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Last Updated : गुरुवार, 5 मई 2022 (12:43 IST)

आद्य शंकराचार्य कौन थे, भारतीय संस्कृति को जोड़े रखने में क्या योगदान था उनका?

आद्य शंकराचार्य कौन थे, भारतीय संस्कृति को जोड़े रखने में क्या योगदान था उनका? - Adi shankaracharya
Adi Shankaracharya
Adi shankaracharya jayanti 2022: 6 मई 2022 शुक्रवार को आदि शंकराचार्यजी की जयंती मनाई जाएगी। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि आदि शंकराचार्यजी का काल लगभग 2200 वर्ष पूर्व का है। दयानंद सरस्वती जी 138 साल पहले हुए थे। इस वक्त अंग्रेजी वर्ष 2022 चल रहा है और विक्रम संवत 2079 चल रहा है। विक्रम संवत इससे 57 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था।  इस वक्त कलि संवत 5123 चल रहा है। युधिष्ठिर संवत कलि संवत से 38 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था। मतलब इस वक्त युधिष्ठिर संवत 5162 चल रहा है। आदि शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण शिवगुरु एवं आर्याम्बा के यहां हुआ था और वे 32 वर्ष तक ही जीए थे। 788 ईस्वी में जिन शंकराचार्य का जन्म हुआ था वे अभिनव शंकराचार्य थे।

 
 
चार धामों में चार मठ की स्थापना की थी : आदि शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की थी। उत्तर दिशा में उन्होंने बद्रिकाश्रम में ज्योर्तिमठ की स्थापना की थी। यह स्थापना उन्होंने 2641 से 2645 युधिष्ठिर संवत के बीच की थी। इसके बाद पश्‍चिम दिशा में द्वारिका में शारदामठ की स्थापना की थी। इसकी स्थापना 2648 युधिष्‍ठिर संवत में की थी। इसके बाद उन्होंने दक्षिण में श्रंगेरी मठ की स्थापना भी 2648 युधिष्‍ठिर संवत में की थी। इसके बाद उन्होंने पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी में 2655 युधिष्‍ठिर संवत में गोवर्धन मठ की स्थापना की थी। आप इन मठों में जाएंगे तो वहां इनकी स्थापना के बारे में लिखा जान लेंगे। आदि शंकराचार्य के समय जैन राजा सुधनवा थे।
 
दशनामी संप्रदाय : शंकराचार्य ने ही हर क्षेत्र के हिन्दुओं को संगठित करने और जातिवाद को समाप्त करने के लिए दसनामी सम्प्रदाय की स्थापना की थी। यह दस संप्रदाय निम्न हैं:- 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं। इन्हीं संप्रदाय को आजकल संत संप्रदाय माना जाता है जिनके 13 अखाड़े कुंभ में स्नान करते हैं। शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया।
 
शंकराचार्य के चार शिष्य : 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2. हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)। माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।
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नागा परंपरा : दशनामियों के दो कार्यक्षेत्र निश्चित किए- पहला शस्त्र और दूसरा शास्त्र। यह भी कहा जाता है कि शंकराचार्य के सुधारवाद का तत्कालीन समाज में खूब विरोध भी हुआ था और साधु समाज को उग्र और हिंसक साम्प्रदायिक विरोध से जूझना पड़ता था। काफी सोच-विचार के बाद शंकराचार्य ने वनवासी समाज को दशनामी परम्परा से जोड़ा, ताकि उग्र विरोध का सामना किया जा सके। वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई। ये नागा जैन और बौद्ध धर्म भी सनातन हिन्दू परम्परा से ही निकले थे। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए।
 
अखाड़ों की परंपरा : इन मठाम्नायों के साथ अखाड़ों की परम्परा भी लगभग इनकी स्थापना के समय से ही जुड़ गई थी। चारों पीठों की देशभर में उपपीठ स्थापित हुई। कई शाखाएं-प्रशाखाएं बनीं, जहां धूनि, मढ़ी अथवा अखाड़े जैसी व्यवस्थाएं बनीं। जिनके जरिए, स्वयं संन्यासी पोथी, चोला का मोह छोड़ कर, थोड़े समय के लिए शस्त्रविद्या सीखते थे, साथ ही आमजन को भी इन अखाड़ों के जरिए आत्मरक्षा के लिए सामरिक कलाएं सिखाते थे। हिन्दुओं की आश्रम परम्परा के साथ अखाड़ों की परंपरा भी प्राचीनकाल से ही रही है। अखाड़ों का आज जो स्वरूप है उस रूप में पहला अखाड़ा 'अखंड आह्वान अखाड़ा' सन् 547 ई. में सामने आया। इसका मुख्य कार्यालय काशी में है और शाखाएं सभी कुम्भ तीर्थों पर हैं। 
 
मध्यकाल मे चारों पीठों से जुड़ी दर्जनों पीठिकाएं सामने आईं, जिन्हें मठिका कहा गया। इसका देशज रूप मढ़ी प्रसिद्ध हुआ। देशभर में दशनामियों की ऐसी कुल 52 मढ़ियां हैं, जो चारों पीठों द्वारा नियंत्रित हैं। इनमें सर्वाधिक 27 मठिकाएं गिरि दशनामियों की हैं, 16 मठिकाओं में पुरी नामधारी संन्यासी के अधीन हैं, 4 मढ़ियों में भारती नामधारी दशनामियों का वर्चस्व है और एक मढ़ी लामाओं की है। साधुओं में दंडी और गोसाईं दो प्रमुख भेद भी हैं। तीर्थ, आश्रम, भारती और सरस्वती दशनामी, दंडधर साधुओं की श्रेणी में आते हैं जबकि बाकी गोसाईं कहलाते हैं।
 
शंकराचार्य परंपरा की शुरुआत : उन्होंने साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की। चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रिय आचार्य माने जाते हैं, इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं। हिंदू साधुओं के नाम के आगे स्वामी और अंत में उसने जिस संप्रदाय में दीक्षा ली है उस संप्रदाय का नाम लगाया जाता है, जैसे- स्वामी अवधेशानंद गिरि।
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ग्रंथ : शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएं की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया।
 
शंकराचार्य का दर्शन : शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे। शंकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में है। अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया। वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।
 
मंदिर : शंकराचार्य ने केदारनाथ से कामाख्या तक और सोमनाथ से रामेश्वरम तक के सभी मंदिरों के जिर्णोद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 
 
देह त्याग : आदि शंकराचार्य के समय जैन राजा सुधनवा थे। उनके शासन काल में उन्होंने वैदिक धर्म का प्रचार किया। उन्होंने उस काल में जैन आचार्यों को शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया। राजा सुधनवा ने बाद में वैदिक धर्म अपना लिया था। राजा सुधनवा का ताम्रपत्र आज उपलब्ध है। यह ताम्रपत्र आदि शंकराचार्य की मृत्यु के एक महीने पहले लिख गया था। शंकराचार्य के सहपाठी चित्तसुखाचार्या थे। उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम है बृहतशंकर विजय। हालांकि वह पुस्तक आज उसके मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं लेकिन उसके दो श्लोक है। उस श्लोक में आदि शंकराचार्य के जन्म का उल्लेख मिलता है जिसमें उन्होंने 2631 युधिष्ठिर संवत में आदि शंकराचार्य के जन्म की बात कही है। गुरुरत्न मालिका में उनके देह त्याग का उल्लेख मिलता है। केदारनाथ मंदिर के पीछे उनकी समाधी है।
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