मराठी में बनी सुपरहिट फिल्म 'सैराट' का हिंदी रीमेक 'धड़क' नाम से बनाया गया है। जिन्होंने 'सैराट' देखी है उन्हें तो 'धड़क' निराश करती ही है और जिन्होंने नहीं भी देखी है उन्हें भी 'धड़क' प्रभावित नहीं कर पाती। धड़क के निर्देशक शशांक खेतान रीमेक में मूल फिल्म की आत्मा नहीं डाल पाए और न ही अपनी ओर से कुछ दे पाए, जिसका सीधा असर फिल्म पर पड़ा है।
धड़क की खासियत है कि इसके हीरो-हीरोइन 21-22 बरस के हैं और लंबे समय बाद इतने कम उम्र के हीरो-हीरोइन परदे पर रोमांस करते दिखाई दिए हैं। लेकिन इस ताजगी को खत्म होने में ज्यादा देर नहीं लगती क्योंकि फिल्म टिपिकल बॉलीवुड फॉर्मूलों में जकड़ी नजर आती है।
उदयपुर में रहने वाली पार्थवी (जाह्नवी कपूर) के पिता रतन सिंह (आशुतोष राणा) का नेता के रूप में दबदबा है। मधुकर (ईशान खट्टर) एक मध्यमवर्गीय परिवार से है। उसके पिता एक छोटा होटल चलाते हैं। पार्थवी को मधुकर के मुकाबले ऊंची जाति का बताया गया है। जाति और आर्थिक अंतर होने के बावजूद पार्थवी और मधुकर एक-दूसरे को चाहने लगते हैं।
यह बात जब रतन सिंह और उसके बेटे को पता चलती है तो वे मधुकर को जेल में डलवा देते हैं। मधुकर को पार्थवी अपने साथ भगा ले जाती है। उदयपुर से मुंबई, नागपुर होते हुए वे कोलकाता पहुंच जाते हैं। वहां दोनों नौकरी कर जिंदगी की नई शुरुआत करते हैं। उनके यहां बेटे का भी जन्म होता है। इसके बाद स्तब्ध कर देने वाले अंत से फिल्म समाप्त होती है।
फिल्म का पहला हाफ उदयपुर में फिल्माया गया है और पार्थवी-मधुकर की प्रेम कहानी को दर्शाया गया है। यह प्रेम बहुत ज्यादा फिल्मी और बनावटी लगता है। दोनों की प्रेम की त्रीवता को दर्शक महसूस नहीं कर पाते हैं। निर्देशक पुरजोर प्रयास करते हैं कि उनके दोनों मुख्य किरदारों का प्रेम दर्शकों के दिल को छू सके, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसा नहीं हो पाता है।
दोनों के बीच की नोक-झोक फॉर्मूलाबद्ध है। शुरुआत में मधुकर का एक तरफा प्यार दिखाया गया है, लेकिन पार्थवी के दिल में उसके लिए जगह बनाने वाले दृश्य बेहत सतही है और फिल्म देखते हुए यह मजबूरन मानना पड़ता है कि अब पार्थवी भी मधुकर को चाहने लगी है। इस रोमांस के बीच मधुकर के दोस्तों के जरिये हास्य पैदा करने की कोशिश की गई है, लेकिन इक्का-दुक्का दृश्यों में ही हंसी आती है।
इंटरवल के पहले वाला हिस्सा तो किसी तरह झेला जा सकता है, लेकिन इंटरवल के बाद जब कहानी कोलकाता शिफ्ट होती है तो फिल्म बिखर जाती है। इंटरवल से लेकर तो फिल्म के अंत तक निर्देशक को फिल्म खींचना भारी पड़ गया क्योंकि उसके पास दिखाने को कुछ भी नहीं था। रोमांस, कॉमेडी, गाने सब कुछ गायब हो जाते हैं। हीरो-हीरोइन के संघर्ष को दिखाने की असफल कोशिश की गई है।
कोलकाता में दोस्तों के सामने मधुकर अजीब सा व्यवहार क्यों करने लगता है, समझ के परे है। पार्थवी अपने घर (पिता का घर) को होटल क्यों कहती हैं? इसका उत्तर नहीं मिलता। रतन सिंह को बेहद शक्तिशाली नेता दिखाया गया है। वह अपनी बेटी को इतने वर्षों में भी खोज पाने में क्यों असफल रहता है? ये सवाल सेकंड हाफ में परेशान करते हैं और फिल्म भी उबाने लगती है।
फिल्म का क्लाइमैक्स दंग कर देता है। बिना किसी संवाद और बैकग्राउंड म्युजिक के ये बेहद प्रभावी बन गया है।
निर्देशक के रूप में शशांक खेतान न पार्थवी-मधुकर के रोमांस को उभार पाए और न ही जातिगत समीकरण को ठीक से दर्शा पाए। रतन सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले सीन निहायत ही उबाऊ हैं और फिल्म की कहानी से तालमेल ही नहीं बैठा पाते।
अजय-अतुल का संगीत फिल्म का प्लस पाइंट है। 'धड़क', 'झिंगाट', 'पहली बार' की न केवल धुन अच्छी है बल्कि अमिताभ भट्टाचार्य ने लिखे भी अच्छे हैं। 'झिंगाट' जैसे हिट गीत का फिल्मांकन निराशाजनक है।
धड़क से श्रीदेवी की बेटी जाह्नवी कपूर ने अपनी शुरुआत की है। उनका अभिनय सीन दर सीन अच्छे से बुरा होता रहता है। बहुत ज्यादा एक्सप्रेशन्स उनके चेहरे पर आते नहीं हैं, लेकिन उम्मीद है कि वे दो-तीन फिल्मों के बाद सीख जाएंगी। जाह्नवी के मुकाबले ईशान खट्टर बेहतर अभिनेता सिद्ध हुए हैं। एक लड़की के प्रेम में डूबे लड़के के किरदार को उन्होंने अच्छी तरह से जिया है। ईशान के दोस्तों के रूप में श्रीधर और अंकित बिष्ट का अभिनय अच्छा है। आशुतोष राणा जैसे कलाकार को निर्देशक ने बरबाद कर दिया है।
कुल मिलाकर 'धड़क' एक औसत दर्जे की फिल्म है। मधुर गाने और कुछ अच्छे दृश्य पूरी फिल्म का भार नहीं संभाल पाते।