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Last Modified: शनिवार, 8 जनवरी 2022 (11:34 IST)

Guru Gobind Singh Jayanti : गुरु गोविंद सिंह का जीवन परिचय

Guru Gobind Singh Jayanti : गुरु गोविंद सिंह का जीवन परिचय - Biography of Guru Gobind Singh
Biography of Guru Gobind Singh: सिख धर्म के 10वें गुरु गुरु गोविंद सिंह ने धर्म की रक्षा के लिए जो कार्य किया उसे कोई भी नहीं भूला सकता है। उनका जन्म पौष माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को 1666 में हुआ था। अंग्रेजी माह के अनुसार इस बार उनकी जयंती 9 जनवरी 2022 को मनाई जाएगी। आओ जानते हैं उनका संक्षिप्त जीवन परिचय।
 
 
- गुरु गोविंद सिंह का जन्म पटना में हुआ था। उनकी माता का नाम गुजरी जी था और पिता श्री गुरु तेगबहादुर जी था, जो बंगाल से थे। माता पिता ने गुरुजी का नाम गोविंद राय रखा। गुरुजी के बचपन के 5 साल पटना में ही बीते।
 
- गुरुजी के पिता अक्सर भ्रमण करते रहते थे। सन् 1671 में गुरुजी ने अपने परिवार के साथ दानापुर से यात्रा की और यात्रा में ही उन्होंने फारसी, संस्कृत और मार्शल आर्ट जैसे कौशल को ग्रहण किया। वह और उसकी मां आखिरकार 1672 में आनंदपुर में अपने पिता के साथ जुड़ गए जहां उनकी शिक्षा जारी रही।
 
- कहते हैं कि सन्न 1675 की शुरुआत में जब कश्मीरी हिंदुओं का मुगलों की सेना द्वारा जबरन धर्मान्तरण किया जा रहा था तब वहां के हिन्दुओं ने गुरु तेगबहादुर जी से सहायता मांगी थी। हिंदुओं की दुर्दशा का पता चलने पर गुरु तेगबहादुरजी राजधानी दिल्ली चले गए, परंतु जाने से पूर्व उन्होंने अपने 9 वर्षीय पुत्र श्री गोबिंद रायजी को सिखों का उत्तराधिकारी और 10वां गुरु नियुक्त कर दिया।
 
- दिल्ली में गुरुजी को गिरफ्तार कर लिया गया और उनसे इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया। गुरुजी के पिता और नौवें गुरु गुरु तेगबहादुर जी ने इससे इनकार किया तो मुगल सम्राट औरंगजेब के आदेशानुसार सार्वजनिक रूप से चांदनी चौक में उनका सिर कलम कर दिया गया। 
Guru Gobind Singh
- श्री गुरु गोबिंद रायजी तब 11 नवंबर 1675-78 को गुरु गद्दी पर विराजमान हुए और उनका नाम श्री गुरु गोविंदसिंह हुआ। कहते हैं कि तब बैशाख का माह था। 
 
- इसके बाद गुरु जी ने धर्म और देश की रक्षार्थ लोगों को एकत्रित किया। तब गुरु गोविंद सिंहजी ने ही पंज प्यारे की परंपरा की शुरुआत की थी। इसके पीछे एक बहुत ही मार्मिक कहानी है। गुरु गोविंद सिंह के समय मुगल बादशाह औरंगजेब का आतंक जारी था। उस दौर में देश और धर्म की रक्षार्थ सभी को संगठित किया जा रहा था। हजारों लोगों में से सर्वप्रथ पांच लोग अपना शीश देने के लिए सामने आए और फिर उसके बाद सभी लोग अपना शीश देने के लिए तैयार हो गए। जो पांच लोग सबसे पहले सामने आए उन्हें पंज प्यारे कहा गया।
 
- फिर गुरु जी ने धर्म, समाज और देखा की रक्षार्थ 1699 ई. में खालसा पंथ की स्थापना की। इन पंच प्यारों को गुरुजी ने अमृत (अमृत यानि पवित्र जल जो सिख धर्म धारण करने के लिए लिया जाता है) चखाया। इसके बाद इसे बाकी सभी लोगों को भी पिलाया गया। इस सभा में हर जाती और संप्रदाय के लोग मौजूद थे। सभी ने अमृत चखा और खालसा पंथ के सदस्य बन गए। अमृत चखाने की परंपरा की शुरुआत की।
 
- पंज प्यारे के चयन के बाद गुरुजी ने धर्मरक्षार्थ खालसा पंथ की स्थापना की थी। खालसा पंथ की स्थापना देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। बाबा बुड्ढ़ा ने गुरु हरगोविंद को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई थीं। युद्ध की दृष्‍टि से गुरुजी ने केसगढ़, फतेहगढ़, होलगढ़, अनंदगढ़ और लोहगढ़ के किले बनवाएं। पौंटा साहिब आपकी साहित्यिक गतिविधियों का स्थान था। कहते हैं कि उन्होंने मुगलों या उनके सहयोगियों के साथ लगभग 14 युद्ध लड़े थे। इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।
 
- तख्त श्री हजूर साहिब नांदेड़ में गुरुग्रंथ को बनाया था गुरु। महाराष्ट्र के दक्षिण भाग में तेलंगाना की सीमा से लगे प्राचीन नगर नांदेड़ में तख्‍त श्री हजूर साहिब गोदावरी नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है। इस तख्‍त सचखंड साहिब भी कहते हैं। इसी स्थान पर गुरू गोविंद सिंह जी ने आदि ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी बख्शी और सन् 1708 में आप यहां पर ज्योति ज्योत में समाए। ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी बख्शी का अर्थ है कि अब गुरुग्रंथ साहिब भी अब से आपके गुरु हैं।
 
- गुरु गोबिंद सिंह जी की पत्नियां, माता जीतो जी, माता सुंदरी जी और माता साहिबकौर जी थीं। बाबा अजीत सिंह, बाबा जुझार सिंह आपके बड़े साहिबजादे थे जिन्होंने चमकौर के युद्ध में शहादत प्राप्त की थीं। और छोटे साहिबजादों में बाबा जोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहंद के नवाब ने जिंदा दीवारों में चुनवा दिया था। 
 
- इसके साथ ही आप धर्म, संस्कृति और देश की आन-बान और शान के लिए पूरा परिवार कुर्बान करके नांदेड में अबचल नगर (श्री हुजूर साहिब) में गुरुग्रंथ साहिब को गुरु का दर्जा देते हुए और इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं- 'आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयो पंथ, सब सिक्खन को हुक्म है गुरु मान्यो ग्रंथ।' गुरु गोबिंद सिंह जी ने 42 वर्ष तक जुल्म के खिलाफ डटकर मुकाबला करते हुए सन् 1708 को नांदेड में ही सचखंड गमन कर दिया।
 
- गुरु गोविंदसिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करना पड़े। गुरुजी के परदादा गुरु अर्जुनदेव की शहादत, दादागुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेगबहादुर की शहीदी, दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना, आतंकी शक्तियों द्वारा दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना, वीरता व बलिदान की विलक्षण मिसालें हैं। गुरु गोविंदसिंह इस सारे घटनाक्रम में भी अडिग रहकर संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है।
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