फिल्म निर्माता अपनी खराब फिल्मों का यह कह कर बचाव करते हैं कि वे वहीं दिखाते हैं जो बिकता है। यानी वे दर्शकों की पसंद को आधार बना कर अपना दामन साफ बचा लेते हैं। फिल्म के जरिये पैसा कमाना उनका व्यवसाय है और यह व्यवसाय यह मीडिया में भी घुस आया है।
रोज पैदा होते नए चैनल्स पत्रकारिता की सारी नैतिकता को ताक में रखते हुए टीआरपी-टीआरपी खेलने में यह भूल जाते हैं कि वे क्या कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? पत्रकारिता सीखते समय उन्होंने जो सिद्धांत पढ़े थे उनकी पोटली बांध कर ऐसी जगह रख दी है कि ढूंढे नहीं मिले।
फिल्म अभिनेत्री श्रीदेवी के निधन पर जिस तरह से सनसनीखेज और चटखारे लेकर इस बात का कवरेज किया गया उस वजह से ये सारी बातें सिर उठा रही हैं। दुबई के जिस होटल में कमरे में श्रीदेवी का निधन हुआ था, उसी होटल के एक कमरे में रिपोर्टर पहुंच गए और बताने लगे कि कैसे ये सब हुआ?
एक रिपोर्टर तो बाथटब में लेट कर अपने हिसाब से घटना का वर्णन करने लगा मानो वह श्रीदेवी की मृत्यु के समय बाथरूम में मौजूद था और उसके सामने सब घटित हुआ। कुछ चैनल्स ने तो तकनीक का उपयोग किया और ग्राफिक्स की मदद से पूरा बाथरूम बना दिया और नाम दिया मौत का बाथ टब। शराब, अकेलापन, दाउद से संबंध, सर्जरी जैसे कई कारणों पर विवेचना जज बन कर की जाने लगी।
जैसे ही श्रीदेवी की मृत्यु की खबर आई, अधिकांश पत्रकार जासूस बन गए। पहले दिल के दौरे से मौत की बात फैला दी गई। फिर कार्डियक अरेस्ट का मामला उठा दिया गया। फिर बाद फैला दी गई कि शराब के अंश श्रीदेवी के खून में पाए गए। इसके बाद श्रीदेवी के बारे में अर्नगल बातें होने लगी।
बेचारे पोस्टमार्टम करने वाले या फॉरेंसिक रिपोर्ट तैयार करने वाले नतीजे तक पहुंच भी नहीं पाए थे, लेकिन भारतीय चैनलों और अखबारों ने तो अपनी डेस्क पर ही चीरफाड़ कर डाली, ये सोचे बिना कि उस परिवार पर क्या गुजरेगी? किसी के भी चरित्र पर न केवल उंगली उठाई जाती है बल्कि उसे अपराधी भी बना दिया जाता है।
फिल्म वालों को जरा-जरा सी बातों पर सेंसर से अनुमति लेनी पड़ती है, लेकिन मीडिया वालों को कोई खौफ नहीं। वे जो चाहे बोल सकते हैं। किसी भी नतीजे पर पहुंच सकते हैं। कोई सवाल पूछने वाला नहीं है। सोशल मीडिया के दौर में तो हर कोई पत्रकार बन गया है और जिसके मन में जो आया वो लिख रहा है। गलाकाट प्रतियोगिता और पहले खबर देने की होड़ में मौत पर भी रोटियां सेंकने से ये बाज नहीं आते।
जब श्रीदेवी का पार्थिव शरीर मुंबई पहुंचा तो कई मीडिया हाउस ने एंबुलेंस के आगे-पीछे अपनी कारें दौड़ा दी। रात भर श्रीदेवी के घर के बाहर खड़े रहे। कौन आया, कौन गया, किसने क्या पहना, कौन से रंग के फूल थे, कौन रो रहा है, कौन हंस रहा है, जैसी बातें होने लगी। दिन भर श्रीदेवी की अंतिम यात्रा का सीधा प्रसारण हो रहा था।
ऐसा लग रहा था मानो देश थम गया हो। कहीं कुछ भी नहीं हो रहा हो। श्रीदेवी के अलावा कोई खबर ही नहीं थी। बैंक घोटाला, किसान, दुर्घटनाएं, समस्याएं जैसी सारी बातें भूला दी गई। मीडिया तो मीडिया, आम लोग भी कम नहीं रहे। श्रीदेवी की शोक पत्रिका व्हाट्स एप पर इधर से उधर भेजे जाने लगी। 'टल्ली' और 'शराबी' कह कर मजाक उड़ाया जाने लगा।
माना कि श्रीदेवी लोकप्रिय अभिनेत्री थीं। कलाकार से ज्यादा स्टार थीं। दक्षिण से लेकर तो उत्तर भारत तक उनका नाम था, लेकिन इतना हद से ज्यादा उन्हें दिखाया जाना उचित है। क्या श्रीदेवी ने देश के लिए कुछ किया है? क्या सीमा पर लड़ कर वे शहीद हुईं? उन्होंने तो फिल्में की और पैसा कमाया। क्या देश के लिए जान न्योछावर करने वालों को इस तरह का कवरेज दिया जाता है?
ठीक है, कवरेज दिया जाना चाहिए, लेकिन 24 घंटे श्रीदेवी-श्रीदेवी करना तो ठीक नहीं कहा जा सकता। सभी दु:खी हैं कि वे नहीं रहीं, लेकिन उनकी मौत पर जिस तरह से तमाशा बनाया गया और कवरेज दिया गया वो शायद श्रीदेवी को भी अच्छा नहीं लगता।
जरूरत है संयमित होकर बात को पेश करने की। व्यक्ति के कद के हिसाब से उसके कवरेज की। आम लोगों की भी जवाबदारी है। वे नहीं देखेंगे तो कहां से आएगी टीआरपी?