शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. »
  3. विचार-मंथन
  4. »
  5. विचार-मंथन
Written By ND

भारतीयों के लिए जरूरी खुशियाँ

भारतीयों के लिए जरूरी खुशियाँ -
- डॉ. अमर्त्य सेन

भारत आज विषम पस्थितियों से गुजर रहा है। मैं समझता हूँ कि मुंबई हमला भारत के लिए एक जगाने वाली घंटी साबित हुआ है। इसने हमें सिर्फ सुरक्षा ही नहीं, बहुत सारे मुद्दों पर सचेत होने के लिए मजबूर कर दिया है। इस हमले पर भारत की प्रक्रिया हमारी राजनीतिक प्रणाली की परिपक्वता को दर्शाता है।

इस प्रतिक्रिया ने पूरे विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया। बहुत लोगों ने आलोचना के स्वर
  भारत ने गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों की संख्या और भुखमरी के स्तर को देखते हुए इस बात का कोई कारण नहीं दिखाई देता कि क्यों भारत के राजनीतिक दल इस पर एक राय नहीं बना पाते और क्यों कोई संयुक्त कार्रवाई शुरू नहीं करते      
में कहा है कि मुंबई हमलों के बाद प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह का भाषण बहुत कोमल तेवर वाला था, इसमें वह आग नहीं थी, जो ऐसी स्थितियों में दिखनी चाहिए लेकिन मैं समझता हूँ कि तनाव कम करने के लिहाज से प्रधानमंत्री ने जान-बूझकर ऐसे शब्दों का चयन किया जिससे हालात और बिगड़ने से रोके जा सकें।

मेरे ख्याल से भारत की तीन सबसे बड़ी चुनौतियाँ भूख, अशिक्षा और कमजोर जन-स्वास्थ्य हैं। सरकार को इन मुद्दों पर ज्यादा जोर देना चाहिए और हरसंभव कोशिश करनी चाहिए कि इन क्षेत्रों में तरक्की के मानवीय मानदंडों तक पहुँचा जा सके। जानबूझकर भारत के वामपंथी भूख जैसे मुद्दे को प्राथमिकता नहीं देते, जबकि यह बुनियादी सरोकार होना चाहिए।

मुझे नहीं लगता कि भूख के मुद्दे पर चुनावों में किसी को हार का मुँह देखना पड़ा है। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि इसे हमारे राजनीतिक एजेंडा में प्राथमिकता दी जाए और सब मिलकर भूख के खिलाफ संघर्ष करें। भारत ने गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों की संख्या और भुखमरी के स्तर को देखते हुए इस बात का कोई कारण नहीं दिखाई देता कि क्यों भारत के राजनीतिक दल इस पर एक राय नहीं बना पाते और क्यों कोई संयुक्त कार्रवाई शुरू नहीं करते।

पहले के समय में राजनीति में नेतृत्व परस्पर संवाद के आधार पर उभरता था, लेकिन आज हम देखते हैं कि विभाजनवादी राजनीति और जाति आधारित मुद्दों से राजनीतिक नेतृत्व का जन्म होता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे नेतृत्व से लोगों का विश्वास उठ जाए तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

भारत की किसी भी पार्टी के पास आज ऐसा जनाधार नहीं है, जहाँ वह निश्चित होकर कह सके कि वह जाति निरपेक्ष जनसमर्थन पर निर्भर करती है। यह स्थिति भी खुद राजनीतिक पार्टियों ने ही पैदा की है। यदि वे वोट से अधिक भूख जैसे मुद्दे पर ध्यान दें तो उनके लिए यही सच्ची राजनीति होगी।

भूख के बाद शिक्षा दूसरा ऐसा मुद्दा है जिसके बारे में हमें गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। भारत के प्रौद्योगिक संस्थानों (आईआईटी) को इस बारे में पहल करनी चाहिए। गरीबी और अशिक्षा दोनों को दूर करने में टेक्नोलॉजी संस्थानों की बड़ी भूमिका है। भारतीय टेक्नोलॉजी संस्थानों ने भारत में तकनीकी और कॉरपोरेट नेतृत्व में अपनी विशेषज्ञता प्रदान की है। अब उन्हें गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण जैसी बड़ी समस्याओं के निदान की ओर कदम बढ़ना चाहिए।

जवाहरलाल नेहरू ने टेक्नोलॉजी संस्थानों को दुनियाभर में स्वीकार किए जाने योग्य संस्थाओं में बदलने की परिकल्पना की थी और इसमें वे सफल भी हुए थे, लेकिन नेहरू ने प्राथमिक शिक्षा के मुद्दे पर जोर नहीं दिया। इसके कारण इतने बड़े पैमाने पर अशिक्षा का माहौल देश में दिखाई देता है। प्राथमिक शिक्षा की तरफ ध्यान न दिए जाने के कारण ही एक ऐसा भारत विकसित होने लगा जहाँ एक ओर, शिक्षक स्कूलों से गायब रहते हैं और दूसरी तरफ देश उत्पादकता, सूचना प्रौद्योगिकी और अन्य क्षेत्रों में छलाँग लगाता दिखाई देता है।

पिछले कुछ सालों में विकास दर में उच्च स्तर की वृद्धि दिखाई दी है लेकिन इससे
  ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए कि भारत एक महाशक्ति बनेगा या नहीं, बल्कि फिक्र इस बात की है कि कैसे भारत के अधिसंख्य लोगों के जीवन में खुशियाँ आएँ। इसका सिर्फ एक ही उपाय है कि उनकी पहुँच उन तमाम सुविधाओं और सेवाओं तक हो, जिनके वे हकदार हैं      
गरीबों को कोई प्रत्यक्ष फायदा नहीं पहुँचा है। बहुत कम धन गरीबों तक पहुँचा है, वह भी राजस्व-संग्रह में वृद्धि के कारण संभव हो पाया है। देश में अमीरों को मिलने वाली सुविधाओं और किन्हीं हादसों की स्थिति में उन्हें मिलने वाली राहत और गरीबों को मिलने वाली राहत में जमीन-आसमान का फर्क है।

अगर गरीबी को मिटाना है तो इस दिशा में भी कदम उठाने होंगे, ताकि गैरबराबरी की खाई को पाटा जा सके। स्वास्थ्य का मुद्दा भी बड़ी चिंता का विषय है। अकाल जैसी स्थितियों को मुक्त प्रेस और मजबूत विपक्षी दलों के सक्रिय सहभाग के जरिये नेस्तनाबूद किया जा सकता है। कुपोषण खत्म करने को लेकर गंभीर नजरिया अपनाने की जरूरत है।

जिन समस्याओं की यहाँ चर्चा हुई है उन्हें क्लासिकल भारतीय विधिक साहित्य में वर्णित 'न्याय' और 'नीति' की रोशनी में देखना चाहिए। आमतौर पर इन दोनों शब्दों को हम एक ही अर्थ- 'न्याय' या जस्टिस के रूप में प्रयोग में लाते हैं। लेकिन 'न्याय' का अर्थ व्यवहार में लोगों को उनके अधिकारों की प्राप्ति है।

दूसरी तरफ 'नीति' व्यावहारिक नियमों को लागू कराने की पद्धति पर आधारित विचार है। भारत में बहुत सारी परियोजनाएँ इसलिए अपने उद्देश्यों तक नहीं पहुँच पाईं क्योंकि उनका फोकस 'नीति' जैसे तर्कों पर रहा। हम बार-बार यह तर्क सुनते आए हैं- 'मैंने अपनी ओर से 'नियमों के तहत' पूरा प्रयास किया। यह कहकर नियम-कानून (नीति) के नाम पर हम विफलता को जायज ठहराते रहे हैं। भारत को असमानता दूर करने के लिए 'न्याय' के ढाँचे के अंदर काम करना होगा और इसके विशिष्ट उद्देश्यों पर नजर रखनी होगी।

प्रौद्योगिक आरक्षण के मद्देनजर मेरिट (मेधा) के सवाल को भी सावधानी से देखने की जरूरत है। यह बिल्कुल संभव है कि आरक्षण से नौकरी में आया हुआ एक व्यक्ति अपने पेशे में अच्छा प्रदर्शन न कर पाए, लेकिन अपनी मेधा के बल पर चुने गए व्यक्ति के बारे में यही बात सच हो सकती है। हमें लंबी अवधि में समाज को मिलने वाले व्यापक लाभ की दृष्टि से इस मसले को देखना चाहिए। अगर 'नीति' के तर्क से हम सवाल को उठाएँ तो हमें एक बहुत ही सरल जवाब मिलेगा।

लेकिन अगर हम 'न्याय' के तर्क से इसे देखें तो हम एक दीर्घकालीन नजरिए से इस समस्या का अध्ययन कर पाएँगे और इसके समाधान की दिशा में कदम बढ़ा पाएँगे। ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए कि भारत एक महाशक्ति बनेगा या नहीं, बल्कि फिक्र इस बात की है कि कैसे भारत के अधिसंख्य लोगों के जीवन में खुशियाँ आएँ। इसका सिर्फ एक ही उपाय है कि उनकी पहुँच उन तमाम सुविधाओं और सेवाओं तक हो, जिनके वे हकदार हैं।
(लेखक नोबेल पुरस्कार विजेता प्रख्यात अर्थशास्त्री हैं। यह लेख पिछले दिनों उनकी भारत यात्रा के दौरान दिए गए भाषणों पर आधारित है।)