राजीव ढींगरा ने फिल्म फिरंगी की कहानी लिखी है और निर्देशन भी किया है। कहानी लिखते समय कहीं न कहीं उनके दिमाग में 'लगान' थी। लगान की तरह फिरंगी भी अमिताभ बच्चन की आवाज के साथ शुरू होती है और आजादी के पहले की कहानी को दिखाती है जब फिरंगियों का भारत पर राज था।
1921 का समय फिल्म में दिखाया गया है यानी कि आज से 96 वर्ष पहले की बात है। यदि ये बात नहीं बताई जाए तो लगे कि आज का ही कोई गांव देख रहे हैं क्योंकि फिल्म में अतीत वाला वो लुक और फील ही पैदा नहीं होता है। निर्देशक और लेखक से इस मामले में चूक हो गई और दर्शक फिल्म से कनेक्ट ही नहीं हो पाते हैं।
फिरंगी की कहानी भी साधारण है। मंगतराम उर्फ मंगा (कपिल शर्मा) एक अंग्रेज मार्क डेनियल (एडवर्ड सनेनब्लिक) का अर्दली है। उसे गांव की एक लड़की सरगी (ईशिता दत्ता) से प्यार हो जाता है। सरगी के दादा गांधीजी की राह पर चलते हैं और सरगी का विवाह मंगा से इसलिए नहीं होने देते क्योंकि वह अंग्रेजों की नौकरी करता है।
राजा (कुमुद मिश्रा) के साथ मिलकर मार्क गांव की जमीन पर शराब की फैक्ट्री डालना चाहता है। गांव के लोगों का दिल जीतने की कोशिश में मंगा, मार्क और राजा से बात करता है, लेकिन वे धोखे में गांव वालों से जमीन बेचने के कागजातों पर अंगूठा लगवा लेते हैं और मंगा फंस जाता है। राजा की तिजोरी से कागज चुराने की योजना मंगा बनाता है जिसमें कुछ गांव वाले उसकी मदद करते हैं।
फिल्म की शुरुआत अच्छी है जब सरगी को देख मंगा उसे दिल दे बैठता है। कुछ सीन अच्छे बनाए गए हैं और फिल्म को सॉफ्ट टच दिया गया है। भोले-भाले गांव वाले और खुशमिजाज मंगा को देखना अच्छा लगता है, लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है वैसे-वैसे अपना असर खोने लगती है। मंगा-सरगी की लव स्टोरी से जब फिल्म शराब फैक्ट्री और जमीन के कागजों वाले मुद्दे पर शिफ्ट होती है, हांफने लगती है।
जिस तरह से गांव वालों को धोखे में रखकर राजा कागज पर उनके अंगूठे लगवा लेता है वो दर्शाता है कि लेखक कुछ नया नहीं सोच पाए जबकि यह कहानी का अहम मोड़ है। शरबत में नशे की दवाई मिलाने वाली बात बीसियों बार दोहराई जा चुकी है। फिल्म का क्लाइमैक्स बहुत लंबा है जब राजा की तिजोरी से मंगा कागज चुराता है, लेकिन इसमें कोई थ्रिल नहीं है। सब कुछ आसानी से हो जाता है।
फिल्म की सबसे बड़ी समस्या इसकी लंबाई है। 160 मिनट तक दर्शकों को बांधने का मसाला निर्देशक के पास मौजूद नहीं था और बेवजह फिल्म को लंबा खींचा गया है। कुछ सीन बेहद उबाऊ हैं और लगता है कि फिल्म का संपादन करने वाला ही सो गया। फिल्म को आसानी से 30 मिनट छोटा किया जा सकता है।
फिरंगी निर्देशित करते समय निर्देशक राजीव ढींगरा पर कई फिल्मों का प्रभाव रहा। शुरुआत से लेकर अंत तक कई दृश्यों को देख आपको कई बार लगेगा कि इस तरह का सीक्वेंस देख चुके हैं। वे दर्शकों का मनोरंजन करने में भी कामयाब नहीं हुए। जरूरी नहीं है कि कपिल शर्मा हमेशा कॉमेडी करें, लेकिन कपिल की फिल्म है तो दर्शक इस उम्मीद से टिकट खरीदते हैं कि कुछ ठहाके लगाने को मिलेंगे, लेकिन ऐसे मौके नहीं के बराबर आते हैं। कपिल के कॉमेडी पक्ष की पूरी तरह से उपेक्षा कर दी गई है जो के फिल्म के हित में ठीक बात नहीं है।
कपिल शर्मा अपने अभिनय में उतार-चढ़ाव नहीं ला पाए। ज्यादातर समय उनके चेहरे पर एक जैसे भाव रहे हैं। ईशिता दत्ता को करने को ज्यादा कुछ नहीं था। शुरुआती मिनटों बाद तो उन्हें भूला ही दिया गया। कुमुद मिश्रा, एडवर्ड सननेब्लिक, अंजन श्रीवास्तव, राजेश शर्मा, मोनिका गिली अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। अन्य सपोर्टिंग एक्टर्स का काम भी ठीक है।
फिल्म की सिनेमाटोग्राफी औसत है। लाइट कम रखने का निर्णय सही नहीं कहा जा सकता है। संगीत के मामले में फिल्म कमजोर है और गानों के लिए ठीक सिचुएशन भी नहीं बनाई गई है।
कपिल की फिल्म में कॉमेडी का अभाव और फिल्म की लंबाई 'फिरंगी' की सबसे बड़ी समस्या है।