कबूतर (भाग 2) : कौसर सिद्दीक़ी
कौसर सिद्दीक़ी की नज़्में
कबूतर--4--- कबूतर तुम बहुत भोले हो तुमने एहदे नौ में भी झपटना, वार करनादुश्मनों को ज़ेर करना क्यूँ नहीं सीखाये माना शांति के तुम पुजारी होनबी के तुम मुहाफ़िज़ हो तुम्हारे अम्न के इस ज़ौक़ की ताज़ीम करता हूँ अदब से मैं तुम्हें तसलीम करता हूँ मगर सोचोतुम्हारे पंजे शेरों की तरह होतेतुम्हारी चोंच ख़ंजर की तरह होती तो देहलीज़े हिरा तक कोई काफ़िर क्या पहुँच पातानबी के तुम मुहाफ़िज़ थे---------------
कबूतर--5--कबूतर तुम बहुत भोले होभोलेपन में राजा हो परिन्दों के मगर इतना तो बतलाओ तुम्हारा मुझसे क्या रिश्ता है जो मेरे मकाँ से तुम नहीं जाते कहीं उड़कर डटे रहते हो फ़ौजी की तरह हरदम फ़सीलों परउड़ा देता हूँ मैं तुमको मगर फिर लौट आते हो मुझे लगता है इंसाँ से ज़्यादातुमको है इदराके आज़ादीबिना कुछ बन्दिशों के लुत्फ़े आज़ादी नहीं आताहर आज़ादी पे निगरानी ज़रूरी है -----------
कबूतर--6-- कबूतर तुम बहुत भोले हो दिनभर बेवजह परवाज़ करते होउड़ानें ऊँची भर-भर के निगाहें दूर तक दौड़ा के आखि़र देखते क्या होतुम्हें परवाज़ की रिफ़अत मुबारक हो----------
कबूतर का जवाब --------------
समझ पाया न राज़ ए रिफ़अत ए परवाज़ को इंसाँनज़र है उसकी क़ासिर दूरबीनी से मेरी परवाज़ ए ताओजे फ़लक का राज़ पूछा हैतो फिर सुनिए मुझे डर है दुबारा फिर न आ जाए वो इक तूफ़ान जो पहले भी आया थाउसी तूफ़ान का धड़का है मुझको ज़िन्दगी भर से तुम्हें आगाह कर दूँगा अगर आता हुआ देखा मुझे परवाज़ करने दो