससे एक ऐसी प्लेट अलग करनी और लानी थी, जिस पर सूक्ष्म उल्काओं के निशान हो सकते थे। इस तरह माइकल कॉलिंस ऐसे पहले अंतरिक्ष यात्री बन गए, जो दो बार अपने अंतरिक्षयान से बाहर गया और जो अंतरिक्ष में एक उड़ती हुई चीज़ से दूसरी उड़ती हुई चीज़ तक भी गया।
 
दिसंबर 1968 में माइकल कॉलिंस को अपोलो 8 के साथ चंद्रमा की पहली परिक्रमा-उड़ान के लिए जाना था, पर गर्दन के पास रीढ़ की हड्डी में तकलीफ़ के कारण वे नहीं जा सके। उनका ऑपरेशन हुआ, जिसके बाद उन्हें गर्दन में कई महीनों तक एक विशेष कॉलर पहने रखना पड़ा। जुलाई 1969 की अपोलो-11 की उड़ान के साथ चंद्रमा तक जाने की उनकी कामना पूरी हुई, भले ही उन्हें उसकी ज़मीन पर अपने पैर रखने का सुख-सौभाग्य नहीं मिला। नासा ने उन्हें अपोलो-14 का अतिरिक्त कमांडर बनाने और अपोलो-17 का कमांडर बनकर स्वयं भी चंद्रमा पर अपने पैर रखने का प्रस्ताव दिया, पर उन्होंने दोनों प्रस्ताव ठुकरा दिए और 1970 में नासा से नाता तोड़ लिया।
 
कुछ महीने अमेरिकी विदेश मंत्रालय में एक ऊंचे पद पर काम करने के बाद 1971 में माइकल कॉलिंस वॉशिंगटन में राष्ट्रीय हवाई और अंतरिक्ष यात्रा संग्रहालय के निदेशक बने। 1980 में उन्होंने यह पद भी छोड़ दिया और अपनी एक व्यावसायिक कंपनी बनाई। बाद में उन्होंने कई किताबें भी लिखीं। माइकल कॉलिंस के सम्मान में चंद्रमा के एक क्रेटर और सौरमंडल के एक क्षुद्रग्रह को उनका नाम दिया गया है। अपने जीवनकाल के अंतिम वर्षों में वे सार्वजनिक जीवन से दूर हो गए।

वे अपना समय साइकल चलाने, तैराकी करने, मछली पकड़ने के लिए कांटा लगाने, चित्रकारी करने, खाना बनाने, पढ़ने-लिखने और शेयर बाज़ार के उतार-चढ़ाव जैसी चीज़ों पर नज़र रखने में लगाने लगे। उनके सिर के बाल एकदम झड़ गए। शरीर से बहुत दुबले हो गए। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, मैं अपने जीवन से खुश हूं। मेरी क़ब्र के पत्थर पर ‘खुश़’ लिखना। 28 अप्रैल, 2021 के दिन माइकल कॉलिंस ने अंतिम सांस ली।
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