हालिया रिलीज फिल्म "देल्ही बैली" की कहानी तीन दोस्तों के इर्द-गिर्द घूमती है। दोस्त आपस में हर तरह का मजाक करते हैं, संवादों में एक-दूसरे के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हैं और वक्त आने पर सच्ची दोस्ती भी निभाते हैं, एक-दूसरे का साथ देते हैं। "जिंदगी ना मिलेगी दोबारा" भी फरहान अख्तर, अभय देओल व रितिक रोशन तीन दोस्तों पर केन्द्रित है।
"दिल चाहता है", "रंग दे बसंती" व "३ इडियट्स" भी पुरुष नायकों की दोस्ती पर आधारित संदेशपरक फिल्में थीं। ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर खासी सफल रहीं और यह बात स्थापित करने में कामयाब रही कि बॉलीवुड में पुरुष दोस्तों के कंधों पर सवार फिल्में पसंद की जाती हैं। दोस्तों की भूमिका निभाने वाले अभिनेता अपने बीच अच्छी केमेस्ट्री प्रस्तुत कर दर्शकों का मनोरंजन कर सकते हैं।
वैसे हिन्दी सिनेमा में यह सिलसिला काफी पुराना है। "शोले" के जय-वीरू की दोस्ती तो दर्शकों के जेहन में आज भी जिंदा है। "संगम" में गोपाल अपने दोस्त सुंदर के लिए अपनी प्रेमिका राधा को भी भूलने को तैयार हो जाता है। हालिया बॉलीवुड फिल्मों में भी पुरुष दोस्ती के ताने-बाने को लेकर बहुत-सी फिल्में बुनी गई हैं। "गोलमाल", "डबल धमाल", "दोस्ताना", "नो एन्ट्री", "हे बेबी" सरीखी फिल्मों में हीरो अपनी धमाचौकड़ी, द्विअर्थी संवादों व छिछोरी हरकतों से दर्शकों की तालियां बटोरते हैं और फिल्म बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त कलेक्शन करने में कामयाब रहती है।
दरअसल बॉलीवुड में पुरुष जोड़ियां हल्की-फुल्की कॉमेडी से रुपहले पर्दे पर अपने बीच अच्छी केमेस्ट्री प्रस्तुत कर दर्शकों को गुदगुदाती हैं। कुछ निर्देशकों का मानना है कि स्क्रीन पर जो हास्य पुरुष पैदा कर सकते हैं, वह महिलाएं नहीं कर सकतीं। महिलाएं गंभीर किरदार निभा सकती हैं, मुद्दे पर आधारित फिल्में बखूबी जी सकती हैं, पर हंसाना उनके बूते की बात नहीं। पुरुषों की दोस्ती सतही होती है, वे किसी भी तरह के मुद्दे पर बात कर सकते हैं और इसी आसानी के चलते निर्देशक प्रायः पुरुष दोस्ती पर आधारित फिल्में बनाते हैं। दरअसल, पुरुष दोस्ती पर आधारित इन फिल्मों में दोस्ती के गहरे अर्थ को उभारने की कोशिश नहीं की जाती। पुरुषों की बॉन्डिंग भले ही बचकानी हो, पर दर्शक इसे पसंद करते हैं। महिलाओं को लेकर सिर्फ रोमांटिक फिल्में, किसी मुद्दे पर आधारित फिल्में या महिला केन्द्रित फिल्में ही बनती हैं।
बॉलीवुड में महिला जोड़ियों या महिलाओं की दोस्ती पर आधारित फिल्में लगभग न के बराबर बनी हैं। "फिलहाल" व "दिल आशना है" जैसे इक्के-दुक्के नाम ही सामने आते हैं। इस पर निर्माता-निर्देशकों का कहना यह भी है कि समाज अभी भी पुरुष सत्तात्मक है और पुरुषों पर संकेंद्रित फिल्में ही लोग ज्यादा देखना पसंद करते हैं।
"सात खून माफ" व "फैशन" जैसी महिला आधारित फिल्में कम ही बनती हैं। ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड में सशक्त अभिनय करने वाली अभिनेत्रियां नहीं हैं, यहां अभिनेत्रियां तो हैं, मगर उन सबको एक साथ किसी कहानी के किरदारों में पिरोकर पर्दे पर निर्देशित करने वाले निर्माता-निर्देशक नहीं हैं। महिला दोस्ती पर आधारित फिल्में नहीं बनतीं तो पुरुष दोस्ती पर आधारित फिल्में ही सही...। आप उनका ही लुत्फ लीजिए।