वैसे तो इस समय भारत में सिर्फ नोटबंदी और उससे जुड़ी घटनाओं का शोर मचा हुआ है लेकिन दुनिया और खासकर भारत में भी इस वर्ष विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य, अध्ययन और खोजें हुईं। माना जा रहा है कि इस वर्ष देश-दुनिया के साइंसदां अपने-अपने क्षेत्रों में अहम कार्य करते रहे और इसका प्रभाव आने वाले वर्षों में दिखाई देगा।
दुनिया में रोमांच की लहर पैदा करने वाली अंतरिक्ष में गुरुत्वीय तरंगों की ‘गूंज’ की घोषणा के साथ शुरू हुए वर्ष 2016 ने आइंस्टीन के 100 साल पुराने एक अहम सिद्धांत की पुष्टि करते हुए आने वाले कई साल के लिए अंतरिक्ष शोध के नए द्वार खोल दिए। इस साल 11 फरवरी को दुनिया भर के वैज्ञानिक उस समय रोमांच से भर उठे थे, जब लीगो (लेजर इंटरफेरोमीटर ग्रेविटेशनल वेव ऑब्जर्वेटरी) ने दो ब्लैक होल के 1.3 अरब साल पहले हुए विलय के समय अंतरिक्ष में पैदा हुई गुरुत्वीय तरंगों की पहचान कर लेने की आधिकारिक घोषणा की।
इसका एक बड़ा महत्व इसलिए भी है कि अल्बर्ट आइंस्टीन की ओर से 100 साल पहले दिए गए ‘सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत’ की पुष्टि करने वाली इस खोज ने ब्लैक होल के अस्तित्व पर भी मुहर लगा दी। अब तक इन गुरुत्वीय तरंगों की कल्पना तो की जाती थी लेकिन इन्हें रिकॉर्ड पहली बार किया गया है। इस सदी की महानतम खोजों में से एक मानी जा रही इस खोज को भारतीय परिपेक्ष्य में देखें तो इस खोज से जुड़े लगभग 1000 प्रमुख वैज्ञानिकों में 60 से ज्यादा वैज्ञानिक भारतीय थे, लेकिन लीगो के इस जटिल प्रयोग में भारत की भूमिका यहीं तक सीमित नहीं है।
इसी साल ‘लीगो-इंडिया’ परियोजना के तहत तीसरी लीगो वेधशाला की स्थापना भारत में करने के लिए भारत और अमेरिका ने मार्च में एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए। पहली वेधशाला अमेरिका के लुइसियाना और दूसरी वॉशिंगटन में स्थित है।
अंतरिक्ष में भारत का परचम : यह वर्ष भारत के वैज्ञानिक समुदाय के लिए घरेलू और वैश्विक दोनों ही स्तरों पर यह साल उपलब्धियों से भरा रहा। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी ने ‘स्वदेशी’ और ‘किफायती’ तकनीकों के दम पर आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम बढ़ाना जारी रखा। इसरो ने लगभग हर माह कम से कम एक प्रक्षेपण करके इस साल के लिए तय अधिकांश लक्ष्यों को पूरा किया, हालांकि दिसंबर में होने वाला दक्षिण एशियाई उपग्रह का प्रक्षेपण विभिन्न कारणों के चलते अगले साल तक के लिए टल गया।
‘मेक इन इंडिया’ की मुहिम के तहत काम कर रहे देश को इसी साल अपना ‘स्वदेशी जीपीएस - नाविक’ बनाने में सफलता मिली, जिसे खासतौर पर मछुआरों और सामुद्रिक गतिविधियों के लिए बनाया गया। नाविक नाम इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिया। इसके अलावा श्रीहरिकोटा से 29 अप्रैल को प्रक्षेपित किए गए उपग्रह ‘आईआरएनएसएस-1जी’ के सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित हो जाने के साथ ही ‘स्वदेशी’ जीपीएस के लिए आवश्यक सात उपग्रहों का समूह पूरा हो गया। अमेरिका, रूस, चीन और यूरोप के बाद अब भारत विश्व का ऐसा पांचवा देश बन गया है, जिसके पास अपनी जीपीएस प्रणाली है।
यह ‘स्वदेशी-जीपीएस’ स्थिति संबंधी आंकड़ों के लिए दूसरे देशों पर भारत की निर्भरता को तो कम करेगा ही, साथ ही साथ यह देश के आसपास 1500 किलोमीटर के दायरे में आने वाले अन्य देशों को भी इसकी सेवा का लाभ दे सकता है। हालांकि दक्षेस के सदस्य देशों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान, आपदा राहत, टेली मेडिसिन, टेली एजुकेशन जैसी चीजों को सुगम बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो साल पहले उन्हें जिस ‘दक्षेस उपग्रह’ का ‘उपहार’ देने की घोषणा की थी, वह इस साल भी विवादों से घिरा रहा। पाकिस्तान की ओर से खुद को इस उपग्रह से अलग किए जाने के बाद इसका नाम बदलकर इस साल ‘दक्षिण एशियाई उपग्रह’ कर दिया गया।
बेहद कम खर्च में सफल अंतरिक्ष अभियानों को अंजाम देने के लिए वैश्विक मंच पर प्रसिद्ध इसरो ने इस साल मई में ‘रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल- टेक्नोलॉजी डेमोंस्ट्रेटर’ का सफल परीक्षण किया। इसके जरिए इसरो भविष्य में ऐसे प्रक्षेपणयान की मदद से उपग्रह प्रक्षेपित कर सकता है, जो उपग्रह को कक्षा में स्थापित कर धरती पर लौट आएगा और दोबारा इस्तेमाल किया जा सकेगा। इससे उपग्रह प्रक्षेपण में आने वाला खर्च कम किया जा सकेगा, जो विदेशी कंपनियों को इसकी सेवाएं लेने के लिए और अधिक आकर्षित कर सकता है।
बीते कई साल से अपनी प्रक्षेपण सुविधाओं को व्यावसायिक तौर पर उपलब्ध करा रहे इसरो ने इस साल इस क्षेत्र में भी एक रिकॉर्ड कायम किया। इसरो ने इस साल जून में 20 उपग्रहों को एक ही अभियान में सफलतापूर्वक प्रक्षेपित करने का रिकॉर्ड बना दिया। इसरो के सबसे परिश्रमी एवं विश्वस्त उपग्रह प्रक्षेपण यान ‘पीएसएलवी’ की मदद से अंजाम दिए गए इस अभियान में तीन भारतीय और 17 विदेशी उपग्रह थे। इसका प्रमुख पेलोड ‘काटरेसैट-2 सीरीज’ का उपग्रह था, जो रिमोट सेंसिंग सेवाओं के लिए जाना जाता है। दो उपग्रह भारतीय शैक्षणिक संस्थानों के थे। शेष उपग्रह अमेरिका, कनाडा, इंडोनेशिया और जर्मनी से थे।
इसी साल अगस्त में भारत की पहली परमाणु क्षमता से लैस पनडुब्बी ‘आईएनएस अरिहंत’ को नौसेना में शामिल किया गया। इसी साल भारत की सबसे बड़ी असैन्य अनुसंधान एवं विकास एजेंसी ‘वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद’ (सीएसआईआर) की हीरक जयंती मनाई गई। प्रधानमंत्री ने इस समारोह का उद्घाटन करने के बाद कहा था कि सीएसआईआर को देश में नए उद्यमियों के उदय में अहम भूमिका निभानी होगी।
भौतिकी के क्षेत्र की एक बड़ी उपलब्धि की घोषणा के साथ शुरू हुए साल का अंतिम माह रसायन विज्ञान के लिए भी एक इतिहास रच गया। इसी साल दिसंबर में रासायनिक आवर्तसारणी में चार नए तत्वों को शामिल किया गया। ये चार नए तत्व हैं- निहोनियम, मोस्कोवियम, टेनेसाइन और ऑग्नेसन। विज्ञान के क्षेत्र में कई नई नींवें रखने वाला यह साल आने वाले कई वर्षों के लिए शोध की बड़ी जमीन तैयार कर गया है।
इसके अलावा यह वर्ष इंटरनेट के क्षेत्र में भी मीलों आगे बढ़ गया, फेसबुक ने जहां लाइव वीडियो फीचर को सभी यूजर्स के लिए लांच किया वहीं इसके संस्थापक मार्क जुगरबर्ग सूदूर क्षेत्रों में इंटरनेट प्रसारण की योजना पर भी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। सोलर विमान से लेकर गर्म हवा के गुब्बारों के जरिए इंटरनेट को दुनिया के हर कोने तक पहुंचाने के लिए बनाई योजना के अलावा अब वर्चुअल रिएलिटी के क्षेत्र में भी काफी काम हो रहा है।
वर्चुअल पर्सनल असिस्टेंट को अमेजन से लेकर गूगल तक लांच कर चुका है। इसमें एक उपकरण के जरिए कई कार्यों में मदद मिलती है। स्मार्टफोन से जुड़े इस शुरुआती आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर मानवीय निर्भरता कितनी बढ़ेगी यह आने वाला समय ही बताएगा। वर्ष 2016 तकनीक में क्रांति का भी रहा। आवाज के इशारे पर काम करने वाले गैजेट्स का आविष्कार इस वर्ष हुआ। इन्हीं में से एक है वर्चुअल पर्सनल असिस्टेंट है। इसे आप आवाज देकर काम ले सकेंगे। इसे आप इंटेलीजेंट रोबोट भी कह सकते हैं।
एप्पल के सीरी, माइक्रोसॉफ्ट के कोर्टाना और अमेजन के अलेक्सा से लेकर गूगल के नाओ कई तरह के वर्चुअल पर्सनल असिस्टेंट को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। फेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने भी आयरनमैन के किरदार जारविस से प्रेरित होकर डिजिटल हेल्पर बनाया है। मार्क का यह डिजिटल हेल्पर उनकी बेटी की देखभाल के साथ ही घर के सारे काम करेगा।
इस डिजिटल नौकर की खूबी यह कि यह आवाज के इशारे के पर काम करेगा। वैसे तो वैज्ञानिक 1950 के दशक से ही वर्चुअल सहायक बनाने के प्रयास करते रहे हैं। हर साल कुछ बेहतर चीज़ ही सामने आई है। इस मामले में परेशानी यह रही कि ये बनावटी अक्ल या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, अक्सर इंसानी एहसासों को समझने में नाकाम रहे हैं।