रविवार, 21 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. Even after a month in the peasant movement, how are people stuck on the front
Written By BBC Hindi
Last Updated : मंगलवार, 29 दिसंबर 2020 (17:21 IST)

किसान आंदोलन: महीने भर बाद भी कैसे मोर्चे पर डटे हुए हैं लोग

Farmer Protest: किसान आंदोलन: महीने भर बाद भी कैसे मोर्चे पर डटे हुए हैं लोग - Even after a month in the peasant movement, how are people stuck on the front
चिंकी सिन्हा (बीबीसी हिन्दी के लिए)
 
शुरुआत में उन ट्रॉलियों के अंदर सिर्फ़ बल्ब लगे थे। बाहर अंधेरा था। महिलाएं और पुरुष आग को घेरे खाना बनाने की कोशिश कर रहे थे। किसान आंदोलन को देखने जाते वक़्त ट्रैक्टरों से गुज़रते हुए आपको पानी की छप-छप आवाज़ सुनाई देती थी।
 
खड़े ट्रैक्टरों के बीच से निकलते हुए आप हर जगह लंगर बनते देख सकते थे। हर 100 मीटर पर खाना बन रहा था। थोड़ी दूर पर मानसा से आए राज माखा तूंबा बजाकर उधम सिंह के बहादुरी के कारनामों के गाने गा रहे थे। कुछ युवक लाठियां लिए उन महिलाओं की हिफ़ाज़त के लिए आगे-आगे चल रहे थे। ये गांवों से किसान आंदोलन में हिस्सा लेने आईं महिलाओं के दलों का हिस्सा हैं।
 
किसानों के सैलाब के साथ उनके गांवों से लाए गए कुछ वॉटर टैंक भी वहां खड़े दिखे। बफ़र ज़ोन से थोड़ी दूर बॉर्डर पर एक स्टेज भी बना हुआ था। पुलिस बैरिकेड्स से घिरी ज़मीन एक तरह का बफ़र ज़ोन बन गई है।
 
प्रदर्शनकारियों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए कंटीले तार बिछा दिए गए हैं। बालू से भरे ट्रक खड़े हैं और हाथों में बंदूक़ उठाए, वर्दी पहने सैनिक गश्त लगा रहे हैं। उनके हाथ में आंसू गैस के गोले हैं। लेकिन टिकरी और सिंघु बॉर्डर पर दूसरी ओर किसान भी डटे हैं झंडा लहराते हुए।
 
बस गए हैं प्रतिरोध के गांव, छप रहा है आंदोलन का अख़बार
 
कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों का 'दिल्ली चलो' आंदोलन अब अपने दूसरे महीने में प्रवेश कर गया है। अब इसमें राजस्थान और यहां तक कि महाराष्ट्र के किसान भी शामिल हो गए हैं।
 
यूपी से आकर यहां सड़क के किनारे सैलून चलाने वाला शख़्स ग्राहकों को निपटाने में लगा था। किसानों के यहां आने के बाद ही इस शख़्स ने अपनी दुकान खोल ली थी। एक सप्ताह के भीतर कुछ और लोगों ने यहां अस्थायी स्टोर खोल लिए थे।
 
एक और शख़्स किसानों को चप्पलें और जूते बेच रहा था। कुछ दूरी पर कोई जैकेट बेच रहा था और इस तरह विरोध प्रदर्शन की इस जगह ने एक मुकम्मल शक्ल ले ली है। अब यहां प्रतिरोध के पिन्ड यानी गांव बन गए हैं।
 
अब यहां ओपन जिम हैं। लाइब्रेरी और कम्युनिटी सेंटर हैं। अब तो यहीं से 'ट्रॉली टाइम' नाम का अख़बार भी निकल रहा है। यह किसानों का ख़ुद का शुरू किया गया अख़बार है और कुछ लोगों का तो कहना है कि यह देश का सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला अख़बार है।
 
प्रतिरोध से पैदा इस अख़बार में यहां आए लोगों की कहानियां हैं। विरोध प्रदर्शन की जानकारियां हैं। किसानों या कैंपेन करने आए छात्र-छात्राओं के बनाए चित्र और उनकी लिखी कविताएं हैं। समर्थकों और सहयोगियों की लिखी स्टोरी हैं। जो भी कुछ लिखना चाहता है, उसे इसमें जगह मिल रही है।
 
18 दिसंबर के पहले अंक में जसविंदर की लिखी स्टोरी 'स्वेटर' छपी थी। इसमें बीबी कही जानी वाली एक महिला की कहानी थी, जो हर दिन इस उम्मीद में स्वेटर बुन रही थी कि एक दिन में इसे पूरा कर लेंगी और फिर दूसरा शुरू कर देंगी।
 
लेकिन, गांव में सूचना का ऐलान करने वाले शख़्स ने आवाज़ लगाई कि अगर उनके गांव की कोई महिला विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेना चाहती हैं तो पहले गुरुद्वारे में हाज़िरी लगाएं। बीबी ने स्वेटर बुनना छोड़ दिया और गुरुद्वारे की ओर चल पड़ीं। लोग उन्हें मनाते रहे कि आपको अस्थमा है। बहुत ज़्यादा ठंड भी है। लेकिन वह नहीं मानीं। सीधे गुरुद्वारे की ओर से चल दीं।
 
उनकी बहू ने मज़ाक़ किया। बीबी आपका स्वेटर अब अधूरा रह जाएगा। सास ने पलट कर जवाब दिया, 'अगर विरोध जताने नहीं गई तो अब तक जो बुना था, उसका बहुत कुछ उधड़ जाएगा- इसमें मेरे बेटे का सपना और तुम्हारे पिता की जोड़ी गई ज़मीन भी शामिल है।'
 
एक और स्टोरी का शीर्षक है- शहीद गुरमेल कौर। स्टोरी लिखी है, संगीत तूर ने। संगीत ने 80 साल साल की गुरमेल कौर की कहानी लिखी है। संगरूर ज़िले के घरछांव गांव की गुरमेल कौर अपना छोटा-सा बैग समेट कर यह कहते हुए निकल गई थीं कि वह अपनी ज़मीन के लिए जान देने को तैयार हैं।
 
प्रदर्शन स्थल पर दो सप्ताह तक विरोध जताने के बाद गुरमेल कौर कालाझार टोल प्लाज़ा पर हो रहे प्रदर्शन में शामिल हो गई थीं। उनका दल गांव लौट चुका था। लेकिन 8 दिसंबर को एनएच-7 पर बने टोल प्लाज़ा पर दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई।
 
एक डेंटिस्ट, एक फ़िज़ियोथेरेपिस्ट, एक फ़िल्म राइटर, एक वीडियो डायरेक्टर, दो डॉक्यूमेंट्री फ़ोटो आर्टिस्ट और एक किसान ने मिलकर ट्रॉली टाइम्स निकालने के आइडिया पर काम करना शुरू किया था। अब इसके मास्टहेड के नीचे भगत सिंह का एक कोट लिखा है, 'इंक़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है।'
 
अपने प्रदर्शन के शुरुआती दिनों में किसान मेनस्ट्रीम मीडिया में इसकी इकतरफ़ा कवरेज से परेशान थे। उन्होंने कवरेज के लिए आए मेनस्ट्रीम मीडिया संस्थानों के कुछ पत्रकारों का विरोध शुरू किया। वे तख़्ती लेकर उनके ख़िलाफ़ नारे लगाते दिखे। इन तख़्तियों पर लिखा था- 'गोदी मीडिया वापस जाओ।'
 
इस तरह विरोध प्रदर्शन आगे बढ़ता दिख रहा है। अपने एक अख़बार के साथ, जो उन लोगों को और उनके साहस को याद करता है जिनकी इसमें मौत हो चुकी है।
 
किसानों की आवाज़ बना विरोध का यह ग्लोबल गीत
 
जब यह आंदोलन शुरू हुआ था तो सिंघु बॉर्डर और टिकरी में शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं थी। किसानों को खुले में जाना पड़ रहा था। यह देख कर स्थानीय लोगों ने अपने घरों के शौचालय उनके लिए खोल दिए।
 
लेकिन, कुछ ही दिनों में वहां मोबाइल शौचालय पहुंच गए। हरियाणा नगर निगम ने वहां ये टॉयलेट लगाने शुरू किए। इसके अलावा कई एनजीओ ने वहां पोर्टेबल शौचालय और पीने के पानी की व्यवस्था शुरू की। किसानों के लिए टेंट भी लगाए गए। प्रदर्शन के दौरान गुरमेल कौर जैसे कुछ लोगों की मौत भी हुई।
 
प्रदर्शन स्थल पर चलते हुए युवा और बुज़ुर्गों से भरे ट्रैक्टर दिख रहे हैं। वे झंडे उठाए हुए हैं और नारे लगा रहे हैं। फल और सब्ज़ियां बांट रहे लोग कंवर ग्रेवाल जैसे पंजाबी गायकों के गाने ऊंची आवाज़ में सुन रहे हैं।
 
मैं देख रही हूं, ट्रैक्टरों पर बेहद ऊंची आवाज़ वाले स्पीकर बंधे हुए हैं। सड़कें एक अजीब ऊर्जा से गूंज रही हैं। एक डीजे वाला ट्रैक्टर भी है, जो किसानों के मनोरंजन और उनमें जोश भरने के लिए डिस्को लाइट से लैस है।
 
हरप्रीत सिंह के ट्रैक्टर पर 'पेचा पै' गाना बज रहा है, जिसे हर्फ़ चीमा ने लिखा है। चीमा और ग्रेवाल ने मिलकर इसे गाया है। इस गाने को यूट्यूब पर 30 लाख से अधिक व्यूज़ मिल चुके हैं।
 
हरप्रीत सिंह की उम्र 20 से थोड़ी ज़्यादा हो रही है। भठिंडा के रामपुरा गांव के हरप्रीत कबड्डी के खिलाड़ी हैं। वह कहते हैं कि यह दिल्ली और पंजाब के बीच का विभाजन है। पंजाब की राह में केंद्र की ख़राब नीतियां हैं। वह गाने की लाइन 'काल्या नीति कर दे लागू' दोहराते हुए लोगों को इसका विरोध करने के लिए कहते हैं।
 
विरोध के ये गाने पिछले दो-तीन महीनों में रिलीज़ हुए हैं। इन गानों के वीडियो में हाईवे को बंद किए गए ट्रकों और ट्रैक्टरों के दृश्य हैं। इनमें पूरे पंजाब में कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ जगह-जगह हो रहे प्रदर्शनों के दृश्य हैं। दिल्ली चलो आंदोलन के शॉट्स फ़िल्माए गए हैं। हरप्रीत सिंह अपने तीन कज़िन के साथ और अपने चाचा के साथ टिकरी बॉर्डर पर आए हैं।
 
वह कहते हैं, 'हम इन गानों को इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि ये हमें प्रेरित करते हैं। इन गानों को गाने वाले किसान के बेटे हैं। वे मुद्दों को समझते हैं।'
 
शाहीन बाग़ और दुनिया भर में हुए दूसरे प्रदर्शनों में गाए जाने वाले विरोध के गीत इन किसानों के लिए भी विरोध की आवाज़ बन गए हैं। हरजीत और उनके रिश्ते के भाई अमनदीप के मुताबिक़ विरोध के ये गीत आपको यह अहसास दिलाते हैं कि आप अकेले नहीं है। असहमति की भावना के साथ यहां आप आए हैं। लेकिन आपके साथ और लोग भी हैं।
 
रास्ते में आप ट्रैक्टरों के स्पीकर पर बजते गानों की धुन पर नाचते बुज़ुर्ग किसानों को देख सकते हैं। किसी मुद्दे के इर्द-गिर्द समुदायों को संगठित करने में इन विरोध गीतों की अहमियत काफ़ी ज़्यादा बढ़ जाती है। ये एक साथ कई काम करते हैं। ये लोगों को मुद्दों के बारे में बताते हैं, उन्हें प्रेरित करते हैं। उनमें भावुक और बौद्धिक चेतना भरते हैं। वे पुराने नायकों की याद दिलाते हैं और उनमें सामूहिक एकता जगाते हैं।
 
विरोध और राजनीतिक आंदोलनों में संगीतकारों ने ऐतिहासिक और सामाजिक तौर पर बड़ी भूमिका निभाई है। यही अब 'दिल्ली चलो' आंदोलन में भी दिख रहा है। जहां बज रहे ज़्यादातर गाने बेहद मुखर हैं। उनमें लय है। गीतों का कंटेंट माहौल के हिसाब से है।
 
'फ़ार्म लॉ वापस जाओ'
 
विरोध का बेहद प्रसिद्ध इतालवी गाना 'बेला चाओ' की गूंज भी शाहीन बाग़ आंदोलन में सुनाई पड़ी थी। पत्रकार सुगत श्रीनिवास राजू और और उनकी पत्नी रोज़ी डिसूज़ा ने इसे कन्नड़ में ढाला था ताकि विभाजनकारी राजनीति का विरोध किया जा सके।
 
अब 'बेला चाओ' की तर्ज़ पर पंजाबी में 'फ़ार्म लॉ वापस जाओ' केंद्र के कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे किसानों का एंथम बन चुका है। इतालवी गाना बेला चाओ का मतलब है गुड्बाय ब्यूटीफ़ुल। यह गाना मूल रूप से उत्तरी इटली की मोदिना महिलाओं ने गाया था जो धान के खेतों में काम के बेहद कठिन माहौल का विरोध कर रही थीं।
 
इसका पहला संस्करण 1906 में गाया गया था और इसके बाद इसमें सुधार कर इसे 1943 से 1945 के बीच इटली में फासीवाद का विरोध कर रहे राजनीतिक दलों का एंथम बना दिया गया। यह इटली के गृह युद्ध के दौरान नाज़ी जर्मनी के ख़िलाफ़ इतालवी पुनर्जागरण का प्रतीक बन गया। यह आज़ादी की गुनगुनाहट बन गया और दुनिया में प्रतिरोध का प्रतीक। 2015 में इटली के जिन हिस्सों में दक्षिणपंथियों का शासन था, वहां इसे बैन भी कर दिया गया था। बेला चाओ की तर्ज़ पर पंजाबी में बने गाने के बोल हैं- 'तवाडे इन काले, क़ातिल क़ानूनान, दा इकोई जवाब - वापस जाओ'।
 
पंजाब और हरियाणा के किसानों का भाईचारा
 
अब हरियाणा के अलग-अलग खापों के रागिनी गायकों के भी गाने सामने आए हैं। रागिनी संवादों के आधार पर गाए गए गाने हैं। रागिनी हरियाणा के लोक नाट्य परंपरा का हिस्सा है। इन गानों को पूरे ऑर्केस्ट्रा के साथ गाया जाता है। इनमें सारंगी, ढोलक, नक्कारा, हारमोनियम क्लेरिनेट जैसे साज़ होते हैं। रागिनी के गाने समसामयिक मुद्दे पर भी बनाए जाते हैं।
 
बैंकों के सैकड़ों करोड़ रुपए हड़पने का आरोप झेल रहे विजय माल्या और नीरव मोदी के मामलों पर तीखे व्यंग्य करते हुए रागिनी गीत बन चुके हैं। और अब रागिनी के गाने किसानों के मुद्दों और केंद्र सरकार के साथ उनके टकराव को लेकर लिखे जा रहे हैं।
 
टिकरी बॉर्डर पर एक बैनर लहरा रहा है। इसपर लिखा है- नोगामा खाप। यहां रागिनी गायक भगत सिंह का नाम लेकर गाना गा रहे हैं। हमारे सामने लोक गायक संदीप ने माइक लेकर किसानों पर रागिनी गीत गाना शुरू कर दिए। आंदोलन के शुरुआती दिनों में ये रागिनी गायक यहां नहीं दिखे थे। लेकिन, एक सप्ताह के भीतर ही हरियाणा के ये खाप पंजाब के किसानों के साथ यहां आकर मिल गए। वो दिसंबर के पहले सप्ताह में यहां आ गए थे। हर जगह टेंट बिछ गए थे। मंच बन गए थे।
 
इसके अलावा किसानों ने अपनी धारा 288 लगा रखी है। यह धारा 144 की दोगुनी संख्या है। यह किसानों की एक प्रतीकात्मक धारा है। जो कहती है कि विरोध स्थल पर किसानों के अलावा किसी दूसरे का प्रवेश प्रतिबंधित है। धारा 288 का सबसे पहले इस्तेमाल भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) ने किया था जब, चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत 1988 में दिल्ली के बोट क्लब पर धरने पर बैठ गए थे। इसके बाद बोट क्लब का पूरा इलाक़ा हुक्का, लंगर, गानों और नारों से भर गया था। हर जगह गानों की डायरियां खुल गई थीं। हर जगह कविता पढ़ी जा रही थी।
 
हमारी मुलाक़ात टिकरी बॉर्डर पर एक बुज़ुर्ग से हुई, जो ख़ुद को शौक़िया कवि कह रहे थे। उन्होंने अपना नाम ज़ख़्मी बताया। उनका कहना था कि विरोध और किसानों के दर्द ने उन्हें कविता लिखने को प्रेरित किया। उन्होंने कहा, ''मैं आपको यह कविता सुनाना चाहता हूं।' 71 साल के बुज़ुर्ग किसान गुरदीप सिंह ने विरोध स्थल पर जाकर अपना नाम ज़ख़्मी रख लिया।
 
उन्होंने बताया कि वह संगरूर से हैं और उनके पास गांव में पांच एकड़ ज़मीन है। उन्होंने कहा, 'किसानों की तकलीफ़ देख कर मेरी देह और आत्मा को चोट पहुंचती है।' ज़ख़्मी कई पंजाबी क्रांतिकारी कवियों का तख़ल्लुस रहा है। गुरदीप सिंह ने इसे ही अपना लिया है। इसके बाद एक और शख़्स मिले। उन्होंने अपना नाम बताया- वंत सिंह खेली।
 
भठिंडा के रहने वाले खेली ने डीज़ल की ऊंची क़ीमतों और किसानों की दुर्दशा पर एक गाना गाया। उनका कहना था यह गाना उनका बनाया हुआ है। उन्होंने विरोध कर रहे किसानों के साथ अपनी एकता ज़ाहिर करने के लिए हरी पगड़ी बांध रखी है। वह कहते है, 'मैं अपनी ज़मीन और कठिन जीवन संघर्ष कर रहे अपने लोगों के बारे में गाना गाता हूं।'
 
जोश के साथ होश का इंतज़ाम
 
इस जगह पर 'साहित्य चौपाल' भी सजा है। यहां वॉलिंटियर्स आसपास बसी झुग्गियों के बच्चों को पढ़ा रहे हैं। पंजाब के वॉलिंटियर्स हर जगह एंबुलेंस लेकर मौजूद हैं। वे यहां हर तरफ़ हेल्थ चेक-अप सेंटर चला रहे हैं। यहां तक कि रक्तदान शिविर भी चलाए जा रहे हैं। दर्शन सिंह कहते हैं, 'इस विरोध का इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहद जटिल है। एक के बाद एक इसकी कई तहें हैं।''
 
मानसा के दर्शन सिंह का सफ़ेद खादी का कुर्ता और पगड़ी चमचमा रही है। कुर्ते में कड़क इस्तरी पड़ी हुई है। गुरने कला गांव में उनकी पांच एकड़ ज़मीन है। वह अपने गांव के 10 बुज़ुर्गों में शामिल हैं, जिन्हें टिकरी बॉर्डर पर किसानों के प्रदर्शन में प्रतिनिधि के तौर पर भेजा गया है।
 
ये लोग यहां 26 नवंबर को आए थे। मुखिया ने उन्हें चुन कर यहां भेजा है। हर दल में कुछ बुज़ुर्ग लोग भेजे गए हैं, ताकि वे युवाओं पर नज़र रखें और उनका मार्गदर्शन भी करें। वह कहते हैं, 'ये (युवा) गर्म ख़ून वाले हैं। वे भड़क सकते हैं। हमें इन्हें समझाना है और यह पक्का करना है कि सब कुछ शांतिपूर्ण तरीक़े से चले।'
 
यहां आ रहे प्रदर्शनकारी किसानों ने एक सिस्टम बना रखा है। वे बारी-बारी से यहां आकर बैठ रहे हैं। लगातार अंतराल पर कुछ लोग चले जाते हैं और उनके बदले दूसरे लोग आ जाते हैं। आंदोलन को शुरू हुए काफ़ी दिन बीत चुके हैं। दर्शन कहते हैं कि उनका पहले से ही दिल्ली आकर विरोध जताने का इरादा था, लेकिन गेहूं की बुआई करनी थी, इसलिए सोचा कि उसके निपटने के बाद ही निकलेंगे।
 
इस बीच गांवों में गुरुद्वारे खाने-पीने और दूसरी चीज़ें जमा करने के केंद्र बन चुके थे। वॉट्सऐप ग्रुप पर मैसेज भेज कर और पर्चे बांट कर किसानों ने ख़ुद को संगठित करना शुरू कर दिया था। दर्शन सिंह ने कहा, 'हममें से हर किसी के पास तो स्मार्टफ़ोन नहीं है, लेकिन युवा लोग हमें ख़बरें देते रहते थे''। चैट ग्रुप पर उन्हें आंदोलन की तैयारियों के बारे में जानकारी मिलती रहती थी। इन्हीं से इन बुज़ुर्गों को उन क़ानूनों के बारे में जानकारी मिली, जो उनकी नज़र में उन्हें बर्बाद करने के लिए लाए गए हैं।
 
विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने के लिए जो व्यवस्था बनाई गई थी, उसके मुताबिक़ हरेक गांव को एक दल भेजना था। मुखिया या प्रधान को सदस्यों का चुनाव करना था। हर परिवार से एक व्यक्ति को आगे आना था। इसके तहत जब एक सदस्य प्रदर्शन स्थल से लौटता है, तो दूसरा गांव से वहां के लिए रवाना हो जाता है।
 
यहां जमे प्रदर्शनकारियों का कहना है कि ऐसे ही बारी-बारी से लोग यहां आकर विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेते रहेंगे, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि यह आंदोलन लंबा खिंचेगा। निश्चित अंतराल पर गांव से खाने-पीने की चीज़ें और दूसरे सामान भी यहां आएंगे ताकि अपने दम पर 'दिल्ली चलो' आंदोलन आगे चलता रहे।
 
दर्शन सिंह और उनके दोस्त ने हमें अपने न्यू हॉलैंड ट्रैक्टर पर बिठा कर टिकरी बॉर्डर और रोहतक रोड पर कुछ किलोमीटर दूर तक घुमाया। इस सड़क पर ट्रकों में भर कर आईं महिलाएं दिख रही हैं। महिलाएं इस आंदोलन का अभिन्न हिस्सा रही हैं और गांवों में राशन इकट्ठा करने में मदद कर रही हैं। ये राशन दिल्ली बॉर्डर पर जमे किसानों तक पहुंच रहा है। वे गांवों में अपनी ज़मीन और परिवार की देखरेख में लगी हैं।
 
हर तरफ़ बिखरा पड़ा है प्रतिरोध का सौंदर्य
 
सिंघु और टिकरी बॉर्डर पूरी तरह प्रतिरोध के सौंदर्य से पटा हुआ है। विज़ुअल मैटेरियल से लेकर टेक्स्ट और परफ़ॉर्मिंग आर्ट का मेला लगा है। छवियां, प्रतीकों, ग्रैफ़िटी और कपड़े हर जगह कला बिखरी हुई है। तरह-तरह के नारों, बोलचाल के शब्दों, व्यंग्य और तमाम तरह के कला प्रदर्शनों के ज़रिए विरोध ज़ाहिर किया जा रहा है। किसानों ने सोशल मीडिया के ज़रिए लोगों को इस आंदोलन से जोड़ने के लिए एक वैकल्पिक स्पेस बना लिया है।
 
स्वतंत्र फ़िल्मनिर्माता और फ़ोटोग्राफ़र आंदोलन के संदेश लोगों तक पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया पर फ़ोटो शेयर कर रहे हैं। मीडिया में इस आंदोलन के बारे में फैली फ़ेक न्यूज़ का सामना करने के लिए यह रणनीति अपनाई जा रही है।
 
दिल्ली के डॉक्युमेंट्री फ़िल्म निर्माता प्रतीक शेखर अलग-अलग जगहों पर हो रहे इस आंदोलन को फ़िल्मा रहे हैं। उन्होंने सोचा कि मेनस्ट्रीम मीडिया तो इस आंदोलन की हर चीज़ दिखाने से रहा, लिहाज़ा उन्होंने ख़ुद सोशल मीडिया पर तस्वीरें पोस्ट करने और उन्हें सर्कुलेट करने का बीड़ा उठाया। वह कहते हैं कि ये उनके लिए ज़बरदस्त अनुभव था।
 
वह कहते हैं, 'एक फ़िल्म निर्माता के तौर पर आप अलग-अलग जगहों को फ़िल्माने के दौरान अपना एक नज़रिया देने की कोशिश करते हैं, लेकिन यहां मैं ऐसा नहीं कर पाया। यह किसी कारवां की तरह था। यह अलग-अलग तरह के लोगों का एक बड़ा समंदर जैसा था।''
 
किसान आंदोलन के साथ अपनी एकता ज़ाहिर करने के लिए उन्होंने ऐसा किया और अब हर दिन वह अलग-अलग जगहों पर जाकर तस्वीरें ले रहे हैं।
 
सोशल मीडिया और कम्युनिकेशन के दूसरे माध्यमों के ज़रिए लोगों की इस तरह की पहल से आंदोलन को और समर्थन मिल रहा है। छात्र-छात्राओं और दूसरे समुदायों से जुड़े लोगों ने भी यहां आकर किसानों के साथ एकता दिखाई है।
 
लोगों के बीच चाय बांट रहे एक बुज़ुर्ग किसान ने कहा कि किसानों को किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। लेकिन, लोग यह समझें कि यहां आंदोलन करने आए लोग असल किसान हैं और वे यहां शांतिपूर्ण तरीक़े से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। उन्होंने कहा, 'हम ख़ालिस्तानी नहीं है।' 8 दिसंबर तक ज़्यादातर ट्रैक्टरों पर उन्होंने यह लिख कर तख़्तियां लटका दी थीं कि हम किसान हैं, ख़ालिस्तानी नहीं। मेट्रो के खंभों पर उन्होंने अपने विरोध के गीत लिख थे। कुछ लोगों ने ग्रैफ़िटी बना दिए थे।
 
लोगों का कारवां
 
एक बड़े आंदोलन स्थल के तौर पर हर दिन यह जगह अपने नए रूप में सामने आ रहा है। हर दिन बड़ी संख्या में लोग यहां आकर किसानों का साथ दे रहे हैं।
 
यहां लंबा चलने वाला राशन रखा है। यहां आने वाले कई लोग रास्ते में हैं। हर ट्रॉली में गद्दे, कंबल और बल्ब हैं। ट्रॉलियां तिरपाल से ढंकी हैं। गद्दों को गर्म रखने के लिए पुआल बिछाई जा रही है। खाना बनाने के लिए स्टोव और गैस सिलेंडर हैं।
 
रोटी बनाने वाली मशीनें भी लाकर रख दी गई हैं। सीढ़ियां और साथ लाई गई पानी की टंकियां हैं। टेलीविज़न सेट भी आ गए हैं। और सबसे बड़ी बात कि यह सिस्टम बन चुका है। आंदोलन का एक इन्फ्रास्ट्रक्चर (बुनियादी ढांचा) है, इसके अपने नियम हैं और इस नियम से लोग बंधे हुए हैं। दर्शन सिंह कहते हैं कि हरियाणा के किसान दूध, सब्ज़ियां और पानी से भरी टंकियां ला रहे हैं। वे हमारे छोटे भाई हैं।
 
किसानों से सरकार की बातचीत कई दिनों से रुकी हुई थी। फ़िलहाल किसान नेताओं और सरकार के बीच अगले दौर की बैठक होने वाली है। लेकिन, बढ़ती ठंड और तमाम दूसरी चीज़ों के बावजूद उनका इरादा ठंडा नहीं पड़ने वाला है।
 
दर्शन सिंह सड़क की दूसरी लेन की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, 'इस आंदोलन के दौरान हुई मौतें बेकार नहीं जाएंगीं।' यह लेन गाड़ियों के आने-जाने के लिए खोल दी गई है। एक ही महीने में प्रदर्शनकारियों ने विरोध स्थल को सांस्कृतिक ज़मीन में तब्दील कर दिया है। यहां खुले अस्थायी पुस्तकालयों में किताबें लाकर रख दी गई हैं। गाने गाए जा रहे हैं। लोग नाच रहे हैं। आंदोलन को आगे चलाए रखने के लिए हर चीज़ का इंतज़ाम है।
ये भी पढ़ें
हर साल पाकिस्तान में 1000 लड़कियां बनाई जाती हैं मुसलमान