शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
Written By संदीप तिवारी

किलिनोच्चि बना प्रभाकरण का वाटरलू!

किलिनोच्चि बना प्रभाकरण का वाटरलू! -
श्रीलंका के सैन्य प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल शरत फोन्सेका का कहना है लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) का राजनीतिक गढ़ और सैन्य मुख्यालय-किलिनोच्चि (श्रीलंका) की सेना के कब्जे में आ गया है।

उल्लेखनीय है गुरुवार की सुबह सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थल पारांथन जंक्शन पर टास्क फोर्स-1 की सैनिक टुकड़ियों का कब्जा होने के बाद दक्षिण, पश्चिम उत्तर के सभी मोर्चों से किलिनोच्चि को सुरक्षा बलों ने घेर लिया था और इस पर चौतरफहमला किया जा रहा था।

  न केवल लिट्‍टे के स्वतंत्र ईलम की कल्पना धूल-धूसरित हो गई है, वरन इसके प्रमुख प्रभाकरण के भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लग गया है। क्या अब भी वे कह सकेंगे कि स्वतंत्र ईलम ही श्रीलंका के हित में है?      
श्रीलंका की टास्क फोर्स-1 या 58वीं डिवीजन ने ब्रिगेडियर ‍शावेंद्र सिल्वा के नेतृत्व में किलिनोच्चि की ओर पूर्व और पश्चिम की ओर से बढ़ना शुरू कर दिया था और उनका कहना था कि लिट्‍टे कार्यकर्ताओं को उनके वाहनों में भागते हुए देखा गया है। हालाँकि लिट्टे सैनिकों की बचने की बहुत कम गुंजाइश है, लेकिन कहा जा रहा है वे किलिनोच्चि के पूर्व में रामनाथपुरम की ओर भाग रहे हैं।

लिट्‍टे के लड़ाकों के लिए एकमात्र विकल्प यही बचा है कि वे ईरानामाडू तालाब के पूर्व में पुतुकुदेरप्पू और विश्वमाडू के जंगलों की ओर भाग लें, लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न है किलिनोच्चि के पतन के बाद लिट्‍टे प्रमुख वेल्लुपिल्लई प्रभाकरण का क्या होगा?

स्वाभाविक है वे आत्मसमर्पण कभी करेंगे नहीं, लेकिन क्या वे अपने लड़ाकों के साथ मोर्चों पर रहेंगे? या वे अपने मुख्यालय से भाग जाने के बजाय वीरगति को प्राप्त करना चाहेंगे? परंतु उन पर अलगाववादी संगठन का नेतृत्व करने का बोझ भी है तो ऐसे में उनका क्या विकल्प होगा? लगभग चारों ओर से घिरे लिट्‍टे लड़ाकों के लिए आशा की कोई किरण है?

   पारांथन और किलिनोच्चि के ढह जाने के बाद लिट्‍टे के लड़ाकों के लिए भागने के लिए बहुत छोटा-सा क्षेत्र ही बचा है, जिस पर श्रीलंकाई सेना देर-सवेर कब्जा कर सकती है      
अभी तक जाफना क्षेत्र में पारांथन जंक्शन पर उनकी पकड़ मजबूत होने से सेना किलिनोच्चि, मुलईतिवू और मुहामलाई की ओर आगे नहीं बढ़ पाती थी, लेकिन पारांथन और किलिनोच्चि के ढह जाने के बाद लिट्‍टे के लड़ाकों के लिए भागने के लिए बहुत छोटा-सा क्षेत्र ही बचा है, जिस पर श्रीलंकाई सेना देर-सवेर कब्जा कर सकती है। हाल में सेना को मिली सफलताओं और उसकी निर्णायक रणनीति ने लिट्‍टे उग्रवादियों को उन्हीं की माँद में घेरने का काम ‍सफलतापूर्वक किया।

अब मुलईतिवू के जंगलों की छोटी समुद्री पट्‍टी ही लिट्‍टे लड़ाकों की आखिरी शरणस्थली बन सकती है, लेकिन यह भी तय नहीं कि यह समुद्रतटीय क्षेत्र भी कब तक लिट्‍टे उग्रवादियों के कब्जे में रह सकता है।

अब ऐसी स्थितियों में न केवल लिट्‍टे के स्वतंत्र ईलम की कल्पना धूल-धूसरित हो गई है, वरन इसके प्रमुख प्रभाकरण के भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लग गया है। क्या अब भी वे कह सकेंगे कि स्वतंत्र ईलम ही श्रीलंका के हित में है? ऐसा कहने के लिए वे जीवित रहेंगे या नहीं?