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Written By ND

प्रकृति का बिगड़ता संतुलन

प्रकृति का बिगड़ता संतुलन -
- दिलीप चिंचालकर
चीन से एक समाचार है। एक परिवार-एक बच्चे की नीति बरसों पहले लागू करने वालों ने एक और कानून बनाया है- एक घर-एक कुत्ता। सबब है रैबीज की संभावित महामारी की रोकथाम। नियंत्रण यदि आँकड़ों के जरिए ही माना है तो यह एकदम ठीक है। किसी घर में दो के बजाए एक ही पालतू श्वान रह जाता है तो रैबीज की संभावना अपने आप पचास फीसदी कम हो जाती है। यह बेकार तर्क है। रैबीज के विषाणु फैलाने में पालतू के बजाय आवारा कुत्तों की भूमिका अधिक रहती है। चीन जहाँ मनुष्य की भूख या स्वाद के आगे आकाश के परिंदे भी बच नहीं पाए हैं, वहाँ सड़कों पर कुत्ते आजादी से घूमते होंगे यह कल्पना करना जरा कठिन है।

पिछली गर्मियों में दक्षिण-पश्चिम फ्रांस में बुल-फ्रॉग मेंढकों को मारने का सिलसिला चला था। कुछ वर्षों पहले एक बावला विमान चालक इनकी टर्राहट पर मुग्ध होकर अमेरिका से दो जोड़ी मेंढक घर ले आया था। दस-बीस वर्षों में उनकी आबादी इतनी बड़ी कि उनके अनोखे संगीत से पूरे प्रदेश की नींद उड़ गई।

स्थानीय प्रशासन ने एक मेंढक पर एक डॉलर के इनाम की घोषणा कर दी। इस पर पर्यावरणविद् तो चुप रहे, परंतु थाईलैंड, हांगकांग और चीन के लोगों ने अफसोस जाहिर किया। कितने नादान हैं फ्रांसीसी कि ऐसी सुस्वादु वस्तु कोयों ही नष्ट कर रहे हैं। कुछ ऐसा ही संकट ऑस्ट्रेलिया के केन टोड़ मेंढकों पर भी छा रहा है। पहले तो किसी कीड़े पर काबू पाने की गरज से इन्हें दुनिया के दूसरे हिस्से से निमंत्रित किया गया। जब उन्होंने अपना काम ठीक-ठाक पूरा किया और इस बीच उनकी अपनी आबादी भी बढ़ गई तो शासन उन्हें खत्म करने पर आमादा हो गया है।

बात जीव-दया की नहीं है। न ही चीन की अंदरुनी श्वान नीति पर सलाह देने की कोई मंशा। ऐसा ही होता तो सबसे पहले अपने ही घर में हल्ला मचाया जा सकता था। चीन की तुलना में सड़क पर रहने वाले कुत्तों की संख्या भारत में कहीं ज्यादा है। दुनियाभर में रैबीज के कारण मरने वालों में 60 प्रतिशत भारतीय होते हैं। हर तीस मिनट में एक मौत। साँपों के काटने से भी हर साल ढाई लाख भारतीय दुनिया छोड़ जाते हैं, जबकि भारत सर्वाधिक जहरीले साँपों का देश नहीं है। वह है ऑस्ट्रेलिया, और पिछले वर्ष वहाँ साँप के काटने से सिर्फ एक व्यक्ति मरा है।

मुद्दा है प्रकृति द्वारा बनाए गए संतुलन में मनुष्य की दखलंदाजी का, अपना गृह (या घर) व्यवस्थित करने का। जैसे हम स्कूली शिक्षा के साथ प्रयोग करते हैं वैसे दुनिया भर की सरकारें प्रकृति के साथ सलूक करती हैं। बगैर दूर की सोचें, अधपके निर्णय लेकर तुरत-फुरत लागूकर देते हैं। इनका परिणाम सरकारें बदल जाने के बाद सामने आता है। कुछ वर्ष पहले कोलोराडो (अमेरिका) प्रशासन ने पता नहीं किस कारण एक अन्य राज्य दक्षिण डाकोटा से बकरियाँ आयात कीं। उन बकरियों ने कोलोराडो की बड़े सींगोंवाली पहाड़ी बकरियों का जीवन दूभर कर दिया। अब आयातित बकरियों का एक बड़ा जत्था उनके गृहराज्य भेजा गया है। मजे की बात यह कि इस बीच इन आततायी बकरियों की अपने ही घर में संख्या मात्र एक सौ रह गई है।

प्रकृति में प्राणियों के संतुलन का अनोखा उदाहरण ध्रुवीय हिरणों और भेड़ियों का है। बर्फीले इलाकों में रहने वाले करिबू (हिरण), जिन्हें रेनडियर भी कहा जाता है, सर्दियों में निचले मैदानों की ओर आ जाते हैं। गर्मियों में वापस हो लेते हैं। इस आने-जाने के दौरान भेड़िए इनका शिकार करते हैं। तेज दौड़ने वाले करिबू को पकड़ने के लिए भेड़ियों को खासी कवायद करनी पड़ती है। इसके लिए जरूरी है कि वे चुस्त-दुरुस्त हों। कमजोर भेड़िए थकान और कुपोषण से मर जाते हैं।

भेड़ियों के हाथ आते हैं बूढ़े, बीमार और लंगड़े करिबू। तंदुरुस्त जानवर उस ओर निकल जाते हैं। सदियों से यह सिलसिला चला आ रहा है। पिछले कुछ वर्षों से ब्रिटिश कोलंबिया में करिबू की आबादी लगातार कम हो रही है। सदियों के इतिहास में ऐसा पहले भी निश्चित हुआ होगा अब जागरूक वन्यजीव अधिकारियों ने भेड़ियों और भालुओं को इसके लिए दोषी ठहराया है। उन पर काबू पाने के लिए दूर देश से तेंदुए के जातभाई कूगर को न्योता भेजा जा रहा है।

यदि जयचंद के निमंत्रण पर आए मुहम्मद गौरी की तरह कूगर की नीयत डोल जाए तो? तल्ख मांस वाले भेड़ियों और भालुओं के बजाए उसे करिबू हिरण ही पसंद आ जाए तो? यदि कूगर के कारण भेड़िए और भालू खत्म होने की कगार पर आ जाए तो उसे कौन समझाएगा?

बर्ड फ्लू के कारण घबराए सिंगापुर ने पिछले दिनों से कौओं के खिलाफ अभियान चला रखा है। कौओं की आबादी जो कुछ महीनों पहले डेढ़ लाख थी, अब घटकर 35 हजार रह गई है। यही स्थिति रही तो अगले वसंत में पता चलेगा कि चूहे बढ़ गए हैं। उन पर नियंत्रण पाने के लिए बुलाना पड़ेंगे उल्लू और बिल्लियाँ, तब काँव-काँव सुनाई देने के बजाए हर शाख पर उल्लू दिखाई देंगे और बिल्लियाँ घरों में घुसकर दूध पीने लगेंगीं।

एक बार बिगड़ा हुआ संतुलन बिगड़ता ही चला जाएगा। वन्य जीवन संरक्षक या नौकरशाह के उत्साह में लिए हुए निर्णयों कालंबे समय तक परिणाम भुगतेंगे बेचारे जानवर। मनुष्य को अपने नियंता होने का मुगालता छोड़कर प्रकृति के कामकाज में दखलंदाजी नहीं करना चाहिए। उसे पिछले करोड़ों वर्षों से सृष्टि चलाने का अनुभव है। वह जानती है कब क्या करना चाहिए। यदि डेंगू, चिकनगुनिया और ऐसे असंतुलन मनुष्य की दादागिरी कम करने का उसका तरीका हो तो हमें उसका इशारा समझना चाहिए।