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Written By समय ताम्रकर

शाका लाका बूम बूम

शाका लाका बूम बूम बॉबी देओल उपेन पटेल सेलिना जेटली सुनील दर्शन
एक अच्छी कहानी और संगीत पर किस तरह खराब फिल्म बनाई जा सकती है ये ‘शाका लाका बूम बूम’ देखकर समझा जा सकता है। निर्देशक ने एक अच्छी कहानी का चुनाव किया था जिस पर बढि़या फिल्म बनाई जा सकती थी। इसमें उन सारे मसालों की संभावनाएं थी जो आम दर्शकों को पसंद आते है, लेकिन फिल्म की पटकथा इतनी ढीली है कि दर्शकों का फिल्म में बैठना मुश्किल हो जाता है। उसे कुछ भी समझ में नहीं आता कि क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है? लेकिन यह बात समझ में आ जाती है कि दिमाग पर जोर डालने की जरूरत नहीं है, जो निर्देशक दिखा रहा है वह चुपचाप झेलो। मनोरंजन के नाम पर भी कुछ नहीं है। न कॉमेडी है, न एक्शन है और न ही रोमांस। एक भी दृश्य ऐसा नहीं है जो अच्छा लगे। पटकथा पर बिलकुल भी मेहनत नहीं की गई है। पूरी फिल्म बोझिल और बीमार सी दिखाई देती है।

कहानी है एजे (बॉबी देओल) की जो रॉक स्टार है। जिसके गीत-संगीत की दुनिया दीवानी है। एजे को एक-एक धुन बनाने पर जमकर मेहनत करनी पड़ती है। एजे चाहता है कि संगीत की दुनिया में कोई भी उसे आगे नहीं निकले। एजे में तब असुरक्षा की भावना आ जाती है जब वह रैजी (उपेन पटेल) से मिलता है। रैजी नैसर्गिक प्रतिभा का धनी है। संगीत उसकी रगों में बहता है। एजे को लगता है कि रैजी का संगीत अगर दुनिया के सामने आ गया तो उसे कोई नहीं पूछेगा। एजे रूही (कंगना) को चाहता है लेकिन रूही रैजी को पसंद करती है। शीना (सेलिना जेटली) रैजी को आगे बढ़ने में मदद करती है और उसे चाहती भी है। जब वह देखती है कि रैजी रूही को प्यार करता है तो उसमें बदले की भावना आ जाती है। दो दिलजले एजे और शीना मिल जाते हैं और रैजी को बरबाद करने में जुट जाते है। एजे रैजी से दोस्ती कर उसका विश्वास हासिल कर लेता है। वो उसकी सारी धुन चुरा लेता है और उसे शराब पिला-पिलाकर बीमार कर देता है। रैजी को जब असलियत पता चलती है तब तक बहुत देर हो चुकी रहती है। रूही एजे से बदला लेती है और रैजी ठीक होकर आता है और संगीत की दुनिया में छा जाता है।

फिल्म में घटनाक्रम की बेहद कमी है और केवल संवाद के बल पर फिल्म को आगे बढ़ाया गया है। आधे घंटे बाद ही फिल्म दोहराव का शिकार होने लगती है। बॉबी और गोविंद नामदेव के बीच फिल्माए गए दृश्य बीसियों बार है जो बेहद बोर करते है। अगर ये सारे दृश्य निकाल दिए जाए तो फिल्म केवल एक घंटे में खत्म हो जाए।

एक म्यूजिकल फिल्म में गानों की संख्या ज्यादा होनी चा‍हिए, लेकिन गानों की कमी लगती है। फिर भी जितने भी गाने है वे हिट है लेकिन वे सही सिचुएशन पर नहीं है। हिमेश के संगीत को निर्देशक ने बरबाद कर दिया।

निर्देशक सुनील दर्शन में कल्पनाशीलता का अभाव है। उन्होंने सेट पर, कास्ट्यूम पर और फिल्म को स्टाइलिश लुक देने के लिए खूब पैसा खर्च किया। यदि इसका आधा भी वे पटकथा पर खर्च करते तो फिल्म अच्छी बनती। फिल्म के सारे किरदारों का चरित्र समझ में नहीं आता। सब गिरगिट की तरह रंग बदलते रहते है।

बॉबी का चरित्र निगेटिव्ह शेड लिए हुए है। पूरी फिल्म में बॉबी को एक जैसी भाव मुद्रा दिखानी थी। बॉबी अगर चाहते हैं कि उनका कैरियर लंबा चलें तो उन्हें इस तरह की फिल्मों से बचना होगा। उपेन पटेल अभिनय का अभी क ख ग सीख रहे है। उन्हें बहुत मेहनत करना पड़ेगी। कंगना को सेलिना जेटली से ज्यादा फुटेज मिला है। अभिनय कंगना अच्छा है, लेकिन ग्लैमरस सेलिना ज्यादा लगी। असरानी और विवेक वासवानी ने बोर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। गोविन्द नामदेव फ्रेम में तो खूब नजर आए, लेकिन संवाद गिने-चुने बोले।

हिमेश रेशमिया का संगीत फिल्म का एकमात्र प्लस पाइंट है। फिल्म का टाइटल सांग अच्छा बन पड़ा है।
कुल मिलाकर ‘शाका लाका बूम बूम’ एक ऐसी फिल्म है जो न ‘क्लास’ को पसंद आएगी और न ही ‘मास’ को।