अफगानिस्तान पहले भारतवर्ष का ही हिस्सा हुआ करता था। यह भारतवर्ष में आर्यावर्त का सीमावर्ती क्षेत्र था। यदि हम प्राचीन इतिहास को छोड़कर मध्यकाल के इतिहास की बात करें तो अफगानिस्तान में इस्लाम का आगमन 7वीं के दौरान हुआ है। 7वीं से 10वीं सदी तक यहां संघर्ष का दौर चलता रहा।
अफगान संघर्ष का संक्षिप्त इतिहास : कहा जाता है कि जुनबिल वंश के लोग पहले हिन्दू ही थे, जिन्होंने कंधार से लेकर गजनी तक राज किया था और जिनका शासन 600 से 780 ईस्वी तक था। इसके बाद यहां पर 843 ईस्वी से हिन्दू शाही वंशों ने शासन किया था। ऐसा भी कहा जाता है कि 7वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क के आक्रांताओं ने आक्रमण करना शुरू किए और 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान के एक बड़े भूभाग को अपने अधिकार में कर लिया था।
इतिहासकार इंद्रजीत सिंह की किताब 'अफगान हिंदूज एंड सिख्स : ए हिस्ट्री ऑफ ए थाऊजैंड इयर्स'के अनुसार यह भी कहा जाता है कि हिन्दू शाही वंशों ने 10वीं सदी तक अफगानिस्तान को अपने अधिकार में रखा परंतु 1019 में महमूद गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान में हिन्दू शाही वंश के शासन का समापन हो गया था। इसके बाद यहां कबीलों की सरकारें अस्तित्व में आ गई। इसके बाद यहां बाद में 1504 में मुगल बादशाह बाबर ने कब्जा कर लिया था। 17वीं सदी तक अफगानिस्तान नाम का कोई राष्ट्र नहीं था। अफगानिस्तान नाम का विशेष-प्रचलन अहमद शाह दुर्रानी के शासन-काल (1747-1773) में ही हुआ। 26 मई 1739 को दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह अकबर ने ईरान के नादिर शाह से संधि कर अफगानिस्तान उसे सौंप दिया था। 18 अगस्त 1919 को अफगानिस्तान को ब्रिटिश शासन से आजादी मिली थी।
अपगानिस्तान में 1919 से 1978 तक अफगान के अपने लोगों का शासन था। फिर 1978 से 1989 तक सोवियत यूनियन की सेना का शासन रहा। इस दौरर में हिन्दू, सिख और बौद्ध धर्म के अनुयायी सुरक्षित थे परंतु फिर 1989 से 1996 तक तालिबान और अफगान सरकार की लड़ाई का दौर शुरु हुआ। इस लड़ाई में अमेरिका और पाकिस्तान के सहयोग से तालिबान की जीत हुई और 1996 से 2001 तक तालिबान का क्रूर शासन रहा। इस दौरान अल्पसंख्यकों का जीना मुश्किल हो चला था।
अफगानिस्तान में सिख धर्म का आगमन : सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानकजी ने 16वीं सदी के प्रारंभिक दौर में अफगानिस्तान की यात्रा की थी तथा यहां पर एक नींव का पत्थर रखा था। उनकी चौथी उदासी (यात्रा) के 1519-21 दौरान उन्होंने कंधार, जलालाबाद तथा सुल्तानपुर की यात्राएं की थीं। इस सभी स्थानों पर गुरुद्वारे बने हुए हैं।
सिखों के 7वें गुरु गुरुहरराय जी ने भी काबुल में सिख प्रचारकों को भेजा था। यहां पर उस काल में अफगान सिखों ने हिन्दुओं के साथ मिलकर कई तरह के व्यापार और व्यवहास खड़े किए थे परंतु आज 99 प्रतिशत हिन्दू और सिख अफगानिस्तान छोड़ चुके हैं।
अपगानिस्तान में 1970 तक 3 लाख के करीब हिन्दू और सिख मौजूद थे। परंतु मुजाहिद्दीनों के शासन के दौरान हिन्दू और सिखों का नरसंहार होता रहा। मुजाहिद्दीनों ने बड़े पैमाने पर अपहरण, जबरन वसूली, सम्पत्तियों की छीना छपटी और धार्मिक उत्पीड़न शुरु करने दिया जिसके चलते समय समय पर सिखों को अपने देश छोड़कर भारत में शरण लेना पड़ी।
महाराजा रणजीतसिंह जी : रणजीतसिंह का जन्म सन् 13 नवंबर 1780 ईस्वी में हुआ था। सिख शासकों में महाराजा रणजीत सिंह का नाम सबसे महान है। सिख शासन शुरुआत उन्होंने ही की थी। उन्होंने छोटे गुटों में बंटे हुए सिखों को एकत्रित किया और सभी ने मिलकर पूरे पंजाब को एक किया और सिख राज्य की स्थापना की। इसके बाद उन्होंने पंजाब के दक्षिणी, पश्चिमी और उत्तरी भागों पर अपना अभियान चलाया और 10 वर्ष में अफगान, मुल्तान, पेशावर और कश्मीर तक अपने राज्य को बढ़ा लिया। उन्होंने ही जम्मू और कश्मीर को मिलाकर एक प्रभुता सम्पन्न शक्तिशाली राज्य स्थापित किया था।
1807 में उन्होंने अफगानी शासक कुतबुद्दीन को हराया और कसूर पर कब्जा कर लिया। 1818 में मुल्तान और 1819 में कश्मीर सिख साम्राज्य का हिस्सा बननकर एक विशाल सिख साम्राज्य गठित हो चुका था। हालांकि अफगानों और सिखों के बीच 1813 और 1837 के बीच कई युद्ध हुए। 1837 में जमरुद का युद्ध उनके बीच आखिरी भिड़ंत थी। इस भिड़ंत में सामरिक कारणों से रणजीत सिंह के एक बेहतरीन सिपाहसालार हरि सिंह नलवा शहीद हो गए थे। इसके बाद अफगानों को बढ़त हासिल हो गई और उन्होंने काबुल पर वापस कब्जा कर लिया था।
59 वर्ष की उम्र में 27 जून 1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई और उनके 10 वर्ष बाद ही यह राज्य विच्छिन हो गया। सिख और अंग्रेजों के बीच हुए 1845 के युद्ध के बाद महान सिख साम्राज्य पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। महाराजा रणजीतसिंहजी के शासन में हिन्दू, सिख, बौद्ध और मुस्लिम सभी सुरक्षित जीवन यापन करते थे।
वर्तमान में सिखों की स्थिति : अफगानिस्तान में सिख खासकर जलालाबाद, गजनी, काबुल और कुछ कंधार में रहते आए हैं। अफगानिस्तान में सैंकड़ों सालों से अफगान सिखों की बड़ी आबादी रही है और इनमें से अधिकतर मूल रूप से अफगान नागरिक ही हैं जो देशी पश्तो भाषा के अलावा दारी, हिंदी या पंजाबी भी बोलते हैं। एक समय था जबकि सिर्फ काबूल में ही 80 के दशक में करीब 20,000 से ज्यादा सिख परिवार रहते थे। गृहयुद्ध के दौरान काबुल के 8 गुरुद्वारों में से 7 को नष्ट कर दिया गया था। वर्तमान के हालत को देखते हुए अफगानिस्तान में सिख और हिंदू महज कुछ ही सौ ही बचे हैं। कई सिख परिवारों ने भारत, उत्तरी अमेरिका, यूरोपीय संघ, यूके, पाकिस्तान और अन्य स्थानों सहित अन्य देशों का रुख किया है।
पिछले साल भारत सरकार ने पड़ोसी मुल्कों में धर्म के आधार पर प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता देने का कानून पास किया था। संशोधित कानून के मुताबिक मुस्लिम बहुसंख्यक वाले देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से धार्मिक अत्याचार से परेशान होकर या जिन्हें धार्मिक प्रताड़ना का भय है और जो 31 दिसंबर 2014 के पहले भारत आ गए हैं उन्हें भारत की नागरिकता मिल सकती है। ऐसे लोगों में हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शामिल हैं। परंतु अब सवाल यह उठता है कि 31 दिसंबर 2014 के बाद और वर्तमान में जो अफगानिस्तान छोड़कर भारत आए हैं उनका भविष्य क्या होगा?