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Written By WD Feature Desk

23 जनवरी पराक्रम दिवस: क्या गुमनामी बाबा ही थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस

गुमनामी बाबा नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती, जानें उनके पराक्रम के बारे में खास बिंदु

Subhashchandra Bose: 23 जनवरी पराक्रम दिवस: क्या गुमनामी बाबा ही थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस - Subhash Chandra Bose Jyanati 2024
- शकील अख्तर
 
Subhash Chandra Bose: 23 जनवरी को नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती है। उन्हें गुमनामी बाबा के नाम से भी जाना जाता है। आइए यहां जानते हैं कौन हैं गुमनामी बाबा? क्या वे सुभाष चंद्र बोस थे ही थे ? यहां जानिए उनके बारे में रहस्यमयी बातें-
 
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की दृष्टि कितनी वृहद थी, उनकी सोच कितनी व्यापक थी, आज यह सब सोचकर हैरानी होती है। सोचिए आज से सौ साल पहले जब संपर्क के लिए मोबाइल या फोन की सुविधा नहीं थी, नेताजी भारत से पेशावर, लाहौर, जर्मनी, जापान जाते हैं। बहुत जगहों पर जाने के लिए उन्हें भेष और नाम भी बदलना पड़ता है। मगर वे अपने लक्ष्य में पूरी तरह से सफल होते हैं। 
 
आख़िर यह सब कैसे संभव हुआ होगा? ध्यान से सोचने पर दो ही बातें प्रमुखता से उभरकर सामने आती हैं- पहली- रग-रग में समाया राष्ट्र प्रेम और देश के लिए समर्पित भक्तिभाव। 
 
जब नेताजी ने दिया ब्रितानी सरकार को दिया चकमा : साल 1941 में जब वह कोलकाता की जेल में कैद थे। तब दो हफ्तों की हड़ताल के बाद उनकी हालत बेहद बिगड़ गई थी। तब तक उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक बना ली थी। साथ ही फॉरवर्ड ब्लॉक के ज़रिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ उग्र आंदोलन भी छेड़ चुके थे। यही नहीं वे उस वक्त के दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश गवर्नमेंट का किसी भी तरह से साथ न देने का ऐलान कर चुके थे। 
 
इस सबके चलते एक तरफ देश की जनता उनके साथ थी, उनके अगले क़दम को लेकर उत्सुक थी तो दूसरी तरफ ब्रिटिश हुकूमत बौखलाई हुई थी। मगर चूंकि जेल में नेताजी की हालत बिगड़ती जा रही थी और इस कारण कोलकाता में दिन-ब-दिन तनाव बढ़ रहा था। तब ब्रितानी सरकार को लगा कि अगर सुभाष चंद्र बोस को कुछ हो गया, तब जनता के गुस्से को संभाल पाना मुश्किल होगा। इसलिए तय किया गया कि सुभाष चंद्र बोस को रिहा तो किया जाए, मगर उन्हें उनके घर में नज़रबंद रखा जाए। 
 
आधी रात को घर से जब निकले नेताजी : बीमार सुभाष चंद्र बोस रिहा होकर घर पहुंचे। इधर कोलकाता में उनके घर से लेकर बाहर तक सादी वर्दी में ब्रिटिश हुक्मरानों के गुप्तचरों और सादी पुलिस का पहरा बिठा दिया गया। हर गतिविधि पर नज़र रखी जाने लगी। उस समय सुभाष चंद्र बोस ने वो किया, जिससे ब्रिटिश सरकार के पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक गई। सारी जासूसी धरी की धरी रह गई। 
 
नेताजी आधी रात को एक इंश्योरेंस एजेंट मोहम्मद ज़ियादुद्दीन बनकर फरार हो गए। इस काम में जान जोखिम में डालकर भतीजे शिशिर ने उनका साथ दिया था। नेताजी बेहद गोपनीय तरीके से घर से गायब हुए थे। इस बात की मां तक को ख़बर नहीं थी। 
 
हां, उन सब लोगों को ख़बर ज़रूर थी, जो उन्हें आगे साथ देने वाले थे। फॉरवर्ड ब्लॉक के ऐसे सिपाही पेशावर में सक्रिय हो गए थे। वहां पर नेताजी के आगमन से लेकर उनके ठहरने तक का इंतज़ाम हो चुका था। एक तरफ ब्रिटिश पुलिस उनके पीछे थी, दुश्मनों का जाल था, दूसरी तरफ़ उन्हें बचाने और सुरक्षित रखने वालों का उनके इर्द-गिर्द सुरक्षा जाल था। 
 
फौजी कैप्टन और वैश्विक नेता का दौड़ता दिमाग़ : नेताजी अपनों से मिल तो रहे थे, मगर उनका दिमाग़ किसी फौजी कैप्टन और वैश्विक नेता की तरह तेज़ दौड़ रहा था। वे जानते थे कि उन्हें अब आगे क्या करना है, किन देशों के राजदूतों से मुलाक़ात करनी है। किस तरह से ब्रिटेन और ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के खिलाफ अपने रणनीति को आगे बढ़ाना है। 
 
असल में वह भारत को परतंत्र बनाकर रखने वाले साम्राज्यवादी ब्रिटेन के विरोधी देशों इटली, ऑस्ट्रिया और जर्मनी को भारत के साथ जोड़ने की मुहिम पर निकल चूके थे। जिस वक्त वे ब्रिटिश पुलिस को चकमा देकर पेशावर में दाखिल हुए थे, तब ये सब बातें सिर्फ एक सपने की तरह थी। 
 
सच तो यह है कि किसी गुलाम देश के इंसान के लिए यह सोच भी एक बड़ी बात थी। नेताजी किसी फौजी की तरह अपने दिमाग में इस रणनीतिक मैप को लेकर निकल चुके थे। पेशावर में वे शुरुआती समय में कुछ परेशान और नाकाम भी हुए। परंतु अंत में इटली की उन्हें मदद मिल ही गई। एक बार फिर ज़ियाउद्दीन सुभाष नया भेष और नाम धारण करते हैं। इटली की मदद से उन्हें ऑरलैंडो मोज़ात्ता नाम से पासपोर्ट मिलता है और वे मॉस्को जाने में कामयाब हो जाते हैं। 
 
नेताजी जा पहुंचे रूस के रास्ते जर्मनी : नेताजी मॉस्को से वे बर्लिन पहुंचते हैं। इसके बाद वे अपने कुछ पुराने और कुछ नए साथियों के साथ जर्मन जैसे देश को भारत के पक्ष में मोड़ने और उसकी मदद से एक अलग किस्म की फौज बनाने की योजना बनाने लगते हैं। ज़ाहिर है कि यह एक मुश्किल काम था। मगर नेताजी अपनी सूक्ष्म दृष्टि और बेहद सुलझी कूटनीतिक तैयारी के ज़रिए जर्मनी सरकार के मंत्रियों से लेकर खुद तत्कालीन जर्मन शासक हिटलर से मुलाक़ात में कामयाब हो जाते हैं। 
 
उस दौर में जब दुनिया दूसरे विश्वयुद्ध में उलझी थी, हिटलर को भरोसा था कि उसकी ताकतवर जर्मन फौज इस युद्ध को जीत लेगी। नेताजी उस विश्व विजय का सपना देखने वाले सख्त हिटलर से पूरे साहस और आत्मविश्वास से मिलते हैं। वह हिटलर से भारत की आजादी के लिए मदद पाने में कामयाब होते हैं, बावजूद इसके कि उन्होंने हिटलर की आत्मकथा ‘मीन कैम्फ’ में भारतीयों के संबंध में लिखी कुछ बातों पर आपत्ति जताते हैं।
 
नए सूचना संवाहक रेडियो से देश के पक्ष में प्रचार : जर्मनी में रहते हुए वह रेडियो से ब्रिटेन के खिलाफ़ युद्ध छेड़ने और दुनियाभर में भारतीयों और भारत के हितैषियों को जोड़ने की एक अभूतपूर्व योजना में कामयाब हो जाते हैं। उस दौर में जब रेडियो को आए कुछ ही साल हुए थे। प्रखर मेधा वाले सुभाष, एसी नांबियार और अपने दूसरे साथियों के साथ रेडियो सेवा की स्थापना करते हैं और रेडियो के ज़रिए परतंत्र भारत की स्वतंत्र के लिए जबरदस्त माहौल बना देते हैं। 
 
जब वह जापान में रहकर अंग्रेज़ों के खिलाफ़ अभियान शुरू करते हैं, तो रेडियो प्रसारण का केंद्र म्यांमार और सिंगापुर में स्थानांतरित हो जाता है। यह जानकर भी हैरत होती है कि यह रेडियो का प्रसारण सिर्फ अंग्रेज़ी और हिन्दी में ही नहीं बल्कि भारत की अन्य 6 भाषाओं में भी हो रहा था, जिसमें पश्तो और फारसी भी शामिल थीं।
 
जर्मनी से जापान की तरफ़ बढ़े क़दम : नेताजी भारत को आजाद कराने के अपने संघर्ष में लगातार वक्त के मुताबिक रणनीतियां बना रहे थे, जब उन्हें लगा कि जर्मनी में रहते हुए देश की आज़ादी के काम को आगे बढ़ाने में अब शिथिलता आने लगी है, तो उन्होंने जर्मनी छोड़कर अपने क्रांतिकारी साथी और सहयोगी आबिद हसन के साथ जापान पहुंच जाते हैं। चूंकि भारत जर्मनी के मुकाबले जापान के ज्यादा नजदीक है, साथ ही बौद्ध धर्म में आस्था के कारण जापान का भारत से स्वाभाविक लगाव है। इसलिए यह एक बेहतर फैसला था। 
 
वह जापान के प्रधानमंत्री तोजो से मुलाक़ात करके न सिर्फ उनका भारत की आजादी के लिए समर्थन हासिल करते हैं, बल्कि जापान में भारतीयों को एकजुट करने और उनसे आर्थिक मदद लेने का बड़ा काम करते हैं। यहीं उन्होंने वह ऐतिहासिक भाषण दिया था, जिसमें नौजवानों को प्रेरित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।’ 
 
जापान में उन्होंने गांधी, नेहरू, अब्दुल कलाम, झांसी की रानी जैसी फौजी टुकड़ियां या ब्रिगेड बनाईं और फिर यहीं महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया, साथ ही उनसे आशीर्वाद मांगकर दिल्ली चलो का ऐलान कर दिया। 
 
आज़ाद हिन्द की पहली सरकार का ऐलान : नेताजी क़दम-क़दम बढ़ाये जा की तर्ज पर आगे बढ़ रहे थे। यह उनका ही पराक्रम था कि ‘आज़ाद हिन्द की पहली स्वतंत्र सरकार या आरजी हुकूमत-ए-आजाद हिंद’ की घोषणा होते ही नौ देशों ने तुरंत मान्यता दे दी थी। यह आज भी एक ऐतिहासिक विजय जैसी घटना है। मान्यता देने वालों में जर्मनी, जापान से लेकर फिलीपींस, कोरिया, इटली और आयरलैंड जैसे देश शामिल थे। यह परतंत्र भारत के हक़ में एक बड़ी नैतिक जीत थी। 
 
आज हम कल्पना ही कर सकते हैं कि हिन्दुस्तान की स्वतंत्र सरकार के ऐलान के बाद भारत की जनता में इसका कितना गहरा और खुशी से भरा असर पड़ा होगा। नेताजी के प्रति उनकी आस्था कितनी प्रबल और सशक्त हुई होगी। पूरे देश में उनके ऐसे पराक्रम के प्रति कैसी आशा जागी होगी। ठीक उसी समय नेताजी के समकालीन भारतीय नेता भी इन कदमों की सफलता विस्मित हुए बिना नहीं रह सके होंगे।
 
ब्रिटिश और उनके गठजोड़ वाली सेना पर हमला : इसके बाद नेताजी ने आज़ाद हिंद फौज के वीरों के साथ अपनी ब्रिटिश और उनके गठजोड़ वाली सेना के खिलाफ़ जमकर लोहा लेना शुरू किया। फौज ने अभाव और कुदरत की मार के बीच भी कोहिमा और पलेल जैसी जीत हासिल की। अंग्रेजों से भारतीय क्षेत्रों को मुक्त कराया। परंतु तब तक दूसरे विश्व युद्ध ने एक भयंकर विनाशी मोड़ लिया। जापान पर परमाणु बम फेंके जाने के बाद जापान खुद बुरे हालात में घिर गया। बोस को भी ना चाहकर भी ऐसे हालात में जापान छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। 
 
वे एक बार फिर रूस जाकर देश की आज़ादी के काम में नए प्रण से जुटना चाहते थे। परंतु कथित हवाई हादसे में उन जैसे सेनानी को हमसे छीन लिया। हादसे में उनकी शहादत आज तक विवाद और रहस्य का विषय है। परंतु उनके सशरीर ना रहते हुए भी अंग्रेज़ों को भारत को छोड़ने का फैसला करना पड़ा। 
 
लालक़िले का वह मुक़दमा और जनता का विद्रोह : आज़ाद हिन्द फौज के प्रमुख कप्तानों कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों और मेजर शाहनवाज़ खां पर लाल क़िले में राजद्रोह का मुकदमा चलाने का ऐलान हुआ। मगर जनता ने रेडफोर्ट ट्रायल के खिलाफ़ पूरे देश में आक्रोशित आंदोलन प्रारंभ कर दिया। सैनिकों ने भी विद्रोह होने लगा। मुट्ठी भर अंग्रेज़ हुक्मरान हिंदुस्तानी जनता की एकता से कांप उठे। फिर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के ना रहते हुए भी देश की आज़ादी का दिन आ ही गया। 
 
पराक्रम दिवस 23 जनवरी : आज जब हम सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिवस पर पराक्रम दिवस मना रहे हैं। हमें उन जैसी महान विभूति और नेता के संस्मरण के साथ उन क़दमों पर चलने की आवश्कता भी है जिस पर चलकर उन्होंने भारत की स्वतंत्रता में सशक्त और अविस्मरणीय भूमिका निभाई। यही उनके प्रति हम भारतीयों की सच्ची श्रद्धाजंलि होगी। 
 
(शकील अख्तर वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। आज़ादी के अमृत महोत्सव पर उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर नाटक ‘जय हिंद सुभाष’ का लेखन भी किया है।) 
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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