- फ़राह नक़वी (लेखिका)
17 करोड़ और 20 लाख। ये ब्रिटेन, स्पेन और इटली की कुल जमा आबादी है। भारत में इतने ही मुसलमान रहते हैं। ये दुनिया के किसी भी देश में मुसलमानों की तीसरी सबसे ज़्यादा बड़ी आबादी है। और हिंदुस्तान के मुसलमानों में जितनी विविधता देखने को मिलती है, वो किसी और देश के मुसलमानों में नहीं दिखती।
पिछले 1,400 सालों में हिंदुस्तान के मुसलमानों ने खान-पान, शायरी, संगीत, मुहब्बत और इबादत का साझा इतिहास बनाया और जिया है। इस्लामिक उम्मत दुनिया के सारे मुसलमानों को एक बताता है। यानी इसके मानने वाले सब एक हैं। लेकिन, भारतीय मुसलमान जिस तरह बंटे हुए हैं, वो इस्लाम के इस बुनियादी उसूल को ही नकारता है। हिंदुस्तान में मुसलमान, सुन्नी, शिया, बोहरा, अहमदिया और न जाने कितने फ़िरक़ों में बंटे हुए हैं।
अशराफ़, अजलाफ़ और अरज़ाल
यूं तो मुस्लिम धर्मगुरु इस बात से बार-बार इनकार करते हैं, लेकिन हक़ीक़त ये है कि भारत के मुसलमान भी, हिंदुओं की तरह जात-पात जैसे सामाजिक बंटवारे के शिकार हैं। उच्च जाति को अशराफ़, मध्यम वर्ग को अजलाफ़ और समाज के सबसे निचले पायदान पर रहने वाले मुसलमानों को अरज़ाल कहा जाता है।
हिंदुस्तान में मुसलमान भौगोलिक दूरियों के हिसाब से भी बंटे हुए हैं और पूरे देश में इनकी आबादी बिखरी हुई है। सो, हम देखते हैं कि तमिलनाडु के मुस्लिम तमिल बोलते हैं, तो केरल में वो मलयालम। उत्तर भारत से लेकर हैदराबाद तक बहुत से मुसलमान उर्दू ज़बान इस्तेमाल करते हैं।
इसके अलावा वो तेलुगू, भोजपुरी, गुजराती, मराठी और बंगाली ज़बानें भी अपनी रिहाइश के इलाक़ों के हिसाब से बोलते हैं। बंगाल में रहने वाला मुसलमान, बांग्ला बोलता है और किसी आम बंगाली की तरह हिल्सा मछली का शौक़ीन होता है। वो पंजाब या देश के किसी और हिस्से में रहने वाले मुस्लिम से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ होता है।
और अपनी पैदाइश के वक़्त ही ख़ुद को इस्लामी घोषित कर चुके पाकिस्तान के मुसलमानों से ठीक उलट, एक आम भारतीय मुसलमान बड़े गर्व के साथ एक लोकतांत्रिक देश में रहता है। भारत में सभी नागरिक संवैधानिक रूप से बराबर हैं।
हक़ीक़त बयां करती तस्वीरें
मगर अब ऐसा लग रहा है कि हालात बदल रहे हैं। इस सेल्फ़ी युग ने, जहां तस्वीरें हक़ीक़त बयां करती हैं, अपनी भारी क़ीमत वसूली है। आज हिंदुस्तान के मुसलमान अपनी विविधताओं वाली पहचान को जड़ से उखाड़ कर, उसकी जगह अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम एकता वाली तस्वीरें लगा रहे हैं।
आज वो हिजाब, दाढ़ी, टोपी, नमाज़, मदरसों और जिहाद वाली पहचान के क़रीब जा रहे हैं। ये मुसलमानों के एक जैसे होने की छवि हमें हर जगह दिखाई दे रही है। ये बदलता माहौल ऐसे नेताओं का काम आसान करती है, जो तुलना की राजनीति करते हैं। जो कुछ ख़ास बातों पर ही हमेशा ज़ोर देते हैं।
पूरी दुनिया में अति-राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी आंदोलनों को भीड़ जुटाने और कामयाबी हासिल करने के लिए कोई 'दूसरा' चाहिए होता है, जिसके ख़िलाफ़ वो माहौल बना सकें। लोगों को भड़काकर अपने पाले में ला सकें। ऐतिहासिक रूप से ऐसे आंदोलनों के निशाने पर यहूदी, अश्वेत, जिप्सी और अप्रवासी रहे हैं, लेकिन भारत में हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के उभार का नतीजा ये हुआ है कि मुसलमानों को अलग-थलग किया जा रहा है। उन्हें निशाना बनाया जा रहा है।
जाति-धर्म की दरारें सामाजिक डीएनए का हिस्सा
नफ़रत के इस माहौल की जड़ें हिंदुस्तान में ही हैं। हमारे औपनिवेशिक इतिहास में ही मुसलमानों के प्रति नफ़रत की बुनियाद है। लेकिन आज जिस तरह पूरी दुनिया में इस्लाम के प्रति डर और नफ़रत का माहौल बना है, उससे भारत में भी राष्ट्रवाद के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है।
ये एक नए दौर की जंग है, जिसके अगुवा ट्विटर पर हुंकार भरते दिखाई देने वाले अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप हैं। हालांकि भारतीय मुसलमानों की मुश्किलों की शुरुआत 2014 के आम चुनावों में बीजेपी की जीत से नहीं हुई थी। ये तो काफ़ी पहले से ही हो गई थी। भारत के तरक़्क़ीपसंद संवैधानिक वादों की चमक तो बहुत पहले ही फीकी पड़ने लगी थी। जाति और धर्म के नाम पर समाज में दरारें खुले तौर पर दिखने लगीं थीं। ये दरारें समाज में पहले से ही थीं।
सच तो ये है कि जाति-धर्म की ये दरारें हमारे सामाजिक डीएनए का ही हिस्सा हैं। पहले की सरकारें, ख़ास तौर से कांग्रेस की, हमेशा से ही मुसलमानों के प्रति दया भाव तो दिखाती थीं, मगर उनकी अनदेखी करती आई थीं। पहले की सरकारें भी मुसलमानों से भेदभाव करती थीं।
ये पार्टियां और सरकारें मुसलमानों के वोट उन्हें बराबरी, इंसाफ़ और विकास देने के नाम पर नहीं मांगती थीं। बल्कि, मुसलमानों को हमेशा उनके मज़हब के नाम पर भड़काया जाता था। फिर उन्हें ये पार्टियां ये भरोसा देकर वोट मांगती थीं कि वो उनकी मज़हबी पहचान की हिफ़ाज़त करेंगी। इस दौरान मुस्लिम समाज का विकास ठप पड़ता गया। तालीम, नौकरी, सेहत और आधुनिकता के मोर्चों पर भारत के मुसलमान बाक़ी आबादी से पिछड़ते ही चले गए।
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने बजाई ख़तरे की घंटी
साल 2006 में आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने पहली बार भारत के मुसलमानों के हालात पर ख़तरे की घंटी बड़े ज़ोर से बजाई थी। इस रिपोर्ट के आने के बाद मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन को लेकर चर्चा होने लगी। पहली बार मुसलमानों को सिर्फ़ एक धार्मिक-सांस्कृतिक समूह के तौर पर देखने के बजाय, उनके विकास को लेकर देखा गया। तस्वीर बेहद भयावह थी। 2001 की जनगणना के मुताबिक़ मुसलमानों में साक्षरता दर महज़ 59.1 फ़ीसदी थी। ये भारत के किसी भी सामाजिक तबक़े में सबसे कम थी।
2011 की जनगणना के आंकड़ों में मुस्लिम समुदाय की साक्षरता की दर 68.5 दर्ज की गई। मगर अब भी ये भारत के बाक़ी समुदायों के मुक़ाबले सबसे कम ही थी। 6-14 साल की उम्र वाले 25 फ़ीसदी मुस्लिम बच्चों ने या तो कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा या फिर वो शुरुआत में ही पढ़ाई छोड़ गए। देश के नामी कॉलेजों में केवल 2 फ़ीसदी मुस्लिम पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए दाख़िला लेते हैं।
मुसलमानों को नौकरियां भी कम मिलती हैं और प्रति व्यक्ति ख़र्च के राष्ट्रीय औसत में भी वो निचली पायदान पर हैं। आला दर्जे की सरकारी सेवाओं में मुसलमानों की मौजूदगी न के बराबर है। देश की कुल आबादी में मुसलमान 13.4 फ़ीसदी हैं। मगर प्रशासनिक सेवाओं में केवल 3 फ़ीसदी, विदेश सेवा में 1।8 फ़ीसदी और पुलिस सेवा में केवल 4 फ़ीसदी मुस्लिम अधिकारी हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद तमाम सियासी वादे भी हुए। लेकिन इनका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला।
क्या मुसलमानों के हालात बदले?
सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों को किस हद तक लागू किया गया और मुसलमानों के हालात में कितना बदलाव आया इसके अध्ययन के लिए 2013 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने कुंडू कमेटी का गठन किया। इस कमेटी की रिपोर्ट से और भी बुरी ख़बर सामने आई। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद से भारत के मुसलमानों के हालात में ज़रा भी बेहतरी नहीं आई थी।
सरकारी नौकरियों में मुसलमान कितने?
मुसलमानों में ग़रीबी, पूरे देश के औसत से ज़्यादा है। मुस्लिम समाज की आमदनी, ख़र्च और खपत की बात करें, तो वो दलितों, आदिवासियों के बाद नीचे से तीसरे नंबर पर हैं। वहीं 2014 के आम चुनाव से पहले सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं बढ़ रही थीं।
सरकारी नौकरियों में धर्म के आधार पर हिस्सेदारी का आंकड़ा मोदी सरकार ने देने से मना कर दिया है। इसलिए ये नहीं कहा जा सकता है कि सरकारी नौकरियों में कितने मुसलमान हैं लेकिन कुंडू कमेटी का मानना है कि सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की तादाद चार फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं है।
मुस्लिम समाज के विकास और सुरक्षा को लेकर कुंडू कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में जो कहा, वो भविष्यवाणी जैसा ही साबित हुआ। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट के आख़िर में लिखा था, ''मुस्लिम अल्पसंख्यकों का विकास उनकी सुरक्षा की बुनियाद पर होना चाहिए। हमें उन्हें यक़ीन दिलाने के लिए उस राष्ट्रीय राजनैतिक वादे पर अमल करना चाहिए, जो बनावटी ध्रुवीकरण को ख़त्म करने की बात करता है।''
ये बात भविष्यवाणी जैसी सच साबित हुई।
2014 के बाद से मुसलमानों के हालात
2014 में सरकार बदलने के बाद से देश का माहौल पूरी तरह से बदल गया है। आज मुसलमानों की बात होती है, तो उनके बच्चों के स्कूल छोड़ने से लेकर आमदनी घटने की फ़िक्र का ज़िक्र नहीं होता। बल्कि आज उनकी जान और आज़ादी की हिफ़ाज़त और उनके लिए इंसाफ़ मांगने की बात होती है। 2014 के बाद से मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरे अपराधों की कई घटनाएं सामने आई हैं। मुसलमानों को पीटकर मार डालने, ऐसी घटनाओं के वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर प्रचारित करने और इस पर पूरी बेशर्मी से जीत की ख़ुशी मनाने की घटनाएं हुई हैं।
लोगों पर बसों, ट्रेनों और हाइवे पर इसलिए हमले हुए हैं क्योंकि वो मुसलमान थे या मुसलमानों जैसे दिखते थे। लोगों को इसलिए मारा-पीटा गया कि कुछ लोगों को ये शक हो गया कि वो गाय का मांस ले जा रहे थे। इसी तरह क़ानूनी तरीक़े से कारोबार के लिए जानवरों के मेलों से गायें ख़रीदकर ले जा रहे लोगों से मारपीट की गई। जबकि कृषि प्रधान देश भारत में जानवरों का कारोबार बेहद अहम है। ये भीड़ का निज़ाम है, क़ानून का नहीं।
ऐसी तमाम घटनाओं में पुलिस का रवैया पक्षपातपूर्ण रहा है। पहले तो पुलिसवालों ने ऐसे ज़ुल्मों के शिकार लोगों पर ही गौ संरक्षण क़ानून (भारत के 29 में से 24 राज्यों में ऐसे क़ानून हैं) के तहत केस कर दिए जबकि अक्सर पुलिस के पास सबूत के नाम पर सिर्फ़ भीड़ का शोर होता था।
फिर दबाव बढ़ने पर पुलिस बेमन से संदिग्धों के ख़िलाफ़ केस करती, जबकि उनके खिलाफ़ तमाम सबूत होते थे। नफ़रत की हिंसा के शिकार मरे हुए या घायल पीड़ित सामने होने पर भी पुलिस केस दर्ज करने में आनाकानी करती थी। भारत में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा कोई नई बात नहीं। लेकिन ऐसी घटनाओं का आम हो जाना और सरकार का पूरी तरह ख़ामोशी अख़्तियार कर लेना, नई बात है। पहले जो घटनाएं इक्का-दुक्का हुआ करती थीं, वो अब रोज़मर्रा की बातें हो गईं हैं।
लव जिहाद
फिर लोगों के बीच ये माहौल बनाया जा रहा है कि भारत के मुसलमान नौजवान उस अंतरराष्ट्रीय साज़िश में शामिल हैं, जिसके तहत हिंदू लड़कियों को बहलाकर उन्हें मुसलमान बनाकर आतंकवादी गतिविधियों में शरीक किया जा रहा है। हिंदू दक्षिणपंथी इसे 'लव जिहाद' कहते हैं। ऐसे संगठनों से जुड़े लोगों ने युवा जोड़ों पर खुलेआम हमले किए हैं और मुस्लिम मर्दों से शादी करने वाली हिंदू लड़कियों के ख़िलाफ़ ये कहकर केस दर्ज करा दिए हैं कि इन महिलाओं को जिहादी फैक्ट्री ने बहला-फुसला दिया है।
मुसलमानों के ख़िलाफ़ सत्ताधारी बीजेपी के नेताओं और मंत्रियों की नफ़रत भरी बयानबाज़ी आम बात हो गई है। अब ऐसे बयानों से न तो झटका लगता है और न ही ये चौंकाते हैं। राजस्थान के एक विधायक ने कहा कि-मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं ताकि वो भारत को हिंदुओं से छीन लें। अब इस विधायक की मांग है कि मुस्लिम परिवारों के ज़्यादा बच्चे पैदा करने पर रोक लगे।
एक और केंद्रीय मंत्री ने शब्दों की बाज़ीगरी दिखाते हुए मुसलमानों पर हमला बोला। उन्होंने कहा कि वोटर के पास दो विकल्प हैं या तो वो रामज़ादों (हिंदुओं) को चुनें या हराम-ज़ादों (मुसलमानों) को। ऐसी नफ़रत भरी बयानबाज़ी के ख़िलाफ़ बने क़ानूनों की नियमित रूप से अनदेखी होती है।
ये सब क्यों हो रहा है? ये आग कैसे भड़क रही है?
ऐसा लगता है कि मुसलमानों के ख़िलाफ़ सारे विकल्प खुले हुए हैं। किताबें नए सिरे से लिखी जा रही हैं। सड़कों के नाम बदले जा रहे हैं। इतिहास की खुली लूट-सी मची है।
बादशाह अच्छे थे या बुरे, इसका फ़ैसला इस बात पर हो रहा है कि वो मुसलमान थे या हिंदू। मुसलमान नौकरी मांगें, इंसाफ़ मांगें, मॉल में जाएं, ट्रेन में सफ़र करें, इंटरनेट पर चैटिंग करें, जींस पहनें या अपने मुसलमान होने की खुली नुमाइश करें। मुसलमानों का अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग करना भी उनके लिए ख़तरनाक हो सकता है। वो सोशल मीडिया पर ट्रोल हो सकते हैं। भीड़ उन पर हमला कर सकती है।
एक जवाब ये है कि भारतीय समाज में ग़ैरबराबरी बढ़ रही है। भारत के सबसे अमीर एक फ़ीसदी लोगों का देश की 58 फ़ीसदी संपत्ति पर क़ब्ज़ा है।(Oxfam International's global inequality report 2018)।
ऐसे हालात में सामाजिक सद्भाव कैसे हो सकता है?
बढ़ते बेरोज़गारी के आंकड़े
आज भारत में तीन करोड़ से ज़्यादा लोग नौकरी तलाश रहे हैं (Centre for Monitoring Indian Economy)। मई 2018 में इम्तिहान के नतीजे आने के बाद बेरोज़गारों की एक और खेप बाज़ार में होगी। इससे एक और झटका लगने वाला है। ऐसे बुरे माहौल में जब आर्थिक तरक़्क़ी की उम्मीद कम दिखती है, तो दूसरों से नफ़रत करके और उन पर हमला कर के ही लोगों को ख़ुशी होती है।
ख़ास तौर से तब और अच्छा महसूस होता है, जब आप को बताया जाता है कि ये काम आप देशहित में कर रहे हैं। और अगर निशाने पर वो 'जिहादी मुसलमान हों, जिन्होंने भारत का बंटवारा किया और अब भारत के सबसे बड़े दुश्मन सीमा पार पाकिस्तान के मुसलमानों से नाता रखते हों, तो कहने ही क्या!'
ये एहसास तब और बेहतर हो जाता है जब मौजूदा निज़ाम ने हमलावरों को खुली छूट दे रखी हो। ऐसे हमलों को तो हिंदुत्ववादी विचारधारा भी बढ़ावा देती है। मौजूदा सरकार भी उसी हिंदुत्ववादी विचारधारा को मानती है जिसके अनुसार भारत पर पहला हक़ हिंदुओं का है और हिंदुओं के अलावा जो बाक़ी लोग हैं वो सिर्फ़ सिर झुकाकर हुक्म बजाएं और जो कहा जाए वो करें।
मुसलमानों की अनदेखी
भारतीय मुसलमानों के लिए सबसे तगड़ा झटका राजनीतिक तौर पर उनके वोटों की अहमियत का ख़त्म हो जाना है। 2014 में बीजेपी एक भी मुस्लिम सांसद के बग़ैर पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई। भारत में ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी पार्टी को बहुमत मिला हो, और उसका एक भी मुस्लिम लोकसभा सांसद न हो।
2014 के लोकसभा चुनाव में केवल 4 प्रतिशत मुस्लिम सांसद चुने गए। मुसलमानों की मौजूदा आबादी 14।2 फ़ीसदी के अनुपात में ये लोकसभा में मुसलमानों की अब तक की सबसे कम नुमाइंदगी है।
भारत के सबसे ज़्यादा आबादी वाले सूबे उत्तर प्रदेश में 19।2 फ़ीसदी मुसलमान हैं। लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को नहीं उतारा और बड़े आराम से बहुमत हासिल कर लिया।
पार्टी ने मुसलमानों के ज़ख्मों पर तब और नमक छिड़क दिया, जब भगवाधारी योगी को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया। योगी के ख़िलाफ़ कई आपराधिक मामले चल रहे थे। इनमें धर्म और ज़ात के नाम पर दो समुदायों के बीच नफ़रत फ़ैलाने (आईपीसी की धारा 153A) का आरोप भी है।
ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था जहां फ़ैसला बहुमत से होता हो, जहां अधिकारों के बंटवारे, स्वतंत्र न्यायपालिका, क़ानून का राज और निष्पक्ष मीडिया की व्यवस्था न हो, वहां अल्पसंख्यकों के लिए मुश्किलें बढ़ जाती हैं। ये हालात बहुसंख्यकों की तानाशाही की तरफ़ ले जाते हैं। आज भी भारत का संविधान इस देश के नागरिकों का सबसे बड़ा रक्षक है। लेकिन, एक प्रस्तावित क़ानून, धर्मनिरपेक्ष नागरिकता की संविधान की बुनियाद को कमज़ोर करने का काम कर सकता है।
प्रस्तावित नागरिकता (संशोधन) बिल 2016 में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफग़ानिस्तान से आने वाले हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और यहां तक ईसाइयों को भारत की नागरिकता देने का प्रस्ताव तो है। लेकिन इन देशों से आने वाले मुसलमान शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने पर पाबंदी लगाने का प्रस्ताव है।
माहौल में इतनी नफ़रत से लोगों की खीझ बढ़ रही है लेकिन इस माहौल को बदलने के लिए मुख्यधारा की मौजूदा सियासत में बहुत बड़े बदलाव की ज़रूरत है। साथ ही आम भारतीय के ज़हन और दिल में भी बदलाव की ज़रूरत है। एक फलता-फूलता अल्पसंख्यक ख़ासकर मुसलमान अल्पसंख्यक सिर्फ़ गुज़रे ज़माने के भारत के प्रतीक नहीं है, बल्कि इसके लोकतांत्रिक भविष्य के लिए भी ज़रूरी हैं। उम्मीद है कि ये बात समझ कर हिंदुस्तान लंबे समय से चली आ रही अपनी ख़ामोशी तोड़ेगा।
(फराह नक़वी वर्किंग विद मुस्लिम्स बियॉन्ड बुर्का एंड ट्रिपल तलाक की लेखिका हैं)