पाकीज़ा ग़ज़ल का शायर, रशीद इन्दौरी
('शरार ए तीशा', रशीद इन्दौरी की ताज़ा किताब पर तबसिरा)
तबसिरा निगार - अजीज अंसारी शरार ए तीशा, रशीद इन्दौरी का दूसरा मजमूआ ए कलाम है। इस से क़ब्ल उनकी शायरी की पहली किताब 'तरसील' 1984 में, मंज़रे आम पर आ चुकी है। हज़रते शादाँ इन्दौरी ग़ज़ल के बाविक़ार शायर थे। उनके तलामज़ा में कई नाम गिनाए जा सकते हैं, लेकिन रेहबर इन्दौरी के बाद उनकी शायरी के स्कूल को अगर कोई ऑक्सीजन दे रहा है तो वो हैं रशीद इन्दौरी।बक़ौल रशीद इन्दौरी, हालात ग़ज़ल के लिए साज़गार नहीं हैं। ज़ेहन माऊफ़ हैं, दिल सर्द हैं, आँखें नमनाक हर तरफ़ खौफ़ सा छाया है ग़ज़ल क्या कहिएलेकिन ग़ज़ल कहना तो रशीद इन्दौरी का मेहबूब मशग़ला है, वो ग़ज़ल कहे बग़ैर कैसे रह सकते हैं। हालात की परवाह न करते हुए कहते हैं। |
शरार ए तीशा, रशीद इन्दौरी का दूसरा मजमूआ ए कलाम है। इस से क़ब्ल उनकी शायरी की पहली किताब 'तरसील' 1984 में, मंज़रे आम पर आ चुकी है। हज़रते शादाँ इन्दौरी ग़ज़ल के बाविक़ार शायर थे। |
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शोआ ए मेहर के बदले सवाद ए शाम न लूँग़ज़ल कहूँ किसी सिंफ़ ए सुख़न का नाम न लूँहज़रते शादाँ इन्दौरी की सोहबत में रशीद इन्दौरी ने ग़ज़ल के हर रंग को बहुत ग़ौर ओ िफ़क्र से परखा और देखा है। 'शरार ए तीशा' में ऐसे अशआर की कमी नहीं जो ग़ज़ल की आबरू की हिफ़ाज़त करते नज़र आते हैं। पता पूछे कोई मुझसे ग़ज़ल कामसर्रत से बसीरत तक गया हूँहाय रे ये लुत्फ़ ए ग़म, ये लज़्ज़त ए दर्द ए जिगर दिल ये कहता है कि कुछ दिन और जीना चाहिएख़मोशियाँ भी सदाओं से कम नहीं होतीं मेरा लहू मेरी नस-नस में गुनगुनाता है फिरते-फिरते आ गया हूँ उसके कूंचे में रशीद है कोई जो इस तरह आवारगी से काम लेतुम साथ थे तो फूल बदामाँ ठीक ज़िन्दगीतुम क्या गए कि हासिल ए लुत्फ़ ए सफ़र गयामिल जाएँ तुमको क़स्र ए सलातीं की वुसअतेंअपने लिए तो साया ए दीवार ए यार हैये वो अशआर हैं जो ये कहते हैं कि रशीद इन्दौरी ने हज़रते शादाँ
इन्दौरी के बहुत क़रीब रहकर उनके मिज़ाज को समझा है और उनके अन्दाज़ को अपनाया है। ग़ज़ल के इस क्लासिकी रंग के साथ ही एक और रंग नुमायाँ तौर से ज़ाहिर हुआ है। ये रंग है ईमान की ताक़त और वेहदानियत का। तारीख ए इसलाम के अहम वाक़ेआत को शे'र का लिबास पहनाना लोई रशीद इन्दौरी से सीखे। मेरे साए से भी डरती हैं ख़ुशियाँमैं जैसे ख़ेमा ए कर्ब ओ बला हूँनिकलती है अनलहक़ की सदा हर क़तरा ए ख़ूँ से मेरा मरना भी मेरे ज़िन्दा रहने की दलालत हैअगर माँगो तो क़ल्ब ए मुतमइन अल्लाह से माँगोफ़रावानी से दौलत की सुकूँ हासिल नहीं होता बेतलब दे रहा है रब मेराकौन फैलाए अपने दामन कोतौक़ ए गरदन भी रहे, बार ए सलासिल भी रहेपर तेरी याद से मामूर मेरा दिल भी रहेइसी जज़बे के बहुत क़रीब है इक और जज़बा और वो जज़बा है सरकार ए मदीना से अक़ीदत और दिली रग़बत ओ मोहब्बत का। इस जज़बे का इज़हार क़रीब-क़रीब हर ग़ज़ल में कहीं न कहीं हुआ है। फिर कहीं जा के जबीं को ये शरफ़ मिलता हैचूम लेता हूँ तेरे दर को नज़र से पहलेसुर्ख़रू दारैन में गर तुझको होना है रशीदमुँह पे मलने के लिए ख़ाक ए मदीना चाहिएरशीद इक बार फिर उस आस्ताँ पर हाज़िरी होगीमगर अपने नसीबों में लिखा होना ज़रूरी हैनज़र दौलत, दिल दरिया, मुक़द्दर का सिकन्दर हैहक़ीक़त में तेरे दर का गदा शाहों से बेहतर है'
शरार ए तीशा' की ग़ज़लों में रिवायती अल्फ़ाज़ नहीं के बराबर हैं। ज़्यादातर उन अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल हुआ है, जो सलाम और नात में बरते जाते हैं। जैसे सर, नेज़ा, दश्त ए कर्बला, कर्ब ओ बला, असीर ए कर्बला, अनलहक़, सलीब, दार ओ रसन, मआरक़ा, तलवार, यज़ीद, लश्कर, क़त्ल, ख़ून, जंग, शाफ़ा ए मेहशर, दारैन, तौक़, सलासिल, शरार, तीशा वग़ैरा।माहेरीन ए ग़ज़ल का क़ौल है कि अच्छी ग़ज़ल हमेशा हम्द और नात के क़रीब होती है। शायरी में दिलचस्पी रखने वाले अगर अपने ईमान को तर ओ ताज़ा रखना चाहते हैं, अपनी अक़ीदत की शम्मा को नफ़रत की आँधियों के थपेड़ों से बचाना चाहते हैं, और साथ ही ये भी चाहते हों कि उन्हें क़लबी सुकून हासिल हो तो उन्हें 'शरार ए तीशा' का मुतालेआ बार-बार करना चाहिए-किताब का नाम -- 'शरार ए तीशा'शायर का नाम -- रशीद इन्दौरीक़ीमत --रु. 150/- सिर्फ़