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Written By समय ताम्रकर

तमाशा : फिल्म समीक्षा

तमाशा : फिल्म समीक्षा - Tamasha, Ranbir Kapoor, Deepika Padukone, Imtiaz Ali, Samay Tamrakar, Film Review
अपने आपको जाहिर करने का साहस बहुत कम में होता है और संसार में लगभग हर व्यक्ति तरह-तरह के मुखौटे लगाए घूमता है। मुखौटे की आड़ में उसके अंदर का मूल इंसान गुम हो जाता है और इस नकलीपन को ही वह असली मान लेता है। कुछ मुखौटे हमें सामाजिक दबाव के तहत लगाना पड़ते हैं। मसलन ज्यादातर सवाल पूछा जाता है कि आप कैसे हैं? भले ही आप बुरे दौर से गुजर रहे हों, लेकिन शिष्टाचार के मुखौटे के कारण यह जानते हुए भी सामने वाला केवल औपचारिकता निभा रहा है कहना पड़ता है कि मैं अच्छा हूं। इसी विचार को निर्देशक इम्तियाज अली ने 'तमाशा' में प्रस्तुत किया है।
 
दिल और दुनिया के बीच की जगह कोर्सिका में दो अजनबी मिलते हैं। वे अपना असली परिचय नहीं देते हैं। लड़का अपने आपको डॉन बताता है और लड़की मोना डार्लिंग। तय करते हैं कि वे अपने बारे में झूठ बोलेंगे और यहां के बाद जिंदगी में फिर कभी नहीं मिलेंगे। 
 
इस झूठ के चक्कर में लड़के का असली रूप उजागर होता है और लड़की उसे चाहने लगती है। कुछ दिन साथ गुजारने के बाद वे भारत अपने-अपने घर लौट जाते हैं। चार वर्ष बाद उनकी फिर मुलाकात होती है। इस बार असली परिचय होता है। लड़का अपना नाम वेद (रणबीर कपूर) औल लड़की तारा (दीपिका पादुकोण) बताती है। 
 
वेद को तारा कोर्सिका वाले डॉन से बिलकुल अलग पाती है। वह कुछ ज्यादा ही शिष्ट है और बोर किस्म का है। घड़ी के मुताबिक जीता है और उसमें से वो मस्ती-रोमांच गायब है। तारा को वेद प्रपोज करता है, लेकिन उसे यह बात बताकर वह रिजेक्ट कर देती है। इससे वेद को चोट पहुंचती है। उसे समझ नहीं आता कि असल में वह है क्या? वह डॉन उसकी असलियत है जिसका वह किरदार निभा रहा था या वह वेद का किरदार निभा रहा है जिसे वह असलियत समझता है। उसकी भीतरी यात्रा शुरू होती है। वह अपने को खोजता है। 
इम्तियाज अली द्वारा चुना गया विषय दुरुह है और इस पर मनोरंजक फिल्म गढ़ना बहुत बड़ी चुनौती है, लेकिन इस पर एक अच्छी फिल्म गढ़ने में इम्तियाज सफल हो गए हैं। इंटरवल तक फिल्म बहती हुई लगती है। रणबीर और दीपिका के रोमांस में ताजगी महसूस होती है। एक-दूसरे से झूठ बोलकर मनचाहा करने वाला आइडिया लुभाता है। 
 
इंटरवल के बाद फिल्म थोड़ी लड़खड़ाती है जब वेद की अंदर की यात्रा शुरू होती है। इसमें थ्री इडियट्स वाला ट्रेक भी शामिल हो जाता है जब वेद को उसके पिता इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए दबाव डालते हैं जबकि वह कुछ और करना चाहता है। यह ट्रेक इतना असरदायक नहीं है। 
 
 
फिल्म कहती है औसत किस्म के लोग अपने सपनों को तिलांजलि देकर एक ऐसी दौड़ में शामिल हो जाते हैं जिन्हें पता ही नहीं होता कि वे कहां जा रहे हैं। वे एक मशीन बन जाते हैं और मन मारते हुए रूटीन लाइफ जीते हैं। 
 
खैर, फिल्म के नायक में तो एक टैलेंट छिपा हुआ था, लेकिन ज्यादातर लोगों में तो किसी किस्म का हुनर नहीं होता और पैसे कमाने के लिए उन्हें रूटीन लाइफ की मार झेलना पड़ती है। बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी मर्जी का काम कर पाते हैं। 
 
इम्यिाज अली का निर्देशन बेहतरीन है। वेद की कहानी को उन्होंने पौराणिक कथाओं  से लेकर तो आधुनिकता से जोड़ा। उनके प्रस्तुतिकरण में  स्टेज पर चलने वाले तमाशे का मजा भी मिलता है। उन्होंने सिनेमा के स्क्रीन को विभिन्न रंगों से संवारा है और गीतों के जरिये कहानी को आगे बढ़ाया है। एक अलग तरह के विचार और प्रेम कहानी को स्क्रीन पर दिखाना सराहनीय है। उन्होंने न कहते हुए भी बहुत कुछ कहा है।  
 
रवि वर्मन, इरशाद कामिल और एआर रहमान का काम उल्लेखनीय है। इरशाद कामिल ने बेहतरीन बोल लिखे हैं जो कहानी को आगे बढ़ाते हुए पात्रों की मनोदशा को व्यक्त करते हैं। रहमान की धुनें भी तारीफ के काबिल हैं। मटरगश्ती, अगर तुम साथ हो, चली कहानी, सफरनामा सुनने लायक हैं। रवि वर्मन का कैमरावर्क जोरदार है और उन्होंने फिल्म को दर्शनीय बनाया है।  
 
रणबीर कपूर की अदाकारी बेहतरीन है। आजाद पंछी और लकीर के फकीर वाले दोहरे व्यक्तित्व को उन्होंने बिलकुल अलग तरीके से दर्शाया है। दर्शकों को लगता है कि दीपिका पादुकोण का रोल और लंबा होना चाहिए था और यह दीपिका की तारीफ ही है। रणबीर से एक रेस्तरां में दोबारा मिलने वाले शॉट में उनके खुशी के भाव देखने लायक हैं।
 
रंगों से सराबोर, संगीतमय और उम्दा प्रस्तुतिकरण के कारण यह तमाशा देखने लायक है। 
 
बैनर : यूटीवी मोशन पिक्चर्स, नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेंट
निर्माता : साजिद नाडियाडवाला 
निर्देशक : इम्तियाज अली
संगीत : एआर रहमान
कलाकार : रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण 
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 31 मिनिट 28 सेकंड
रेटिंग : 3.5/5