पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि। सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ॥
सत्य के बारे में महावीरजी कहते हैं हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्त्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।
वे कहते हैं प्रमाद में पड़े बिना सदा असत्य का त्याग करें। सच बोलें। हितकर बोलें। सदा ऐसा सत्य बोलना कठिन होता है।
अप्पणट्ठा परट्ठा वा कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुखं बूया नो वि अन्नं वयावए॥
महावीरजी कहते हैं न तो अपने लाभ के लिए झूठ बोलें, न दूसरे के लाभ के लिए। न तो क्रोध में पड़कर झूठ बोलें, न भय में पड़कर। दूसरों को कष्ट पहुँचाने वाला न तो खुद असत्य बोले, न दूसरे से बुलवाए।
तहेव फरुसा भाषा गुरुभूऔवघाइणी। सच्चा वि सा न वत्तव्वा जओ पावस्स आगमो॥
वे कहते हैं सच बात भी कड़वी हो, उससे किसी को दुःख पहुँचता हो, उससे प्राणियों की हिंसा होती हो, तो वह नहीं बोलनी चाहिए। उससे पाप का आगमन होता है।
महावीरजी ने तो यहाँ तक कहा है कि काने को काना कहना, नपुंसक को नपुंसक कहना, रोगी को रोगी कहना, चोर को चोर कहना ये सब है तो सत्य, पर ऐसा कहना ठीक नहीं। इन लोगों को दुःख होता है।
महावीरजी कहते हैं यदि लोहे का काँटा चुभ जाए तो घड़ी दो घड़ी ही दुःख होता है। वह आसानी से निकाला जा सकता है। पर व्यंग्य बाण, अशुभ वाणी का काँटा तो हृदय में एक बार चुभ जाए तो फिर कभी निकाला ही नहीं जा सकता। वह बरसों तक सालता रहता है। उससे वैरानुबंध होता है, भय पैदा होता है।
अपुच्छिओ न भासेज्जा भासमाणस्स अन्तरा। विट्ठिमंसं न खाएज्जा मायामोसं विवज्जए॥
उन्होंने यह भी कहा है कि न तो बिना पूछे उत्तर दें, न दूसरों के बीच में बोलें। न पीठ पीछे किसी की निंदा करें। न बोलने में कपट भरे झूठे शब्दों को काम में लाएँ।