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a letter to students from teacher : आपने मुझे शिक्षक बनाया है...

a letter to students from teacher : आपने मुझे शिक्षक बनाया है... - Happy Teachers Day 2020
प्रिय विद्यार्थियों, 
स्नेहिल शुभकामनाएँ 
 
आप 5 सितम्बर 2020 को शिक्षक दिवस मना रहे हैं। दिवसों की भीड़ में एक और दिवस! कहने को मैं आपकी शिक्षिका हूँ, किंतु सच तो यह है कि जाने-अनजाने न जाने कितनी बार मैंने आपसे शिक्षा ग्रहण की है। कभी किसी के तेजस्वी आत्मविश्वास ने मुझे चमत्कृत कर‍ दिया तो कभी किसी विलक्षण अभिव्यक्ति ने अभिभूत कर दिया। कभी किसी की उज्ज्वल सोच से मेरा चिंतन स्फुरित हो गया तो कभी सम्मानवश लाए आपके नन्हे से उपहार ने मुझे शब्दहीन कर‍ दिया। 
 
कक्षा में अध्यापन के अतिरिक्त जब मैं स्वयं को उपदेश देते हुए पाती हूँ तो स्वयं ही लज्जित हो उठती हूँ। मैं कौन हूँ? क्यों दे रही हूँ ये प्रवचन? आप लोग मुझे क्यों झेल रहे हैं? 
 
यही प्रश्न संभवत: आपके मानस में भी उठते होंगे। मैडम क्यों परेशान हो रही हैं? उन्हें क्या करना है? वे अपना विषय पढ़ाएँ और चली जाएँ। आपकी गलती नहीं है, पर गलत मैं भी नहीं हूँ। कल तक मैं भी बैंच के उस पार हुआ करती थी। आज सौभाग्यवश इस तरफ हूँ। उस पार रहकर अक्सर कुछ प्रश्न मेरे मन को मथते रहे हैं।
 
क्या शिक्षक मात्र किताबों में प्रकाशित विषयवस्तु को समझाने का 'माध्यम भर' है? क्यों शिक्षक अपने विद्यार्थियों से मात्र रटी हुई पाठ्‍यसामग्री को ही प्रस्तुत करने की अपेक्षा रखता है? 
 
विद्यार्थियों के मौलिक चिंतन, प्रखर प्रश्नों व रचनात्मक सोच का क्या इस शिक्षा पद्धति में कोई स्थान नहीं? हमारी शिक्षा प्रणाली की यह विडंबना क्यों है? पुस्तकों में छपा हुआ ही ब्रह्मसत्य है? चाहे वह कितना ही अप्रासंगिक हो। वही शाही फरमान है? शिक्षकों को कक्षा में उसे ही पढ़ देना है और विद्या‍र्थियों को रटकर वही उत्तर पुस्तिका में लिख देना है? 
 
और जाने-अनजाने उस कँटीली प्रतिस्पर्धा में शामिल हो जाना है, जिसकी अंतिम परिणति है सर्वोच्च अंक? एकता, सद्‍भावना, संस्कार, सहिष्णुता और सौहार्द जैसे सुखद शब्दों से रच-पच इस देश के छात्रों में यह कैसा विषैला बीजारोपण है? क्या दे रहे हैं शिक्षक उन्हें? पिछड़ने का भय और पछाड़ने की दक्षता? ऐसे कुंठित और असुरक्षित मानस के चलते कैसे एक स्वतंत्र व्यक्ति के निर्माण, विकास और रक्षण की कल्पना की जा सकती है? 
 
क्यों असमर्थ हैं हम यह शिक्षा देने में कि 'तुम भी जीतो, मैं भी जीतूँ? क्यों नहीं निर्मित कर पा रहे हैं हम वह परिवेश, जिसमें हर विद्यार्थी जीता हुआ अनुभव करे। जीत ईर्ष्या पैदा करती है, हार वैमनस्य। 'तुम भी जीतो मैं भी जीतूँ' की भावना के पोषण से ही तो 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' का संस्कार जन्म ले सकेगा।
 
मैं आपकी हमउम्र शिक्षिका हूँ, फिर भी जब आप लोगों की आँखों में सपनों के समंदर देखती हूँ तो हृदय से कोटि-कोटि आशीर्वाद निकलते हैं। आशीर्वाद की अवस्था नहीं है पर न जाने क्यों शिक्षक होने का अनुपम अहसास मात्र ही मुझे ऐसा करने के लिए बाध्य कर देता है।
 
मैं आपको कई बार डाँटती हूँ, क्योंकि मुझे दु:ख होता है जब आपको बँधी-बँधाई लीक पर चलते हुए देखती हूँ। उस 'व्यवस्था' का शिकार होते हुए देखती हूँ, जो सीमित पाठ्‍यक्रम देती है और उसमें से भी महत्वपूर्ण प्रश्नों को रट लेने का सबक देती है। तब भावनाओं के अतिरेक में मैं बोलती हूँ - अनवरत्-अनथक...! ताकि आपके मन के तारों को झंकृत कर सकूँ और ओजस्वी बना सकूँ। 
 
मेरे विद्यार्थियों, आप उस युग में जी रहे हैं, जिसमें स्रोतों की प्रचुरता है, आगे बढ़ने के बहुत से द्वार हैं पर याद रखना, छोटी सफलता के छोटे द्वारों के लिए आपका कद बहुत बड़ा है।
 
प्रतिस्पर्धा की प्रक्रिया में, ऊँचाई की उत्कंठा में और तेजी की त्वरा में यह मत भूलना कि महत्वपूर्ण सफलता नहीं बल्कि वह रास्ता है जिस पर चलते हुए आप उसे हासिल करते हैं। आपने पढ़ा भी होगा कि जो लोग विनम्रता और नेकी के ऊँचे रास्ते पर चलते हैं उन्हें 'ट्रैफिक' का खतरा कभी नहीं होता।
 
आप मेरे सुयोग्य सुशील विद्यार्थी हैं, मेरे शिक्षिका होने की सबसे अहम वजह। यदि प्रथम व्याख्‍यान में आपने धैर्य, अनुशासन और गरिमा का परिचय नहीं दिया होता तो आज मैं कहाँ होती शिक्षिका? मेरी समझ, ज्ञान, वैचारिकता और अभिव्यक्ति आपके बेखौफ, बेबाक प्रश्नों से ही तो समृद्ध और विस्तारित हो सकी है।
 
आपकी प्रफुल्लता ही मेरे अध्यापन की प्रेरणा है। आपकी प्रखर मनीषा और जिज्ञासु संस्कार ही मुझे निरंतर पठन-अध्ययन के लिए उत्साहित करते हैं। आपका स्नेह और सम्मान ही मेरे विश्वास को मजबूती देता है। 
 
आज का दिन हमारा नहीं आपका है, आपके 'कर्तव्य बोध' पर ही हमारे 'अस्तित्व बोध' का प्रश्न टिका है। इस वक्त बहुत-सी काव्य पंक्तियाँ याद आ रही हैं। क्यों न अटलजी की ये पंक्तियाँ आपको भेंट करूँ? 
 
'छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता
मन हारकर मैदान नहीं जीते जाते
न ही मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं।' 
 
माँ शारदा से प्रार्थना है कि आप मन भी जीतें और मैदान भी...। 
शुभकामनाओं सहित, 
 
आपकी ही
स्मृति 
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