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Last Modified: गुरुवार, 13 दिसंबर 2018 (11:41 IST)

मध्य प्रदेश में नरेंद्र मोदी के कारण चूक गए शिवराज सिंह चौहान?

मध्य प्रदेश में नरेंद्र मोदी के कारण चूक गए शिवराज सिंह चौहान? - madhya pradesh
- रजनीश कुमार
 
वसुंधरा राजे सिंधिया और रमन सिंह ने मंगलवार की शाम चुनावी नतीजे आने के बाद हार स्वीकार करते हुए इस्तीफ़े की घोषणा कर दी थी। इंतज़ार था 13 सालों से मध्य प्रदेश की सत्ता पर क़ाबिज़ शिवराज सिंह चौहान का। मध्य प्रदेश की मतगणना 12 दिसंबर की सुबह आठ बजे तक चली। पूरी रात ऐसा लगता रहा कि कहीं बड़ा उलटफेर ना हो जाए। सवा आठ बजे स्थिति साफ़ हो गई। किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस और बीजेपी के बीच महज़ पांच सीटों का फ़र्क रहा।
 
 
ऐसा लग रहा था कि बीजेपी इतनी जल्दी हार नहीं मानेगी और सरकार बनाने की कोशिश कर सकती है। मंगलवार की रात बीजेपी के मध्य प्रदेश प्रमुख राकेश सिंह ने एक ट्वीट कर इन क़यासों को और हवा दी। राकेश सिंह ने ट्वीट किया कि किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है और बीजेपी निर्दलीय विधायकों के संपर्क में है।
 
 
लेकिन दिक़्क़त ये थी कि सारे निर्दलीय विधायकों का समर्थन मिलने के बाद भी बीजेपी बहुमत के जादुई आँकड़ों तक नहीं पहुंच पा रही थी। बीजेपी के 109 और चार निर्दलीय विधायकों को मिलाने के बाद भी संख्या 113 तक ही पहुंच पाती। मायावती ने अपने दो विधायकों और समाजवादी पार्टी ने एक विधायक का समर्थन कांग्रेस को देने की घोषणा कर दी थी। ऐसे में शिवराज सिंह चौहान के पास कोई विकल्प नहीं बचा था।
 
 
सारे विकल्पों को देख चौहान बुधवार ग्यारह बजे दिन में मीडिया के सामने आए और कहा, ''किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है। बीजेपी को कांग्रेस से ज़्यादा वोट मिले लेकिन संख्या बल में हम पिछड़ गए। मैं संख्या बल के सामने सिर झुकाता हूं और अब मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफ़ा देने जा रहा हूं।''
 
 
शिवराज सिंह चौहान लगातार 13 सालों से ज़्यादा वक़्त तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। इतने सालों तक मध्य प्रदेश की कमान किसी और के पास नहीं रही। इस बार भी बीजेपी को उम्मीद थी कि शिवराज सिंह चौहान का नेतृत्व कांग्रेस पर भारी पड़ेगा और बीजेपी लगातार चौथी बार सत्ता में आएगी। इस बात को लगभग सभी लोग मानते हैं कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के क़द का कांग्रेस में कोई नेता नहीं था। इतना कुछ होने के बावजूद भी आख़िर चौहान कहां चूक गए?
 
 
ग्वालियर के वरिष्ठ पत्रकार राम विद्रोही का मानना है कि मध्य प्रदेश में यह चौहान की चूक नहीं है बल्कि यह जनादेश केंद्र सरकार की नोटबंदी और ग़लत नीतियों के ख़िलाफ़ है। विद्रोही कहते हैं, ''नतीजे आने के बाद मैंने कई गांव वालों से बात की। किसी ने शिवराज सिंह चौहान की बुराई नहीं की। सबने चौहान की तारीफ़ की और कहा कि नोटबंदी के कारण उनका नुक़सान हुआ है। नोटबंदी से आम लोग प्रभावित हुए हैं और जीएसटी से मध्य वर्ग। शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व के कारण ही बीजेपी को कांग्रेस से भी ज़्यादा वोट मिले। हम कह सकते हैं कि यह जनादेश शिवराज के चुनाव में मोदी के ख़िलाफ़ है।''
 
 
शिवराज सिंह चौहान के 13 सालों के शासन के ख़िलाफ़ लोगों में ग़ुस्सा होता तो दोनों पार्टियों में जीत का फ़र्क महज़ पाँच सीटों का नहीं होता। मध्य प्रदेश के कांग्रेस प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी भी इस बात से सहमत हैं कि लोगों में शिवराज सिंह चौहान के ख़िलाफ़ उस तरह से नाराज़गी नहीं थी जैसी नाराज़गी मोदी सरकार और उसकी नीतियों से थी। 
 
 
हालांकि बीजेपी ऐसा नहीं मानती है। बीजेपी का कहना है कि राज्य में जनादेश वहां की सरकार के पक्ष या ख़िलाफ़ में होता है और यह केंद्र की सरकार के आधार पर नहीं है। बीजेपी प्रवक्ता दीपक विजयवर्गीय कहते हैं, ''यह केंद्र की मोदी सरकार के ख़िलाफ़ जनादेश नहीं है, बल्कि यह राज्य सरकार के ख़िलाफ़ भी नहीं है। हमने कांग्रेस से ज़्यादा वोट हासिल किए हैं। जहां तक सीटें कम होने की बात है तो हम इसकी समीक्षा कर रहे हैं। कहीं न कहीं तो हमारी चूक हुई है।''
 
 
मध्य प्रदेश में चुनाव के दौरान लोगों से बात करते हुए शिवराज सिंह के प्रति उनकी सहानुभूति छिपती नहीं थी। लोग उनके मंत्रियों की आलोचना करते थे, केंद्र सरकार की आलोचना करते थे लेकिन चौहान से सहानुभूति जताते थे। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अपने लोकसभा क्षेत्र विदिशा में जिस अजनास गांव को गोद लिया वहां के सुरेश व्यास भी उन्हीं लोगों में से हैं।
 
 
वो केंद्र सरकार और अपनी सांसद सुषमा के ख़िलाफ़ तो ग़ुस्सा दिखाते हैं, लेकिन शिवराज सिंह चौहान से सहानुभूति जताते हुए कहते हैं, ''वो तो बहुत अच्छे हैं। उन्होंने ही तो कुछ किया है।'' भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया कहते हैं, ''मैं भी इस बात से सहमत हूं कि यह जनादेश शिवराज के ख़िलाफ़ नहीं है बल्कि मोदी के ख़िलाफ़ है। अगर शिवराज के ख़िलाफ़ होता तो बीजेपी बुरी तरह से हारती। शिवराज प्रदेश में काफ़ी लोकप्रिय थे और उनकी लोकप्रियता में उस तरह से कोई कमी नहीं आई थी।''
 
 
हरदेनिया कहते हैं, ''शिवराज सिंह के ख़िलाफ़ जो बातें जाती हैं वो पार्टी के भीतर भी कई बार दिख जाती थी। पार्टी के सीनियर नेता रघुनंदन शर्मा तो चौहान को घोषणावीर कहते थे। बीजेपी में घमंड का बढ़ना भी एक समस्या थी। एबीवीपी के लोगों ने प्रोफ़ेसर की हत्या कर दी थी। हाल ही में एक प्रोफ़ेसर के मुंह पर कालिख पोत दी थी। ये सब ऐसी चीज़ें हैं जिनसे शिवराज की छवि एक अप्रभावी शासक के तौर पर भी बनी। लेकिन इसके साथ ही एक रुपए किलो गेहूं देना और सामूहिक शादियां जैसे प्रोग्राम काफ़ी हिट रहे।''
 
 
मध्य प्रदेश में किसानों पर शिवराज सिंह चौहान के शासन काल में गोलियां चलीं। दूसरी तरफ़ कांग्रेस ने सरकार बनने के 10 दिन बाद ही क़र्ज़ माफ़ी का वादा कर दिया था।
 
 
शिवराज सिंह चौहान जीतकर भी हार गए
शिवराज सिंह चौहान के राजनीतिक जीवन की शुरुआत अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से हुई। 1988 में भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष बने। 1990 में पहली बार बीजेपी ने चौहान को बुधनी से विधानसभा चुनाव में खड़ा किया। चौहान ने पूरे इलाक़े की पदयात्रा की थी और पहला ही चुनाव जीतने में सफल रहे। तब चौहान की उम्र महज़ 31 साल थी।
 
 
1991 में 10वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव हुए। अटल बिहारी वाजपेयी इस चुनाव में दो जगह से खड़े थे। एक उत्तर प्रदेश के लखनऊ और दूसरा मध्य प्रदेश के विदिशा से। वाजपेयी को दोनों जगह से जीत मिली। उन्होंने लखनऊ को चुना और विदिशा को छोड़ दिया। सुंदरलाल पटवा ने विदिशा के उपचुनाव में शिवराज सिंह चौहान को पार्टी का प्रत्याशी बनाया और वो पहली बार में ही चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच गए।
 
 
शिवराज सिंह की वो इकलौती हार
इसके बाद यहां से चौहान 1996, 1998, 1999 और 2004 के भी चुनाव जीते। चौहान को अब तक के राजनीतिक जीवन में एक बार हार का सामना करना पड़ा है। 2003 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने चौहान को मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के ख़िलाफ़ राघोगढ़ से खड़ा किया था।
 
 
तब बीजेपी ने उमा भारती को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया था। इस चुनाव में शिवराज सिंह चौहान को हार का सामना करना पड़ा। चौहान को भी पता था कि राघोगढ़ से दिग्विजय सिंह को हराना संभव नहीं है, लेकिन उन्होंने पार्टी की बात मानी। उमा भारती के कुल आठ महीने और बाबूलाल गौर के 15 महीने मुख्यमंत्री रहने के बाद शिवराज सिंह चौहान ने 29 नवंबर, 2005 को मध्य प्रदेश के 25वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली।
 
शिवराज सिंह चौहान उमा भारती और बाबूलाल गौर के बाद प्रदेश के तीसरे ओबीसी मुख्यमंत्री बने। इससे पहले मध्य प्रदेश के सारे मुख्यमंत्री सवर्ण रहे थे। उमा भारती के छोटे कार्यकाल में उनके व्यक्तित्व के कारण पार्टी को कई बार असहज होना पड़ा था। उमा भारती के इस्तीफ़े को बीजेपी ने बड़ी राहत की तरह देखा था। तिरंगा प्रकरण में उमा भारती को इस्तीफ़ा देना पड़ा था तो सुषमा स्वराज का एक प्रसिद्ध बयान सामने आया था, ''इट वॉज़ अ गुड रिडेंस।'' यानी इसी बहाने पार्टी को उमा भारती से मुक्ति मिली।
 
 
'आडवाणी का एक चालाक फ़ैसला'
भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया कहते हैं कि शिवराज सिंह चौहान का चयन आडवाणी का एक चालाक फ़ैसला था। हरदेनिया कहते हैं, ''उमा भारती विवाद ज़्यादा खड़ा करती थीं और काम कम। यह केवल जनहित के कामों के साथ नहीं है बल्कि वो संघ के एजेंडे को भी ठीक से आगे नहीं बढ़ा पा रही थीं। शिवराज सिंह चौहान का व्यक्तित्व ऐसा है कि बिना कोई विवाद खड़ा किए, बिना छवि को कट्टर बनाए वो सब कुछ कर जाते हैं, जो आरएसएस चाहता है। शिवराज ने इसको साबित भी किया है।''
 
 
हरदेनिया मानते हैं कि शिवराज सिंह चौहान ने अपने 13 सालों के कार्यकाल में मध्य प्रदेश का बहुत शांत तरीक़े से हिन्दूकरण किया है।
 
 
वो कहते हैं, ''आरएसएस के लिए जो काम उमा भारती और बाबूलाल गौर ने भी नहीं किया उसे शिवराज सिंह चौहान ने कुछ महीनों में ही 2006 में कर दिया। गांधी जी की हत्या के बाद सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस की शाखा में जाने पर पाबंदी थी, जिसे शिवराज सिंह चौहान ने ख़त्म कर दिया। ये बुज़ुर्गों को मुफ़्त में तीर्थयात्रा कराते हैं। शादियां कराते हैं, बाद में भेदभाव के आरोप लगे तो निकाह कराना भी शुरू किया। धर्म परिवर्तन के ख़िलाफ़ एक क़ानून बनाया। उज्जैन में कुंभ हुआ तो हज़ारों करोड़ रुपए खर्च कर दिए।''
 
 
शिवराज से पहले कितना 'ग़ज़ब' था एमपी?
मध्य प्रदेश में इस बात को हर कोई स्वीकार करता है कि दिग्विजय सिंह के 10 सालों के शासनकाल में सड़क और बिजली की हालत बहुत बुरी थी। हरदेनिया भी कहते हैं कि उस वक़्त भोपाल से सागर जाने में उनके छह से सात घंटे लग जाते थे, लेकिन अब अच्छी सड़क होने के बाद मुश्किल से तीन-चार घंटे लगते हैं।
 
 
मध्य प्रदेश की अर्थव्यवस्था कृषि पर आश्रित है। पिछली जनगणना के मुताबिक़, मध्य प्रदेश में कुल श्रमिकों का 70 फ़ीसदी हिस्सा कृषि में लगा हुआ है। सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुसार, 2003 में मध्य प्रदेश का देश के कृषि उत्पादन में पाँच फ़ीसदी योगदान था जो 2014 में आठ फ़ीसदी हो गया।
 
 
कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी के लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं, लेकिन मूल रूप से गेहूं के उत्पादन में बढ़ोतरी सबसे अहम है। मध्य प्रदेश हमेशा से देश भर में सबसे ज़्यादा दाल की खेती के लिए जाना जाता रहा है पर अब यहां गेहूं का भी ख़ूब उत्पादन हो रहा है। 2002 से 2007 के बीच भारत के कुल गेहूं उत्पादन में मध्य प्रदेश का योगदान नौ फ़ीसदी था। एक दशक बाद यह आंकड़ा दोगुना हो गया और अब भारत के कुल गेहूं उत्पादन में मध्य प्रदेश के गेहूं का हिस्सा 17 फ़ीसदी है।
 
 
आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि आधारभूत ढांचे में निवेश हुआ जिसमें सिंचाई सबसे अहम है और इसके साथ ही अच्छी नीतियां भी बनीं। शिवराज सिंह चौहान ने अपने पहले कार्यकाल में गेहूं के एमएसपी पर 100 रुपए का बोनस देना शुरू किया था। वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर कहते हैं कि चौहान ने पहले ही कार्यकाल में ख़ुद को किसान नेता के रूप में पहचान बनाने में सफलता हासिल कर ली थी। इसके साथ ही मार्केट में भी सुधार किया गया।
 
 
एमपी के आंकड़े क्या कहते हैं?
आईजीआईडीआर (इन्कम जेनरेशन एंड इनइक्वालिटी इन इंडियाज़ एग्रिकल्चर सेक्टर) के 2016 के रिसर्च पेपर के अनुसार 2003 से 2013 के बीच किसानों की आय में 75 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। मध्य प्रदेश के किसानों के परिवारों की प्रति व्यक्ति आय 2013 में 1,321 रुपए हो गई, लेकिन इसके बावजूद यह भारतीयों की औसत आय से सात फ़ीसदी कम है।
 
 
इसकी सबसे मुख्य वजह ग्रामीण आमदनी का कम होना है। यह इसलिए अहम है क्योंकि मध्य प्रदेश के 76 फ़ीसदी किसानों के पास बहुत छोटी जोत है और ये ग्रामीण मज़दूरी पर निर्भर हैं। हालांकि इन सालों में मध्य प्रदेश औद्योगिक सेक्टर में कुछ नहीं कर पाया। 2003 में भारत के औद्योगिक उत्पादन में मध्य प्रदेश का योगदान 3।6 फ़ीसदी था जो 2014 में 3.2 फ़ीसदी हो गया।
 
 
मानव विकास सूचकांक के मामले में भी मध्य प्रदेश की स्थिति ठीक नहीं है। मध्य प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 1000 में 47 है पर राष्ट्रीय स्तर से (34) ज़्यादा ही है। शिक्षा के मामले में भी मध्य प्रदेश की हालत ठीक नहीं है।
 
 
एएसइआर के सर्वे के अनुसार, मध्य प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों के सरकारी स्कूलों में 17 फ़ीसदी बच्चे बुनियादी अक्षरों को भी नहीं पहचान पाते हैं जबकि 14 फ़ीसदी बच्चों को बुनियादी अंकगणित का ज्ञान नहीं है। यह तस्वीर राष्ट्रीय स्तर से ज़्यादा चिंताजनक है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 15 फ़ीसदी और 12 फ़ीसदी है।
 
 
मध्य प्रदेश में बेरोज़गारी की समस्या भी विकराल है। इस साल के आर्थिक सर्वे के मुताबिक़ 2016 के अंत तक मध्य प्रदेश में 10।12 लाख रजिस्टर्ड शिक्षित बेरोज़गार हैं और इनमें से 422 लोगों को ही 2017 में रोज़गार मिला।
 
 
जाति और मज़हब की भूमिका
भारत में चुनाव केवल विकास के मुद्दों पर नहीं होते। जाति और मज़हब की चुनावों में अहम भूमिका होती है और यह चुनाव भी कोई अलग नहीं है।
 
 
बीजेपी को जीत दिलाने में आदिवासी और पिछड़ी जाति के वोटों की अहम भूमिका रही है। शिवराज सिंह चौहान ख़ुद किरार जाति के हैं जो मध्य प्रदेश में ओबीसी श्रेणी में आती है। बीजेपी ने पहली बार किसी पिछड़ी जाति के व्यक्ति को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। आठ दिसंबर, 2003 से पहले बीजेपी के सारे मुख्यमंत्री सवर्ण बने थे। ज़ाहिर है बीजेपी को इसका फ़ायदा भी मिला।
 
 
शिवराज सिंह चौहान की सरकार कई लोकप्रिय योजनाओं के लिए भी जानी जाती हैं। यह सरकार लड़कियों के जन्म पर एक लाख रुपए का चेक देती है जिससे 18 साल की उम्र में पैसे मिलते हैं। ग़रीबों के घरों में किसी की मौत पर पांच हज़ार रुपए अंत्येष्टि के लिए देती है। सरकार सामूहिक शादियां कराती हैं और ख़र्च भी ख़ुद ही उठाती है। आदिवासी और दलितों के बीच सरकार की यह योजना काफ़ी लोकप्रिय हुई है। शिवराज अपनी विनम्रता के लिए जाने जाते हैं और सत्ता से विदाई भी उन्होंने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को बधाई देते हुए ली।
 
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