बिना स्टार खिलाड़ी के जर्मनी स्टार टीम
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साल के सब्सीटीट्यूट मारियो गोएत्से अचानक बिजली की तरह कौंधते हैं और खेल के 113वें मिनट में गोल ठोक देते हैं। अर्जेंटीना की सारी रणनीति धरी रह जाती है। जर्मनी 24 साल बाद वर्ल्ड कप संभालता है। ऐसी टीम जिसमें कोई स्टार नहीं, लेकिन पूरी टीम स्टार है।
अगर देखा जाए, तो गोलकीपर मानुएल नॉयर को छोड़कर जर्मनी की टीम में कोई चमत्कारी खिलाड़ी नहीं। कप्तान फिलिप लाम, स्ट्राइकर थोमास मुलर, अनुभवी मिरोस्लाव क्लोजे और जुझारू बास्टियान श्वाइनश्टाइगर। इन खिलाड़ियों ने अपनी मेहनत के बल पर टीम में जगह बनाई है, किसी नैसर्गिक प्रतिभा के बल पर नहीं। लेकिन ये खिलाड़ी एक टीम बनाना जानते हैं। ऐसी टीम जो किसी मेसी, किसी नेमार या किसी रोनाल्डो के भरोसे नहीं रहती। जरूरत पड़ती है तो मुलर भी गोल कर सकते हैं, क्लोजे भी और 22 साल के गोएत्से भी। यह एक ऐसी खूबी है, जो किसी भी विपक्षी टीम को पछाड़ने के लिए काफी है। और यह टीम यूं ही नहीं बनी। दो दशक पहले के महान गोलकीपर ओलिवर कान का कहना है कि पिछला विश्व कप (1990) जीतने के बाद जर्मनी की टीम तार तार हो चुकी थी। उनकी बात समझ में आती है। रूडी फोलर, युर्गेन क्लिंसमान और लोथार मथेउस जैसे सितारे अस्त हो चुके थे और टीम इस कमी को पार करने में नाकाम दिख रही थी। यहां तक कि 1998 वर्ल्ड कप के क्वार्टर फाइनल में टीम क्रोएशिया से हार कर बाहर हो गई।
लेकिन पिछले 10 सालों में टीम को दोबारा जोड़ा गया। इस जुड़ाव में बहुत-सी बातों को दरकिनार कर दिया गया, जर्मन मूल को भी। जर्मनी ने विदेशी मूल के खिलाड़ियों को राष्ट्रीय टीम में पूरी जगह दी। मेसुत ओएजिल, जेरोम बोआटेंग, सामी खदीरा, मिरोस्लाव क्लोजे और लुकास पोडोल्स्की इस बहुसांस्कृतिक तहजीब के मिसाल हैं। उनका मूल किसी स्तर पर भी उनके फुटबॉल के आड़े नहीं आया। यह जर्मनी की राष्ट्रीय टीम की कामयाबी है। इस कामयाबी में राष्ट्रीय टीम के कोच योआखिम लोएव की हिस्सेदारी कम नहीं की जा सकती।
आठ साल पहले जर्मन राष्ट्रीय टीम के कोच युर्गेन क्लिंसमान के असिस्टेंट योगी लोएव ने पद संभालने के साथ ही निजी खिलाड़ियों की जगह टीम बनाने पर ध्यान दिया। पिछले विश्व कप से ठीक पहले सितारा खिलाड़ी मिषाएल बलाक घायल हुए और फिलिप लाम को कमान सौंपी गई। बलाक जब टीम में लौटे, तो उन्हें कप्तानी वापस नहीं की गई। लोएव के इस चाल को बहुत एरोगैंट माना गया, लेकिन इस चाल के पीछे नई टीम तैयार करने का मकसद था, जो धीरे धीरे साबित होता गया।
पिछले छ: साल में जर्मनी ने चार बड़े मुकाबले खेले हैं, दो वर्ल्ड कप और दो यूरो कप। चारों बार यह सेमीफाइनल में पहुंचा है। यह कारनामा कोई अच्छी टीम ही कर सकती है, जिसके सभी खिलाड़ियों में दम हो। इस बीच एक या दो सितारा खिलाड़ियों वाली टीम उभरती और गिरती रही। जर्मनी को भले खिताब हासिल करने में वक्त लगा लेकिन टीम के तौर पर वह कभी भी दूसरी पंक्ति में खड़ी नहीं हुई।
इस वर्ल्ड कप में भी अगर उसके सफर को देखा जाए, तो उनकी टीम किसी एक स्ट्राइकर के भरोसे नहीं रही। कुल सात मैचों में उसके नौ खिलाड़ियों ने गोल किए, जिनमें सिर्फ मुलर, हुमेल्स, गोएत्जे और क्लोजे ने एक से ज्यादा मैचों में गोल किए। उनके रास्ते में अगर पुर्तगाल जैसी जिद्दी टीम थी, तो अमेरिका जैसी मेहनती और ब्राजील जैसी प्रतिभाशाली। उन्होंने हर टीम पर विजय पाई और ब्राजील को तो 7-1 से रौंद दिया। हर बार जर्मनी की पूरी टीम खेली, पूरी टीम जीती।
यह कैसी विडंबना है, खिताब जर्मनी जीतती है और हारने वाले अर्जेंटीना के कप्तान लियोनल मेसी को गोल्डन बॉल को दिया जाता है। एक शानदार टीम और एक शानदार खिलाड़ी का ऐसा मिलन अगर फुटबॉल प्रेमियों को सुख पहुंचाता है, तो दिल के किसी कोने में दर्द भी पैदा करता है, लेकिन यह सदियों पहले कही गई बात सच भी साबित करता है, 'एकता में बल है...'